नवीन पटनायक का नाम किसी विवाद में नहीं आता। ओडिशा के पिछले 22 वर्ष से लगातार मुख्यमंत्री हैं। बहुत छोटा सूबा भी नहीं है ओडिशा। लोकसभा की 21 सीटें हैं। बीजू जनता दल भी करीब डेढ़ दशक तक राजग का ही हिस्सा थी। वाजपेयी सरकार में मंत्री भी थे पटनायक। लेकिन 2009 के चुनाव से पहले उन्होंने भाजपा से अपना गठबंधन तोड़ लिया था। भाजपा ने बीजद को कमजोर करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी पर पटनायक को सूबे की सत्ता से बेदखल नहीं कर पाई।

लोकसभा चुनाव में जरूर भाजपा को यहां कुछ फायदा हुआ। वह भी 2019 के चुनाव में। इस सूबे में अरसे से विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हो रहे हैं। जहां 2014 में नवीन पटनायक ने मोदी की आंधी को अपने सूबे में पूरी तरह रोका था और भाजपा महज एक सीट ले पाई थी। पर भाजपा ने समय के साथ कांग्रेस की कमजोरी का फायदा जरूर उठाया। तभी तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उसकी सीटें बढ़कर आठ हो गई।

विधानसभा में भी 2014 की दस सीटों की तुलना में 2019 में भाजपा को 23 सीटें मिल गईं। पर नवीन पटनायक बतौर मुख्यमंत्री लगातार पांचवी पारी खेलने वाले इस समय देश के अकेले नेता हैं। उनके व्यक्तित्व की अपनी खूबियां हैं। एक तो प्रधानमंत्री बनने की कभी हसरत नहीं पाली, दूसरे किसी विवाद में नहीं उलझे। केंद्र के साथ टकराव भी पसंद नहीं। भाजपा के खिलाफ विपक्ष का मोर्चा बनाने में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। जनता पर जादू जरूर कर रखा है। तभी तो बीजद के जो नेता उनका साथ छोड़कर गए, वे कहीं के न रहे। विजयंत पांडा, विजय महापात्र, दिलीप रे, प्रफुल्ल चंद्र घड़ाई और प्यारी मोहन महापात्र से लेकर दामोदर राउत तक के नाम गिनाए जा सकते हैं।

चिंतन भी कमाल का है। पिछले दिनों पंचायतों और शहरी निकायों के चुनाव हुए थे। पंचायत में बीजू जद ने 90 फीसद सीटें जीती। जबकि शहरी निकायों में 89 फीसद। यह नतीजा तो तब है जबकि भाजपा ने केंद्र में सूबे के तीन मंत्री बना रखे हैं। ऐसी बंपर जीत के बाद भी नतीजों की समीक्षा और 2024 की तैयारी की मंशा से पार्टी के जिला पर्यवेक्षकों की बैठक बुलाई थी। पर छुपे रूस्तम नवीन ने चर्चा इस बिंदु पर की कि दस फीसद सीटें भी क्यों हारी पार्टी।

बाल की खाल
कांग्रेस के नेता हैं सुधीर शर्मा। प्रदेश के सबसे बड़े जिला कांगड़ा से हैं। उनके पिता पंडित संतराम पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबियों में शुमार थे। सुधीर शर्मा आलाकमान के भी करीब रहे हैं। धर्मशाला को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई थी। बावजूद इसके वह 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए थे। इस हार के बाद वह कांग्रेस की राजनीति में एक अरसे से हाशिए पर चल रहे हैं।

2019 के लोकसभा चुनावों के बाद धर्मशाला में हुए उपचुनाव में उन्हें कांग्रेस ने टिकट ही नहीं दिया। वह भाजपा में जा रहे हैं इसकी अफवाह उड़ाई गई। इस उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी हार गए थे। सुधीर शर्मा तब से लेकर अब तक कांग्रेस में जगह नहीं बना पा रहे हैं। अब उन्होंने गंजों को लेकर नया शोध किया है। उन्होंने अपने फेसबुक पन्ने पर लिखा है कि सफल नेता के पीछे एक गंजे व्यक्ति का हाथ होता है। उन्होंने इस बाबत मिसाल भी पेश की है। जैसे जवाहर लाल नेहरू के पीछे महात्मा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी के पीछे लाल कृष्ण आडवाणी, वीरभद्र सिंह के पीछे पंडित संतराम। पंडित संतराम सुधीर शर्मा के पिता थे। यह उन्होंने जोड़ा है ये दोनों ही गंजे थे।

इसी तरह अरविंद केजरीवाल के पीछे मनीष सिसोदिया और मुकेश अग्निहोत्री के पीछे महेश्वर चौहान जबकि सुधीर शर्मा यानी अपनी सफलता के पीछे यादविंदर गोमा का हाथ बताया है। उनके विरोधी कह रहे हैं कि वे भाजपा में किसी गंजे की तलाश में हैं ताकि अगर कांग्रेस में उनकी दाल नहीं गली तो कम से कम वहां उनके लिए जगह सुरक्षित हो जाए।

सियासी उस्ताद
नीतीश कुमार शुरू से ही महसूस कर रहे हैं कि कम सीटों के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने उन पर एहसान किया है। मुकेश सहनी को भाजपा के दबाव में ही तो मंत्रिपद से हटाया। भाजपा की तरफ से जनता दल (एकी), भाजपा और दूसरे सहयोगी दलों की समन्वय समिति की मांग उठती रही है तो जद (एकी) के नेता राज्य को विशेष दर्जा नहीं देने और जाति आधारित जनगणना के सवाल पर केंद्र के खिलाफ मुखर नजरिया अपनाते रहे हैं।

कटुता का ही नतीजा है कि उपेंद्र कुशवाहा ने मुख्यमंत्री पद को लेकर बयान दिया तो भाजपा के सूबेदार संजय जायसवाल उनके प्रति हमलावर नजर आए। ऊपर से राबड़ी देवी की इफ्तार पार्टी में नीतीश का अपने घर से पैदल जाकर शरीक होना और वहां तेजस्वी सहित लालू के परिवार से बतियाना सामान्य संकेत नहीं देते। इसी पार्टी में लोजपा के चिराग पासवान ने नीतीश को फिर चाचा बता उनके चरण स्पर्श किए। सूबे के पार्टी नेता केंद्रीय नेतृत्व को लगातार आगाह कर रहे हैं कि नीतीश भरोसेमंद नहीं हैं। वे फिर राजद से हाथ मिला सकते हैं।

नीतीश भी जान गए हैं कि भाजपा उन्हें शिवसेना की तर्ज पर कमजोर करने की मंशा रखती है। लेकिन गृहमंत्री अमित शाह पटना आए तो नीतीश कुमार ने हवाई अड्डे पर उनकी अगवानी की, जबकि प्रोटोकाल का ऐसा तकाजा नहीं था। सियासत में इसी को कहते हैं उस्तादी उस्ताद से।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)