राज्यसभा का टिकट कटते ही आरसीपी सिंह का असली चेहरा सामने आ गया। कभी जनता दल (एकी) में डंका बजता था आरसीपी का। उत्तर प्रदेश काडर के आइएएस रामचंद्र प्रसाद सिंह की नीतीश कुमार के बाद पार्टी में दूसरी सबसे बड़ी हैसियत बन गई थी। यहां तक कि नीतीश ने उन्हें पार्टी की कमान तक सौंप दी थी।
बाद में केंद्रीय मंत्री अलग बनवा दिया। नीतीश से ऐसी निकटता की दो ही वजहें मानी जाती हैं। एक तो आरसीपी सिंह नीतीश के जिले नालंदा के निवासी ठहरे। दूसरा पहलू ज्यादा अहमियत रखता है। समाजवादी होने का दावा करने वाले नीतीश को भी आरसीपी अपनी कुर्मी जाति का होने के कारण ज्यादा भाए होंगे। पर राजनीति में कोई सदा के लिए किसी का सगा नहीं होता।
आरसीपी ने नीतीश के वरदहस्त के कारण ही 2010 में आइएएस से इस्तीफा दिया था। नीतीश ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया था। इसके बाद 2016 में वे फिर राज्यसभा पा गए। लेकिन दोनों के रिश्तों में तल्खी शुरू हुई 2019 के बाद। इसके लिए आरसीपी परोक्ष रूप से लल्लन सिंह और उपेंद्र कुशवाहा को कोसते रहे। पर खफा तो वे नीतीश से ही थे क्योंकि 2019 में उन्होंने केंद्र की भाजपा सरकार में शिरकत करने से इनकार कर दिया था।
दरअसल नीतीश सांसदों की संख्या के अनुपात में मंत्रिपद चाहते थे पर भाजपा केंद्र में एक से ज्यादा मंत्रिपद देने को राजी नहीं थी और वह भी किसी कम महत्व वाले विभाग का। विधानसभा चुनाव में भाजपा-जद (एकी) गठबंधन की जीत और कम सीटों के बावजूद नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा के राजी हो जाने से केंद्र सरकार में शामिल होने के मुद्दे पर नीतीश ने भी रुख नरम किया।
आरसीपी को उन्होंने भाजपा नेताओं से मंत्री पदों के लिए बातचीत का अधिकार दिया। पर आरसीपी खुद ही मंत्री बन गए। बाद में वे नीतीश से ज्यादा प्रधानमंत्री के नजदीकी होते दिखे तो नीतीश को चौकन्ना होना पड़ा। आरसीपी को इस्पात जैसा अहम मंत्रालय तो मिला ही, प्रधानमंत्री ने उनके काम की सराहना भी की। लगता है कि नीतीश ने तभी तय कर लिया था कि वे आरसीपी को तीसरी बार राज्यसभा नहीं भेजेंगे।
फिर आरसीपी के तेवर बदलने में देर नहीं लगी। फरमाया कि सोलह सांसदों के बूते प्रधानमंत्री बनने की नीतीश की हसरत कभी पूरी नहीं होगी। जुलाई तक कार्यकाल होने की दुहाई देते हुए मंत्रिपद छोड़ने से भी इनकार कर दिया। दावा किया कि जब तक प्रधानमंत्री चाहेंगे, वे मंत्री रहेंगे। इसमें थोड़ा अतिरेक है। सदन की सदस्यता खत्म होने के बाद अधिकतम छह महीने ही रह पाएंगे मंत्री। हां, केंद्र सरकार चाहे तो उन्हें खाली पड़ी मनोनयन वाली सीट पर जरूर राज्यसभा भेज सकती है। लगता है कि शिवसेना के सुरेश प्रभु की राह चलना ठान लिया है आरसीपी ने।
खट्टे-मीठे रिश्ते
अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनना सोच-समझकर ही तय किया होगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को चुनौती देने वाला दूसरी कतार का नेता उनके पास था नहीं। शिवपाल यादव जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं, उससे उनका भाजपा में जाना तय माना जा रहा है। शिवपाल भाजपा में अपने बेटे के भविष्य को लेकर कोशिश करना चाहेंगे। मुलायम के सियासी वारिस के तौर पर अखिलेश ने खुद को स्थापित कर लिया है।
मुलायम परिवार का कोई दूसरा सदस्य भाजपा को ज्यादा लाभ पहुंचाने की हैसियत में बचा नहीं है। रामपुर सीट के उपचुनाव में अब आजम खान की पत्नी की उम्मीदवारी की संभावना बढ़ गई है। वे राज्यसभा की सदस्य रह चुकी हैं। रामपुर आजम खान का तो गढ़ है ही, सपा के लिए भी काफी अहम है।
आजम खान और उनके पुत्र अब्दुल्ला आजम तो पहले ही विधानसभा के लिए चुने जा चुके हैं। रही भाजपा की बात तो अभी तक राज्यसभा में उसके तीन मुसलमान सदस्य थे। मुख्तार अब्बास नकवी, एमजे अकबर और सैय्यद जफर इस्लाम किसी को भी भाजपा ने राज्यसभा का टिकट नहीं दिया है।
जाति जनगणना की बात
नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। जब-जब उनके राजनीतिक रूप से हाशिए पर जाने का माहौल बनाया जाता है तब वे ऐसा कुछ कर जाते हैं जो उन्हें बीच बहस में ले आती है। नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना करवाने का एलान कर दिया है। चाहे नकारात्मक रूप से चाहे सकारात्मक रूप से अब हर कोई नीतीश कुमार की राजनीति पर टिप्पणी कर रहा है।
राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर को भी समझ नहीं आ रहा है कि इसकी काट के लिए क्या किया जाए। जाति जनगणना के पक्षकारों का तर्क है कि इससे आबादी के अनुपात में सबको बराबर अवसर मिलने का माहौल तैयार किया जा सकता है। देश के संसाधनों पर जातिवार भागीदारी का अभी तक कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। खास कर ओबीसी वर्ग से जुड़े विचार समूह जाति गणना को लेकर मुखर हैं।
तर्क दिया जा रहा है कि जाति जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद आरक्षण को लेकर भी व्यावहारिक नीति बनाने में मदद मिलेगी। वहीं जाति जनगणना के एलान के बाद नीतीश के विरोधी बिहार के पिछड़ेपन के आंकड़े को सामने लाने में जुट गए हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि विकास के कामों में पीछे रहने के कारण नीतीश जाति जनगणना का दांव चल रहे हैं। गौरतलब है कि बिहार को बदलने का दावा करने वाले राजनीति के नए खिलाड़ी जाति जनगणना के विरोध में ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं जो जाति के वर्चस्व व विरोधाभास को ही सामने रख रही है।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)