चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद राजस्थान में अब सारा झमेला टिकटों के बंटवारे को लेकर चल रहा है। उलझन में सत्तारूढ़ भाजपा ही नहीं सत्ता पाने को आतुर कांग्रेस पार्टी भी कम नहीं है। गुटबाजी की गिरफ्त से कोई बाहर नहीं। हर गुट अपने-अपने चंपुओं की सूची बनाए बैठा है। दोनों ही दलों में अब लाबिंग आलाकमान पर हो रही है। वफादार कार्यकर्ताओं के असंतोष को काबू रखने की गरज से दोनों ही दल अब उनसे परामर्श कर रहे हैं। हालांकि इस रायशुमारी का कुछ उठेगा, कहा नहीं जा सकता। टिकट तो अंतत: गुट में रहकर ही मिल सकेगा। कांग्रेस में गुटबाजी दो क्षत्रपों अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच है तो भाजपा में एकदम नई रीत दिख रही है। सूबे में क्षत्रप के नाते तो गुट बस वसुंधरा राजे सिंधिया का है। लेकिन दूसरा गुट खुद आलाकमान ही बन गया है।

आलाकमान ने इस बार राजस्थान के मोदी सरकार के मंत्रियों को ढाल बनाया है। उन्हें निर्णय प्रक्रिया में शामिल कर बंदरबाट अपने हाथ में ली है। ऊपर से मराठी प्रकाश जावड़ेकर को राजस्थान का चुनाव प्रभारी बना सब पर अंकुश लगाने का जिम्मा थमा दिया है। जावड़ेकर ने तस्वीर का रुख साफ करने में देर भी नहीं लगाई। फरमाया कि चुनाव में चेहरा बेशक वसुंधरा होंगी पर टिकट हम बांटेगे। इस बार आरएसएस के खांटी पदाधिकारी भी अपनी गोटी फिट कर रहे हैं। सब मिलकर एक ही मकसद में जुटे हैं कि वसुंधरा समर्थकों को कम से कम टिकट मिले। रही वसुंधरा खेमे की बात तो उसे कम से कम सवा सौ टिकटों की दरकार है। संघियों को शिकायत यह है कि वसुंधरा संघी अतीत वाले पुराने और वफादार कार्यकर्ताओं के बजाए मौकापरस्तों को तवज्जो ज्यादा देती हैं ताकि वे पार्टी के प्रति कम उनके प्रति ज्यादा वफादार रहें। उधर कांग्रेस में गहलौत और पायलट दोनों ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर निगाह टिकाए हैं। लिहाजा अपने-अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की पैरवी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे। वैसे भी हवा का रुख भाजपा के खिलाफ होने से कांग्रेसी टिकट के दावेदार कहीं ज्यादा हैं। जो जयपुर से लेकर दिल्ली तक बड़े नेताओं की परिक्रमा कर रहे हैं। राहुल गांधी ने शैलजा की अगुआई में एक छानबीन समिति बना दी है ताकि असंतोष कम भड़के। शैलजा के लिए भी तो दोनों गुटों के दावों और दबाव के आगे उम्मीदवारों के चयन का काम मेढक तोलने से कम पेचीदा नहीं।

साख का इम्तिहान
जो खुद चुनकर सत्ता पाते हैं, वे ही जनतांत्रिक प्रक्रिया में अड़ंगे डालने लगते हैं। अपने देश में संस्थाओं के जनतांत्रिक स्वरूप को तभी तो आसानी से लग जाता है ग्रहण। उत्तराखंड की सरकार भी कहां चाह रही थी स्थानीय शहरी निकायों के चुनाव। खासकर शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक की तरफ से दिख रही थी अरुचि से। संस्थाओं का निर्वाचित स्वरूप नहीं रहने से अपने मातहत अफसरों के जरिए अपनी मनमानी जो कर पाते मंत्री जी। बहरहाल उत्तराखंड हाई कोर्ट की कड़ी फटकार के बाद सरकार को लोकसभा चुनाव से पहले कराने पड़ गए शहरी निकायों के चुनाव। यों हाई कोर्ट के फरमान से खुश तो कांग्रेसी भी नहीं हुए। दोनों ही दलों के नेताओं को डर जो सता रहा है। हार गए तो क्या होगा। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की लोकप्रियता पर सवाल उठेगा। कांग्रेस में भी हार से समीकरण तो उलट-पलट होंगे ही। पार्टी के सूबेदार प्रीतम सिंह के लिए मुश्किल खड़ी कर देगी हरीश रावत की लाबी। वैसे भी प्रीतम सिंह ने हरीश रावत और किशोर उपाध्याय के समथर्कों को टिकट कम ही दिए हैं। नतीजतन दोनों प्रीतम सिंह के खिलाफ मोर्चा खोले हैं। हां, विधायक दल की नेता इंदिरा हृदयेश ने जरूर अपने बेटे सुमित को हल्द्वानी के मेयर का उम्मीदवार बनवाने में सफलता पा ली। भले प्रतिष्ठा दांव पर क्यों न लग गई हो। भाजपा में मुख्यमंत्री और मदन कौशिक की तरह सूबेदार अजय भट्ट की भी चली है। कहने को तो ये स्थानीय निकाय ठहरे पर सियासी भविष्य त्रिवेंद्र सिंह रावत और प्रीतम सिंह दोनों का ही प्रभावित हुए बिना न रह पाएगा।