योग गुरु रामदेव लाख दावे करें कि सियासत से उनका कोई लेना-देना नहीं। पर हकीकत इसके उलट है। जैसे कोई गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करे। पिछले दिनों रामदेव ने अचानक एलान कर दिया कि अगले लोकसभा चुनाव में वे भाजपा का प्रचार नहीं करेंगे। राजनीति को अलविदा कह दिया है उन्होंने। सो, किसी दल से क्यों बंधें। भाजपा की बाबा के इस पैतरे ने नींद उड़ा दी। यूपीए सरकार को उखाड़ने में अण्णा हजारे और रामदेव की अहम भूमिका सबने देखी थी। पर केंद्र और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकारें बन जाने के बावजूद रामदेव की सियासी हैसियत बढ़ने के बजाए सिमटती गई। कारोबार बेशक उन्होंने अपना खूब फैलाया हो। सयानापन भी कारोबार के चक्कर में ही दिखा रहे हैं।
अगर भाजपा की सरकार नहीं आई तो कारोबार को नुकसान हो सकता है। जो भी हो भाजपाई अभी रामदेव का पीछा नहीं छोड़ना चाहते। खुद पार्टी आलाकमान ने इस घोषणा के बाद उनके आचार्यकुलम स्कूल का उद्घाटन किया। आरएसएस के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने भी संघ का तीन दिन का शिविर पतंजलि योग पीठ में ही लगवाया। आलाकमान ने सबके सामने कहा कि भाजपा की राज्यों और केंद्र की सरकारें स्वामी के साथ खड़ी हैं।
जानकारों की मानें तो उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अधर में लटकी पतंजलि की परियोजनाओं को मंजूरी देने का पार्टी से आश्वासन लेने में सफल रहे अपने एक ही पैतरे से रामदेव। जो भाजपाई उन्हें भाव नहीं दे रहे थे वे ही घुटने टेकते नजर आए। दरअसल नोटबंदी और जीएसटी का रामदेव ने मजबूरी में समर्थन बेशक किया पर हकीकत यही है कि इन फैसलों ने उनके कारोबार की रफ्तार पर ब्रेक लगाए हैं। देश के नंबर वन कारोबारी को आठ साल में पछाड़ने के अपने सपने को चकनाचूर कैसे होने दे सकते हैं रामदेव।