सियासी फैसलों का सदा औचित्य नहीं होता। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक फैसला भी औचित्य से परे लगता है। सूबे में दलितों की 22 जातियां ठहरीं। जब राम विलास पासवान नीतीश के विरोधी थे तो नीतीश ने 22 में से 21 जातियों को महादलित घोषित कर दिया था। दलील दी थी कि एक खास जाति के लोग महादलितों का हक मार रहे हैं। निशाना पासवान जाति पर था। लेकिन पिछले दिनों नीतीश ने लालू को छोड़ भाजपा से हाथ मिलाया तो पासवान भी अपने-आप उनके सहयोगी बन गए। नतीजतन अब उन्होंने इकलौती दलित जाति पासवान को भी महादलित ही बना दिया। शुरुआत में जब दलितों का वर्गीकरण किया तो चार जातियां दलित रखी और बाकी 18 को महादलित श्रेणी में रख उनका खास विकास करने का सपना दिखाया। बाद में सियासी समीकरण बदले तो तीन और जातियों को 18 में शामिल करने से नहीं हिचके। आखिर में बची इकलौती जाति पासवान। यह वर्गीकरण तब राम विलास पासवान को बेहद अखरा था। इतना कि आपा खो बैठे थे। खुलकर विरोध भी किया था। भले उसका नीतीश पर लेश मात्र असर नहीं पड़ा हो। पर जब दोबारा दोस्ताना हुआ तो पासवान भी महादलित बन गए। जब कोई दलित बचा ही नहीं तो फिर महादलित बनाने से भी कौन सा मकसद पूरा कर लिया नीतीश ने। हकीकत तो यह है कि आजकल पासवान और नीतीश में एका कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। पासवान जब भी दिल्ली से पटना आते हैं तो नीतीश के दरबार में हाजिरी जरूर लगाते हैं। नीतीश भी उन पर कम मेहरबान नहीं। उनके छोटे भाई को अपनी सरकार में मंत्री पद भी दे रखा है। एक दौर में पासवान ने तोहमत लगाई थी कि दलितों को अपमानित करने के लिए नीतीश ने महादलित का फंडा अपनाया है। लेकिन अब वे भी महादलित कहला कर खुश होंगे।

कुनबे की कलह

चुनावी साल में खूब किरकिरी हो रही है राजस्थान में भाजपा की। पार्टी के अंदरूनी हालात भी कम जिम्मेदार नहीं इस गत के लिए। डेढ़ महीना बीत गया पर राजस्थान में पार्टी को सूबेदार नहीं मिल पाया। उपचुनाव की हार के बाद अशोक परनामी को इस्तीफा देना पड़ा था। पर उनकी जगह नया सूबेदार बनाने में अड़चन क्या है? जयपुर के भाजपा दफ्तर में अब सन्नाटा दिखता है। इस साल छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में होंगे विधानसभा चुनाव। तीनों जगह भाजपा है सत्ता पर काबिज। पर राजस्थान को लेकर उसकी चिंता ज्यादा ठहरी। एक तो सत्ता विरोधी लहर ऊपर से कांग्रेस के पास अशोक गहलोत और सचिन पायलट सरीखे नेताओं की उपलब्धता। रही भाजपा की बात तो पार्टी कार्यकर्ता ही समझ नहीं पा रहे कि मतदाताओं को अपनी सरकार की कौन सी उपलब्धि बता कर अपने पक्ष में करेंगे। वैसे आलाकमान ने संगठन के स्तर पर तो तैयारी शुरू कर ही रखी है। बूथ कमेटियों की बैठकें जारी हैं। लेकिन विस्तारक और पन्ना प्रमुख खुद नहीं समझ पा रहे कि कैसे निपटेंगे सत्ता विरोधी रुझान से।