जगदीप धनखड़ फिर सुर्खियों में हैं। उपराष्ट्रपति बनने के बाद से धनखड़ ने न्यायपालिका के खिलाफ हल्ला बोल रखा है। खासकर सुप्रीम कोर्ट को लेकर वे लगातार मुखर हैं। इससे पहले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे तो सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उनके रिश्ते लगातार कटुता भरे ही बने रहे। तृणमूल कांगे्रस ने उन्हें केंद्र सरकार और भाजपा का एजंट बताते हुए राज्यपाल पद से हटाने की मांग तक कर डाली थी। अफसरों को राजभवन में तलब करने का भी उन्होंने नया प्रयोग शुरू किया था। कई बार ममता समर्थकों ने यहां तक भी आरोप लगाए थे कि राज्यपाल खराब कानून व्यवस्था बताकर सूबे की निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कराने की जुगत में हैं।
बहरहाल, उनके उपराष्ट्रपति बन जाने और उनकी जगह सीवी आनंद बोस के पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बन जाने के बाद ममता बनर्जी ने राहत की सांस ली है। उपराष्ट्रपति का पद वैसे तो संवैधानिक है और इस नाते अतीत में किसी उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की ऐसी आलोचना नहीं की जैसी धनखड़ लगातार कर रहे हैं। इससे पहले कानून मंत्री किरण रिजिजू थे इसी राह पर। पर उन्हें तो सुप्रीम कोर्ट ने उनके पद का वास्ता देकर नसीहत दे डाली थी। वे तो संभल गए पर धनखड़ लगातार आक्रामक हैं।
पहले तो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत को ही कठघरे में खड़ा किया। अब संसद के बनाए कानून की समीक्षा के सुप्रीम कोर्ट के अधिकार पर सवाल उठा दिया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में व्यवस्था दी थी कि संसद कानून तो बना सकती है पर संविधान के मूलभूत ढांचे से छेड़छाड़ नहीं कर सकती।
अगर सुप्रीम कोर्ट किसी कानून को संविधान की मूल भावना के विपरीत देखता है तो रद्द कर देता है। धनखड़ खुद वकील रहे हैं। पहली बार 1989 में राजस्थान से जनता दल के सांसद बने थे। उन्होंने संसद को सर्वोच्च बताया तो जवाब कांगे्रसी नेता चिदंबरम ने दिया कि सर्वोच्च संविधान है, संसद नहीं। बहुमत के बल पर कोई सरकार अगर संविधान विरोधी कानून बना देगी तो सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द करेगा ही।
मुश्किल डगर
भाजपा ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव को लेकर पूरी ताकत झोंक दी है। दक्षिण के इसी एक राज्य में सत्ता का सुख मिला है इस पार्टी को। यहां भाजपा पहली बार 2008 में सत्ता में आई थी। 224 सदस्यीय विधानसभा में उसे 110 सीटें ही मिली थी। विरोधी कांग्रेस 80 और एचडी देवगौड़ा का जनता दल 28 सीटों पर ही सिमट गए थे। दोनों मिलकर भी भाजपा से पीछे थे। भाजपा ने निर्दलियों के समर्थन से चलाई थी सरकार। इसी दौरान बीएस येदियुरप्पा भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने के कारण इस्तीफा देने को भी मजबूर हुए थे। अगले चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा का डिब्बा गोल कर दिया। भाजपा को महज 40 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। कांग्रेस ने 122 सीटों के साथ पूरे पांच साल चलाई थी सरकार। लेकिन, 2018 में फिर भाजपा 104 सीट लेकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी।
बहुमत के लिए जोड़तोड़ कर पाती उससे पहले ही कांग्रेस के अस्सी और जनता दल के 37 विधायकों ने साझा सरकार का दावा पेश कर दिया। भाजपा ने जोड़तोड़ से गठबंधन सरकार को चलने नहीं दिया। येदियुरप्पा फिर मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि, पिछले साल उन्हें आलाकमान के दबाव में पद छोड़ना पड़ा। बसवराज बोम्मई को बना दिया सूबे का मुख्यमंत्री। मई में होने वाला चुनाव भाजपा उन्हीं के चेहरे पर लड़ेगी।
चर्चा थी कि भाजपा जनता दल के साथ मिलकर चुनाव में उतर सकती है। लेकिन अमित शाह पिछले महीने सूबे में आए तो कहा कि भाजपा अपने बूते न केवल चुनाव लड़ेगी बल्कि 150 से ज्यादा सीटें जीतकर नया इतिहास भी लिखेगी। जनता दल को उन्होंने कांग्रेस की ही परोक्ष रूप से ‘ब’ टीम तक कह दिया। यह सही है कि जनता दल का प्रभाव सूबे के सीमित इलाकों में है। पर त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में तो अहम हो जाती है इस क्षेत्रीय पार्टी की भूमिका।
राजस्थानी वैष्णव
वसुंधरा राजे सिंधिया ने हिम्मत नहीं हारी है। आलाकमान ने उन्हीं के चेहरे पर विधानसभा चुनाव लड़ने की उनकी मांग भले स्वीकार नहीं की है पर उन्हें परिस्थितियों के कारण अंत में बाजी अपने हाथ आती दिख रही है। आलाकमान इतना तो समझ ही रहा है कि वसुंधरा के कद का राजस्थान में अभी तक दूसरा कोई नेता है नहीं। जिस तरह लंबे समय तक भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व को राजस्थान में भाजपा का कोई नेता कभी चुनौती नहीं दे पाया था, कुछ वैसी ही हैसियत बना रखी है वसुंधरा ने। उनकी अनदेखी से पार्टी को नुकसान होगा, यह निष्कर्ष पार्टी के अंदरूनी सर्वेक्षण में भी सामने आया बताते हैं।
कांग्रेस में अगर अशोक गहलोत जादूगर हैं तो भाजपा में पिछला चुनाव हारने पर भी वसुंधरा के नेतृत्व में प्रदर्शन बहुत खराब नहीं था पार्टी का। आलाकमान की असली दुविधा तो दूसरी है। गजेंद्र सिंह शेखावत और सतीश पूनिया भी एक-दूसरे की अंदरखाने टांग खींचते हैं। ओम माथुर का अपना अलग राग है। अब तो रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव तक को जानकार कतार में बता रहे हैं। वैष्णव उड़ीसा से राज्यसभा के सदस्य हैं और राजनीति में आने से पहले उड़ीसा कैडर के ही आइएएस अफसर थे। पर वे मूल रूप से तो राजस्थानी ठहरे?
(संकलन : मृणाल वल्लरी)