पुरानी कहावत है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। महाराष्ट्र में शिवसेना का नेतृत्व इस कहावत से अनभिज्ञ हो, यकीन नहीं होता। फिर क्यों उद्धव ठाकरे और उनके चंपू बार-बार दुहाई देते रहे कि विधानसभा चुनाव तो भाजपा और शिवसेना मिलकर ही लड़ेंगे पर सीट दोनों की बराबर यानी 144-144 ही रहेंगी। भाजपा ने शिवसेना नेताओं के बयानों पर तो चुप्पी ही साधे रखी पर आलाकमान ने अपने क्षत्रपों के जरिए संदेश उद्धव को साफ भेज दिया कि या तो 120 के आंकड़े को मान लें नहीं तो भाजपा की 288 उम्मीदवारों की अपनी सूची तैयार है। बाल ठाकरे को उनके समर्थक मराठी शेर कहते थे।

जब तक ठाकरे थे, भाजपा और शिवसेना के बीच छोटे और बड़े भाई का ही रिश्ता रहा। यहां तक कि 1995 में पहली बार दोनों दलों की साझा सरकार बनी तो मुख्यमंत्री का पद शिव सेना के लिए आरक्षित रहा। यही फार्मूला 2014 के लोकसभा चुनाव तक दोनों दलों ने माना। विधानसभा चुनाव में गठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री का पद शिवसेना के लिए ही बना रहा। लोकसभा के 1996 के चुनाव में भाजपा को 18 और शिवसेना को 15 सीटें मिली थीं पर भाजपा ने तब भी पैतरेबाजी नहीं दिखाई।

वह दौर वाजपेयी-आडवाणी का था। प्रमोद महाजन दोनों दलों की मैत्री के सूत्रधार थे। लेकिन आलाकमान की भाजपा अलग है। मोदी के नेतृत्व की 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 24 में से 23 सीटों पर कामयाबी मिली थी। जबकि शिवसेना 20 में से 18 ही जीत पाई थी। उसी साल विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा ने बराबर की सीटें मांगी। उद्धव ठाकरे इसके लिए राजी नहीं हुए। लिहाजा पच्चीस साल पुरानी दोस्ती टूट गई। दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। भाजपा ने 260 उम्मीदवार उतारे और 122 सीटें जीत ली। शिवसेना ने उससे 22 ज्यादा यानी 282 उम्मीदवार खड़े किए। पर कामयाबी महज 63 पर ही मिल पाई। त्रिशंकु विधानसभा में छोटी पार्टी होकर भी मुख्यमंत्री का पद मांग लिया शिवसेना ने।

आलाकमान ने नकार दिया और शरद पवार की पार्टी का समर्थन लेने की धमकी दी तो उद्धव ठाकरे राह पर आ गए। उसी का अंजाम है कि इस बार झुक कर चुपचाप कर लिया भाजपा से तालमेल। काश! समझ पाते कि सियासी रिश्ते खून के रिश्ते नहीं होते कि जो बड़ा है, वही हमेशा बड़ा रहे। सियासी रिश्तों में बड़ा कब छोटा हो जाए, पता भी नहीं चलता। फिर बाल ठाकरे के दौर की शिवसेना अब बची कहां है? एक तो राज ठाकरे अलग हो गए ऊपर से उद्धव वैसी धमक नहीं बना पाए। कहीं कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का 2014 की तरह इस बार भी गठबंधन न हुआ तो आलाकमान इतनी सीटें भी न देते उद्धव को।