साधू-संत-महंत और संन्यासी को कहने को तो दुनियादारी से कोई मोह नहीं पालना चाहिए। पर हकीकत में उलटा है। अपने भक्तों और अनुयायियों को तो ये साधू महात्मा त्याग का पाठ पढ़ाते हैं, मोह-माया के जाल में न उलझने की नसीहत देते हैं। पर खुद उनके माल पर नजर गड़ाए रखते हैं। और तो और धर्म को राजनीति से ऊपर बताते-बताते खुद राजनीतिक बियाबान में खो जाने को लालायित दिखते हैं। हरिद्वार में इन साधू-संतों की लीला आसानी से देख सकता है कोई भी। दांवपेच इन दिनों अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की सियासत में आजमाए जा रहे हैं। परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि और महामंत्री महंत हरि गिरि ने ऐसा दांव खेल दिया कि आरएसएस के समर्थक साधू-संन्यासी धराशायी नजर आए। दरअसल हरिद्वार में जनवरी 2021 में कुंभ का आयोजन होगा। उससे एक साल पहले ही अखाड़ा परिषद का चुनाव हो जाना चाहिए। पर नरेंद्र गिरि और हरि गिरि ने कनखल स्थित पंचायती उदासीन अखाड़े में कनखल की बैठक बुला ली। बैरागी संप्रदाय के महंत राजेंद्र दास ने इस बैठक में नरेंद्र गिरि को ही दोबारा अध्यक्ष और हरि गिरि को महामंत्री बनाने का प्रस्ताव रख दिया। पंचायती उदासीन अखाड़े के महंत भगत राम ने उठ कर समर्थन कर दिया और फिर मौजूद बाकी साधू-संतों ने दोनों को फूल-मालाओं से लाद दिया। पांच साल के लिए फिर अखाड़ा परिषद पर काबिज हो गए नरेंद्र गिरि और हरि गिरि। पाठकों को याद दिला दें कि नरेंद्र गिरि यूपी के मुख्यमंत्री रहे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के खास माने जाते हैं। संघी खेमा उनकी जगह अपने पसंदीदा एक महंत को अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाने की जुगत भिड़ा रहा था कि नरेंद्र गिरि ने पहले ही शतरंज की बिसात बिछा गोटियां अपने पक्ष में फिट कर ली।
राजस्थान में भाजपा के शिखर नेतृत्व
बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी। राजस्थान में भाजपा के शिखर नेतृत्व ने पार्टी की अब तक सबसे कद्दावर क्षत्रप रही वसुंधरा राजे के सब्र का जैसे इम्तिहान लेने की ठान ली है। वे पिछले साल सूबे की सत्ता से क्या हटीं, उनकी चौतरफा अनदेखी ही शुरू कर दी। न केंद्रीय मंत्रिमंडल के गठन में उनसे सलाह ली और न उन्हें विधायक दल का नेता बनाया। नया सूबेदार भी उनसे परामर्श किए बिना ही नियुक्त कर दिया। सो, वे अब अपनी नाराजगी छिपा नहीं पा रहे। भले पार्टी आलाकमान कोई परवाह न करे। सतीश पूनिया को पार्टी का नेतृत्व सौंपना वसुंधरा को अखरा है। तभी तो दशहरे के मौके पर भाजपा दफ्तर में हुए पार्टी के समारोह में नहीं दिखीं। जबकि आलाकमान के दूत प्रकाश जावड़ेकर और सूबे के तमाम बड़े नेता मौजूद थे। दस हजार कार्यकर्ताओं को जुटा लिया था पूनिया ने अपने सम्मान में।
अनुशासनहीनता का आरोप न लगे, इसका रास्ता भी खोज लिया था वसुंधरा ने। कन्या पूजन और कुछ दूसरे कार्यक्रम धौलपुर में पहले ही तय कर दिए थे। हेकड़ी की अपनी कार्यशैली को पलक झपकते तो बदल नहीं सकती। जो पूनिया उनके सामने बैठने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे, वैसे नौजवान के आगे वे भला नतमस्तक कैसे हो सकती हैं। उन्होंने तो राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री को अहमियत नहीं दी थी। मोदी के 2014 के शपथ ग्रहण समारोह पर अमेरिका चली गई थीं। काश समझ पातीं कि समय बलवान तो होता ही है, परिवर्तनशील भी होता है। हठधर्मिता तभी तक चलती है, जब तक ताकत पास हो। नई भाजपा में आलाकमान को आंख दिखाने की मजाल किसी क्षत्रप की नहीं। हवा के रुख को भांप कर खुद को बदल लेतीं तो प्रेम कुमार धूमल की तरह कम से कम अपने सांसद पुत्र को तो स्थापित करा ही सकती थीं।