राजस्थान को लेकर भाजपा आलाकमान चिंतित है। लोकसभा चुनाव में विधानसभा का दोहराव न हो जाए, इस आशंका ने चिंता और बढ़ाई है। पिछले चुनाव में भाजपा को सूबे की सभी पच्चीस सीटों पर कामयाबी मिली थी। लेकिन बाद में हुए उपचुनाव में पार्टी अजमेर और अलवर की सीट गंवा बैठी। इस बार माहौल बदला है। तब सत्ता में भाजपा थी। अब सूबे में कांग्रेस का राज है। सो, कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने के ख्याली पुलाव पकाने के बजाय नुकसान को कम करने की रणनीति बन रही है। रवैया भी लचीला हुआ है। अतीत में वसुंधरा के रवैये से नाराज होकर बगावत कर गए नेताओं को वापस लाने का प्रयास उसी का नतीजा है। मसलन, घनश्याम तिवाड़ी का मामला ज्वलंत है। पांच साल तक पार्टी का सबसे कद्दावर ब्राह्मण चेहरा वसुंधरा की कार्यशैली से आलाकमान को अवगत कराता रहा। पर कोई हरकत में नहीं आया। उलटे तिवाड़ी को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। संघी खेमा भी तब मौन रहा। विधानसभा चुनाव में भी टिकट नहीं मिला तो वफादारों ने बगावत की। आलाकमान तब भी हरकत में नहीं आया। लेकिन सूबे की सत्ता छिन गई तो अब रूठों को मनाने की सुध आई है। आलाकमान पिछले दिनों जयपुर पहुंचे तो शक्ति केंद्र के सम्मेलन में कार्यकर्ताओं की कमी देख आंखें खुल गईं। बुलाए थे पार्टी ने आठ हजार पर पहुंचे सिर्फ दो हजार। नाराज आलाकमान दौरा बीच में ही छोड़कर लौट गए। अपने संगठन महामंत्री रामलाल को पड़ताल का जिम्मा सौंप दिया। रामलाल ने ही कार्यकर्ताओं को बीती ताहिं बिसार दे, आगे की सुधि ले की सलाह दी। पार्टी छोड़कर गए नेताओं को वापसी का न्योता दिया। ऊपर से यह घुट्टी भी पिलाई कि वे पार्टी को देखें, उम्मीदवार को नहीं। लक्ष्य मौजूदा नेतृत्व की वापसी तय कराना है। कल तक उपेक्षित रहे नेता और कार्यकर्ता अचानक तेज हुई अपनी मिजाजपुर्सी से हैरान हैं।

हैरान रावत
उत्तराखंड में कांग्रेस के भीतर लोकसभा चुनाव के टिकटों को लेकर खासी मारा-मारी है। पिछले चुनाव में सूपड़ा साफ हो गया था पार्टी का। हालांकि तब वह सूबे की सत्ता पर काबिज थी। पांचों सीटों पर दावेदार ज्यादा हैं, यह बड़ी बात नहीं। पर बड़ी बात दूसरी है कि किसी भी सीट से निचले स्तर से हरीश रावत का नाम सूची में नहीं आया है। बेशक वे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं और कार्यसमिति के सदस्य भी। सूबे में कुल तेरह जिले हैं। एक भी जिला अध्यक्ष ने अपनी सूची में पूर्व मुख्यमंत्री का नाम नहीं दर्ज किया। जबकि वे नैनीताल और हरिद्वार दोनों जगह से दावेदार हैं। लोकसभा चुनाव 2009 में उन्होंने हरिद्वार से जीता था। जिलों से आई सूची में नाम न होना किसी भी कद्दावर नेता को कचोटेगा जरूर। इसके उलट नैनीताल सीट पर इंदिरा हृदयेश व दो पूर्व सांसदों केसी सिंह और महेंद्र पाल ने मोर्चेबंदी कर रखी है। हरिद्वार में भी हरीश रावत की राह में पार्टी के सूबेदार प्रीतम सिंह के चंपू संजय पालीवाल, पूर्व विधायक अमरीश कुमार और विकास चौधरी रोड़ा बने हैं। दुखी हरीश रावत अब पौड़ी गढ़वाल सीट से भी उम्मीदवारी का मन बना चुके हैं। भाजपा में इस सीट को लेकर काफी रस्साकशी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेटे के अलावा कर्नल अजय कोठियाल, राज्य सरकार के मंत्री सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत भी ताल ठोक कर टिकट का दावा कर रहे हैं। रही हरिद्वार की बात तो भाजपा मौजूदा सांसद रमेश पोखरियाल निशंक का टिकट काटने के बारे में शायद ही सोचे।

वक्त नखरे का
भाजपा में सहयोगियों की नाराजगी सतह पर आने लगी है। चुनाव में अब ज्यादा वक्त है भी नहीं। सो, हर किसी को अपना भविष्य सोचना ही है। महाराष्ट्र में अपनी रिपब्लिकन पार्टी के लिए कोई सीट नहीं छोड़ने से दलित नेता रामदास आठवले मुंह फुलाए घूम रहे हैं। आठवले को भाजपा ने राज्यसभा में जगह दे रखी है। इतना ही नहीं वे मोदी सरकार में मंत्री पद का सुख भी भोग रहे हैं। गाहे-बगाहे उसी सरकार की आलोचना भी कर बैठते हैं, जिसका हिस्सा वे खुद भी हैं। बहरहाल लोकसभा में सीट नहीं मिलने से उनके काडर में निराशा तो होगी ही। इसी तरह उत्तर प्रदेश में अपना दल का नेतृत्व भी नखरे दिखा रहा है। अनुप्रिया पटेल को गुस्सा है कि उत्तर प्रदेश की सरकार उन्हें समुचित मान सम्मान नहीं देती। उनके पति आशीष पटेल विधान परिषद के सदस्य हैं। पर सूबे की सरकार में मंत्री पद पाने की लालसा तो पूरी नहीं हुई है। यूपी के सीमित क्षेत्र में पिछड़ी कुर्मी बिरादरी पर असर रखने वाली इस पार्टी को भाजपा ने 2014 में दो सीटें दी थी। दोनों ही सीटें उसने मोदी लहर में जीत भी ली थी। यह बात अलग है कि तब अनुप्रिया पटेल, उनकी मां और दूसरी बहन, पूरा कुनबा एकजुट था। अब अपना दल में विभाजन हो चुका है। भाजपा आलाकमान भी बखूबी अवगत है कि पहले जैसा असर अब बचा ही नहीं सोनेलाल पटेल की विरासत का। बहरहाल अनुप्रिया पटेल अब चिल्लपों कर रही हैं। सीटों के बंटवारे पर अभी तक कोई मंत्रणा नहीं होने का मलाल भी है। नखरे दिखा रही हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री के गाजीपुर के कार्यक्रम से भी किनारा कर लिया था। अब तो अपनी पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन में भाजपा को सीधी चेतावनी ही दे डाली कि उसका मान-सम्मान नहीं रखा तो विकल्प खुले हैं। भाजपा के साथ गठबंधन अपना दल की मजबूरी नहीं।