रिक्त स्वप्न

बुजुर्ग नेता गुलाबचंद कटारिया को असम का राज्यपाल बना दिए जाने के बाद राजस्थान विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता का पद खाली हो गया है। कटारिया संघ की पसंद तो रहे ही, सूबे में भाजपा का जनाधार बढ़ाने वाले नेताओं में भी गिनती हुई सदैव उनकी। अब कौन होगा नेता प्रतिपक्ष? इस सवाल पर भाजपा आलाकमान फिलहाल चुप्पी साधे है। कायदे से तो यह कुर्सी दो बार मुख्यमंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे को मिलनी चाहिए। जो कहने को पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जरूर हैं पर सूबे की सियासत का मोह उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।

वे मुख्यमंत्री पद का चेहरा खुद को घोषित कराने के फेर में कब से तिकड़म लगा रही हैं। पार्टी नेतृत्व ने पिछले पांच साल के दौरान उनकी अनदेखी में कोई कसर नहीं रखी पर वे भी घर बैठने को तैयार नहीं हुई। उनके धुर विरोधी जाट नेता सतीश पूनिया को आलाकमान ने वसुंधरा का कद घटाने के लिए ही पार्टी का सूबेदार बनाया था। यह बात अलग है कि पूनिया वसुंधरा की हैसियत घटा नहीं पाए। अब विधानसभा चुनाव में ज्यादा वक्त नहीं बचा है तो आलाकमान की दुविधा बढ़ गई है।

आलाकमान कह चुका है कि मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके चुनाव नहीं लड़ेगी पार्टी। लेकिन, पार्टी के अंदरूनी सर्वेक्षण में यह चौंकाने वाली हकीकत भी सामने आई बताते हैं कि वसुंधरा की उपेक्षा करके भाजपा का जीत पाना आसान नहीं होगा। इस नाते हो सकता है कि पार्टी वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष बनाने में हित देखे। पर, वसुंधरा के करीबियों का कहना है कि उनकी निगाह चुनाव अभियान समिति के मुखिया पद पर टिकी है। जिससे टिकटों के बंटवारे में भी चलेगी उनकी राय।

ऐसे में नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में राजेंद्र राठौड़ और जोगेश्वर गर्ग के नाम शामिल बताए जा रहे हैं। रही वसुंधरा की संभावनाओं की बात तो एक तो सतीश पूनिया की सूबेदारी की मियाद पूरी हो चुकी है। दूसरे, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत भी मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित होने की दौड़ में शामिल होकर पूनिया का खेल बिगाड़ रहे हैं।

खोया मान

समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान का रामपुर ही नहीं सूबे की सियासत में ही बोलबाला था। मुलायम सिंह यादव का मुसलिम चेहरा रहे आजम खान की इच्छा सपा में फैसला बन जाती थी। अखिलेश यादव के राज में उनकी चोरी गई भैंस को भी पुलिस ने मुस्तैदी से बिना देर किए बरामद कर लिया था। जो एक मजाक का किस्सा भी बन गया। पर 2017 में सूबे में सत्ता परिवर्तन हुआ तो आजम खान और उनके परिवार के बुरे दिन शुरू हो गए।

आजम खान व उनके सभी परिवारजनों के खिलाफ अनेक आपराधिक मुकदमे दर्ज होते गए और उन्हें ही नहीं उनकी पत्नी और बेटे को भी जेल जाना पड़ा। आखिर सुप्रीम कोर्ट ही उनकी हिमायत में आया और उन्हें जमानत मिली। जेल में ही पिता-पुत्र को कोरोना संक्रमण भी झेलना पड़ा। एक तरह से तो मौत के मुंह से वापसी हुई 75 वर्ष के आजम की। इससे पहले रामपुर की स्वार टांडा सीट के विधायक उनके बेटे अब्दुल्ला आजम की विधानसभा सदस्यता दो जन्मतिथि होने के आधार पर रद्द कर दी गई। आजम की पत्नी पहले राज्यसभा की सदस्य थी।

आजम जब 2019 में लोकसभा के लिए चुने गए तो विधानसभा की खाली सीट पर हुए उपचुनाव में तंजीन फातिमा विजयी हुई। आजम रामपुर सीट से नौ बार विधायक रहे। कभी चुनाव नहीं हारे। एक मामले में उन्हें अदालत से सजा हुई तो उनकी लोकसभा सदस्यता जाती रही। इसके बाद एक अन्य मामले में पिता-पुत्र दोनों को दो-दो वर्ष कैद की सजा हुई तो बेटे अब्दुल्ला आजम की विधानसभा सदस्यता फिर चली गई।

भाजपा सरकार ने अदालती फैसला आते ही विधानसभा अध्यक्ष से सदस्यता रद्द करा स्वार सीट को रिक्त घोषित कर दिया। अब आजम और उनका बेटा दोनों ही कोई चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। चार साल पहले तक तो आलम यह था कि आजम लोकसभा में थे तो पत्नी और पुत्र दोनों विधानसभा में। अब तीनों ही चुनावी राजनीति से बाहर हो गए।

सम्मान शब्द शिल्पी का

पुरस्कारों व सम्मान समारोह की यही उपयोगिता है कि उसके मंच से साहित्य व साहित्यकार के उद्देश्य पर नए शब्द सामने आते हैं। कुछ ऐसा ही माहौल बना था साहित्यकार संजीव कुमार को ‘हरिवंश राय बच्चन साहित्य सम्मान’ देने के समारोह में। इंडिया नेटबुक्स के अध्यक्ष व प्रबंध निदेशक संजीव कुमार उन साहित्यकारों में हैं, जो साहित्य सृजन को सभ्यता और संस्कृति की सतत प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। कलम और अक्षर की तहजीबी तालीम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लगभग 107 किताबों की रचना की है।

उनका साहित्य आम जिंदगी का पाठ्यक्रम सरीखा है जो जिंदगी की पाठशाला में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो जाता है। वे एक यायावर प्रवृत्ति के लेखक हैं और इस वजह से उनके साहित्य में मानव जीवन के हर मर्म की विपुलता है। संजीव कुमार हाल ही में आए अपने प्रबंध काव्य ‘कोणार्क’ की वजह से भी चर्चा में हैं। इतिहास की निष्ठुरता और तटस्थता जब साहित्य की संवेदनशीलता से मिलती है तो ‘कोणार्क’ जैसा प्रबंध काव्य पैदा होता है। छेनी-हथौड़ी की भाषा को जब वे अपनी ऐतिहासिक समझ से शब्दों में उकेरते हैं तो पाठकों के सामने एक नया शिल्प आता है।

(संकलन : मृणाल वल्लरी)