घर का भेदी
घोंसला तिनका-तिनका जोड़ने से बनता है। सो ममता बनर्जी और उनके हिमायती कैसे दावा कर सकते हैं कि मुकुल राय के पार्टी छोड़ने और भाजपा में जाने से कोई सियासी नुकसान नहीं होगा तृणमूल कांग्रेस को। वैसे भी कोलकाता में अपनी पहली ही रैली में मुुकुल राय ने जिस अंदाज में ममता और उनके सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी पर निशाना साधा, उससे तृणमूल कांग्रेस में खलबली तो मची ही। तभी तो ममता के इस सबसे पुराने सहयोगी का जिक्र आते ही पार्टी का हर नेता एक ही रोना रोने लगता है कि घर का भेदी ही लंका ढहाता है। अपनी रैली में मुकुल राय ने फरमाया कि पश्चिम बंगाल जब डेंगू की मार से कराह रहा है तब मुख्यमंत्री फिल्मोत्सव और नाच गाने में मस्त हैं। दरअसल कोलकाता फिल्मोत्सव की शुरूआत रैली वाले दिन नहीं हुई थी। अब तो मुकुल भाजपाई राग ही अलापेंगे तभी तो ममता पर अल्पसंख्यकों को तुष्टीकरण की सियासत करने का आरोप लगा दिया। उन्होंने याद दिला दिया कि बदला नहीं-बदलाव चाहिए का नारा लगाकर सत्ता पाई थी ममता ने। पर अब उन्हीं की पुलिस सरकार का विरोध करने वालों को पकड़ने में व्यस्त है। ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य जब विदेश यात्रा करते थे तो बहाना निवेश को आकर्षित करने का बनाते थे।
अब ममता भी तो उसी राह पर चल रही हैं। हां, एक फर्क जरूर आया है। उनका प्रतिनिधि मंडल विशालकाय होता है। सुपरस्पेशलिटी अस्पताल खोले थे बडेÞ जोश खरोश से ममता सरकार ने। पर न डाक्टर हैं और न जरूरी दूसरी सुविधाएं। फिर कैसे आ सकते हैं इन अस्पतालों में रोगी। डेंगू ने तो सूबे के स्वास्थय विभाग की पोल खोल कर रख दी। ममता पर पार्टी को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना देने जैसा आरोप भी जड़ने से नहीं चूके। फिर हमला उनके भतीजे अभिषेक पर किया। आरोप लगाया कि अभिषेक ने जुबान बंद करने की मंशा से भेजा है डराने के लिए उन्हें मानहानि का नोटिस। अभिषेक को विभिन्न मामलों में कठघरे में जो खड़ा कर दिया था। गनीमत है कि अभी तक ममता बनर्जी ने मुकुल की किसी टिप्पणी का जवाब नहीं दिया हैै। देती भी कैसे। रैली वाले दिन ही एक हफ्ते के लिए लंदन के सफर पर रवाना जो हो गई थी। रही बात भाजपा की तो ममता के गढ़ में मुकुल राय की पहली ही रैली में जुटी भीड़ को देख अमित शाह फूल नहीं समा रहे। अगले साल सूबे में पंचायत चुनाव होंगे। भाजपा को आस है कि मुकुल राय के संगठन कौशल से कुछ तो लाभ मिलेगा जरूर।
वर्चस्व की जंग
नेताओं की तरह खटपट नौकरशाही में भी कम नहीं होती। अब तो सुप्रीम कोर्ट के जजों तक की खटपट की खबरें उजागर हो रही हैं। उत्तराखंड में भी दो आला आइएएस अफसरों के बीच अघोषित तौर पर ही क्यों न सही वर्चस्व का शीतयुद्ध जारी है। मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह और अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश के बीच सब कुछ सहज नहीं है। तभी तो ओमप्रकाश मुख्य सचिव की बुलाई कई बैठकों से भी नदारद नजर आए। ओमप्रकाश जहां मुख्यमंत्री के चहेते माने जाते हैं वहीं उत्पल कुमार सिंह के तार प्रधानमंत्री दफ्तर से जुड़े हैं। कड़क मिजाजी, रुखे व्यवहार और दबाव में न आने की कार्यशैली के चलते ओमप्रकाश भाजपा के कई नेताओं को भी अखर रहे हैं। विधायकों के दबाव में भी उत्पल कुमार सिंह ने स्वास्थ्य विभाग उनसे लेकर नितेश झा को थमा दिया। ओमप्रकाश को अखरा होगा। नौ नवंबर को मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना की बंदी के एलान को ओमप्रकाश की नाराजगी से जोड़कर देखा जा रहा है। आला अफसरों की इस जंग के आगे मुख्यमंत्री बेबस लगते हैं। तभी तो विकास योजनाओं पर भी पड़ रहा है प्रतिकूल असर। वैसे दोनों के रिश्तों में गांठ तो उसी दिन पड़ गई थी जब नए मुख्य सचिव ने केंद्र के डेपुटेशन से वापस आकर नौकरशाही के मुखिया का पद संभाला था। ओमप्रकाश ने अपर मुख्य सचिव की हैसियत से मुख्यमंत्री की मंजूरी ले सचिवालय के अफसरों के तबादलों की सूची उसी दिन जारी करा दी थी। यानि नए मुख्य सचिव को कोई तवज्जो देना उन्हें जरूरी लगा ही नहीं।