अब अखिलेश यादव को सहयोगियों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। विधान परिषद की सीटों के मोह ने बढ़ाई है सहयोगियों के साथ उनकी दूरी। कुल तेरह सीटों का चुनाव हुआ कहने को। पर विधानसभा में हैसियत के आधार पर केवल चार ही सीटें तो आई सपा के खाते में। भाजपा ले गई नौ सीटें। दूसरे किसी दल का तो खाता भी नहीं खुल पाया। राज्यसभा की एक सीट जरूर अखिलेश ने सहयोगी रालोद के जयंत चौधरी को दे दी थी। इसी से ओमप्रकाश राजभर, संजय चौहान और केशव देव मौर्य की मांग बढ़ गई। हर कोई अपने लिए एक-एक विधान परिषद सीट मांगने लगा। अखिलेश को ऐसी मांग को पूरा करने की न कोई तुक होती और न जरूरत।

सरकार तो बनी नहीं, नाराज होकर भी सहयोगी दल जाएंगे कहां। भाजपा को किसी की जरूरत अब है नहीं। चुनाव भी कोई करीब नहीं है। लोकसभा चुनाव में इन छोटे दलों की कोई खास भूमिका होगी नहीं। सो अखिलेश सहयोगियों के मुखर रवैये पर किसी तरह की सफाई देने की जरूरत महसूस नहीं कर रहे। पर अपने चाचा शिवपाल यादव को उन्होंने जरूर औकात दिखा दी है।

शिवपाल यादव आजम खान से सीतापुर जेल में जाकर इस अंदाज में मिले थे मानों दोनों एक दूसरे के खासमखास हों। अखिलेश तब भी खामोश रहे। वे आजम खान की अहमियत समझते हैं। पहले कपिल सिब्बल को राज्यसभा भेजने की उनकी ख्वाहिश पूरी की, फिर रामपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में उम्मीदवार तय करने का जिम्मा भी उन्हीं पर छोड़ दिया।

चर्चा थी कि अपनी जगह आजम खान पत्नी को उपचुनाव लड़ा सकते हैं। आजम ने उम्मीदवार बनाया अपने चेले असीम राजा को। आजमगढ़ में अटकलें तो डिंपल यादव की उम्मीदवारी की लग रही थी पर टिकट मिल गया धर्मेंद्र यादव को। अखिलेश ने 2019 में यहां भाजपा के दिनेश लाल यादव निरहुआ को करीब पौने तीन लाख वोट से हराया था। इससे पहले इस सीट पर मुलायम सिंह यादव हुए थे निर्वाचित।

यादव और मुसलमान बहुल सीट है आजमगढ़। भाजपा ने यादव वोट में सेंध के लिए जहां फिर निरहुआ पर ही दांव लगाया है वहीं बसपा ने गुडडू जमाली को मैदान में उतारकर मुसलमान वोट बांटने और भाजपा की परोक्ष मदद की रणनीति अपनाई है। अखिलेश के लिए ये दोनों सीटें जीतना अहम है। भाजपा ने इस बार भी सपा से आईं अपर्णा यादव को निराश ही किया।

नतीजा-ए-नशा
हिमाचल प्रदेश सरकार में कई नौकरशाह भी गजब के हैं। जब एक-दो करके कई पैग चढ़ा लेते हैं तो उनके अंदाज और भी निराले हो जाते हैं। ऐसे ही एक नौकरशाह बेहद अहम पद पर थे। वह एक बार सुबह-सुबह चप्पल पहन कर छुट्टी के दिन किसी कार्यालय में चले गए और वहां पर चौकीदार को धमकाने लगे। साहब का हुलिया बिगड़ा हुआ था। ऐसे में चौकीदार ने भी उसे हड़का दिया।

इस वाक्ये को हुए कुछ दिन ही हुए थे कि साहब राजधानी में सरकारी होटल में पहुंच गए और कमरा खोलने के लिए हड़काने लगे। लेकिन यहां के अधिकारियों ने उसे पहचान लिया तो जैसे-कैसे उन्हें शांत किया। यहां तक तो ठीक था लेकिन साहब एक दिन मंत्रिमंडल की बैठक में भी लड़खड़ाते हुए पहुंच गए तो जयराम सरकार के एक मंत्री ने जैसे-तैसे स्थिति संभाली और उन्हें मंत्रिमंडल की बैठक से बाहर भेजा। लेकिन अब साहब ने तो कमाल ही कर दिया।

सचिवालय में चर्चा में है कि साहब ने कोई ऐसा संदेश वाट्सऐप पर भेज दिया कि सरकार को इस अधिकारी को अहम पद से हटाना पड़ा है। सरकार को लगा कि कहीं चुनावी बेला में मुसीबत हो जाए। इसलिए साहब को अहम पद से हटाकर दूसरी जगह लगा दिया है। साहब वैसे काबिल अधिकारी हैं और जयराम ठाकुर भी दिलदार मुख्यमंत्री हैं और वह साहब को झेल रहे हैं, अन्यथा कोई और मुख्यमंत्री होता तो साहब को अनिवार्य तौर पर सेवानिवृत्त कर देता। बहरहाल सरकार तो चल ही रही है।

हद से गुजर जाना…
नीतीश कुमार बोलते भले नाप-तौल कर हों पर बदला लेने पर उतारू हो जाएं तो फिर किसी हद की परवाह नहीं करते। अतीत की कई मिसालें गिनाई जा सकती हैं, जब नाराज होने पर नीतीश कुमार ने कभी अपने बेहद आत्मीय रह चुके लोगों को भी औकात बताने में संकोच नहीं किया। ताजा मामला आरसीपी सिंह का है। केंद्र में कैबिनेट मंत्री हैं पर राज्यसभा के लिए नीतीश ने तीसरी बार उम्मीदवार नहीं बनाया। आरसीपी कभी नीतीश के परम प्रिय बन गए थे। अब दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते। वजह आरसीपी का पाला बदलना माना जा रहा है। अब उन्हें पटना के वीआइपी इलाके स्ट्रैंड रोड का अपना सरकारी बंगला खाली करना होगा।

अधिकृत रूप से यह बंगला उन्हें आबंटित है भी नहीं। आबंटित तो जद (एकी) के मुख्य सचेतक संजय गांधी को है। पर, इसमें पिछले बारह साल से रह आरसीपी रहे हैं। इस बंगले में अब सूबे के मुख्य सचिव रहेंगे। मुख्य सचिव का बंगला नीतीश ने ले लिया है। संजय गांधी को सर्कुलर रोड पर बंगला दिया गया है। टिकट कटने के बाद की गई नीतीश की मुखर आलोचना के बाद इस कदम को आरसीपी पर दूसरे हमले के रूप में देखा जा रहा है। (संकलन : मृणाल वल्लरी)