केंद्र सरकार का उपक्रम होने के कारण इनमें सुधार, सुविधा और जरूरी संसाधन मुहैया कराने की बात तो कही जाती रही है, लेकिन हकीकत में मजदूरों को उनका हिस्सा नहीं मिल पाया। आज भी मजदूरों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो पाया है। सैकड़ों की तादाद में ऐसे मजदूरों को, जो पिछले पच्चीस सालों से मजदूरी कर रहे हैं, उन्हें स्थायी नहीं किया जा सका है।
दुनिया के तमाम देशों के कोयला खदानों में मजदूरों की हालत लगभग एक जैसी है। इनकी हालत हर वक्त खस्ता बनी रहती है। इनकी जिंदगी हर समय खतरों से खेलती है। तरह-तरह के दुखों ने इन्हें घेर रखा है। इनकी समस्याओं और परेशानियों को दूर करने के नाम पर चल रहे एनजीओ इनके हालात सुधारने में नाकाम रहते हैं। पेट, आंख और सांस की बीमारियां इनकी जिंदगी का हिस्सा होती हैं। ये तनाव और दिल संबंधी बीमारियों के अभ्यस्त हो जाते हैं। कोयले की जहरीली धूल के असर से सांस की एक न एक खतरनाक बीमारी इन्हें दबोचे रहती है। इस बीमारी को ‘कोल वर्कर्स न्यूमोकोनियोसस’ या ‘ब्लैक लंग’ या काला फेफड़ा नाम से भी जाना जाता है। यह बीमारी लाइलाज है।
इन मजदूरों को उनके काम के मुताबिक वेतन नहीं मिल पाता। तीन पालियों में काम करने वाले ये मजदूर महज दो से चार हजार वेतन पर काम करते हैं। यानी इन्हें केंद्र सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। एक सर्वेक्षण से पता चला है कि तीन फीसद मजदूरों को बीस साल पहले महीने भर में महज दो से छह सौ रुपए मिलते थे। आज भी हालात कमोबेश वही हैं।
खदानों के राष्ट्रीयकरण के बीस साल बाद भी कुल कोयले में आधे से ज्यादा का उत्पादन ठेका मजदूर कर रहे हैं, जिन्हें न स्थायी मजदूरों की तरह वेतन मिल रहा है, न सामाजिक सुरक्षा। वर्ष 2003-04 से कोयला उद्योग यानी कोल इंडिया में आउटसोर्स के नाम पर ठेका मजदूरों से कोयला उत्पादन का काम शुरू हुआ। इसके लिए श्रम कानून में ढील दी गई। तब कहा गया था कि ठेका मजदूरों के समान सुविधाएं और वेतन दिया जाएगा। मगर न सुविधाएं मिलीं और न समान वेतन ही मिला।
छत्तीसगढ़ राज्य कोयला उत्पादन में सबसे ऊपर है। यहां 127.095 करोड़ टन कोयले का उत्पादन होता है। वहीं झारखंड में 113.014 करोड़ टन और ओड़ीशा में 112.917 करोड़ टन कोयले का उत्पादन होता है। कोयला मजदूरों की हालत इन तीनों राज्यों में लगभग एक जैसी है। सरकार कोयला खदानों का व्यावसायिक खनन के नाम पर निजीकरण कर रही है। जानकारों के मुताबिक, सरकार ने मजदूर संगठनों को एक तरह से हाशिए पर डाल दिया है। गौरतलब है कि चौवालीस श्रम कानून संसद के दोनों सदनों से पारित हो गए हैं।
वर्ष 2012 में ठेका मजदूरों को चार वर्गों में बांटते हुए वेतन निर्धारित किया गया, पर ये जमीन पर लागू नहीं हुए। फिर गठित समिति ने 2018 में वेतन निर्धारित किए। इस समिति ने ठेका मजदूरों के सीएमपीएफ, मेडिकल सुविधा आदि की अनुशंसा की। कोल इंडिया ने आदेश जारी किए, लेकिन अनुशंसा, अनुशंसा ही रह गई। आज भी वही बारह घंटे काम और नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं। हर साल ठेका मजदूरों को 8.33 फीसद सलाना बोनस की घोषणा होती है, लेकिन मिलता नहीं।
कोयला खदान मजदूरों की हालत कोरोना की दूसरी लहर में ज्यादा खराब हुई। अस्पतालों की दशा इस कदर खराब थी कि मजदूरों को बुखार और दूसरी समस्याओं पर भी गौर नहीं किया गया। कई मजदूरों की मौत हो गई। उनके खानपान, शिक्षा, आवास और रोजमर्रा की जरूरी चीजों का ध्यान नहीं रखा जाता। रोजाना की जरूरतों पर गौर न करने की वजह से मजदूरों की हालत धीरे-धीरे जानवरों से बदतर हो जाती है।
चर्म रोग, टीबी, सांस की बीमरियां, सिर दर्द, आंख की समस्याएं, हड्डी और पाचन संबंधी समस्याएं आम हैं। ठेकेदार मनमाने ढंग से मजदूरी करवाता और मजबूरी का फायदा उठाकर उनका हर तरह से शोषण करता है। मजदूरों के हित में काम करने वाली संस्थाएं ठेकेदारों की शोषण और क्रूरता पर कभी खुलकर आवाज नहीं उठातीं। कई बार खदानों में पानी भर जाने, आग लगने या कार्बन की मात्रा बढ़ जाने पर मजदूरों की मौत हो जाती है, लेकिन सरकार और ठेकेदार नियमानुसार मुआवजा-राशि नहीं देते। ऐसे में मजदूर परिवारों की हालत और खराब हो जाती है।
मजदूरों का शारीरिक के अलावा मानसिक, यौन और आर्थिक शोषण लगातार होता है। छत्तीसगढ़, झारखंड और ओड़ीशा जैसे राज्यों की खदानों में वनवासी और आदिवासी यानी अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति के लोग कोयला मजदूर ज्यादा हैं। शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इन लोगों को कोई भी आराम से परेशान कर लेता है। अनपढ़ और गरीब होने की वजह से इन मजदूरों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण, जुल्म, अन्याय और बीमारी के साथ जीना आम है।
आजादी के बाद जैसे-जैसे कोयला खदानों की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे मजदूरों की समस्याएं भी बढ़ती गर्इं। केंद्र सरकार का उपक्रम होने के कारण इनमें सुधार, सुविधा और जरूरी संसाधन मुहैया कराने की बात तो कही जाती रही है, लेकिन हकीकत में मजदूरों को उनका हिस्सा नहीं मिल पाया। आज भी मजदूरों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो पाया है।
सैकड़ों की तादाद में ऐसे मजदूरों को, जो पिछले पच्चीस सालों से मजदूरी कर रहे हैं, उन्हें स्थायी नहीं किया जा सका है। दिहाड़ी मात्र तीन सौ रुपए या इससे कम दी जा रही है। कई मजदूरों, खासकर महिलाओं को तो नाममात्र की दिहाड़ी या भोजन, कपड़े पर दिन भर मजदूरी कराई जाती है। शोषण का यह सिलसिला आम बात है। दरअसल, देश में कई कोयला खदानें अवैध ढंग से चलाई जा रही हैं। इनमें मजदूरों की हालत और भी दयनीय है।
मेघालय की एक घटना अवैध कोयला खदानों की हालत और खदान मालिकों की असंवेदनशीलता बयान करती है। 2018 में घटी यह घटना पूरे देश में चर्चा का विषय बनी थी। गौरतलब है पंद्रह दिन से अधिक दिनों तक मजदूर खदान में फंसे रहे। एनडीआरएफ की टीम इन्हें बाहर निकालने की मशक्कत करती रही, लेकिन सफल नहीं हो पाई और राजनीति होती रही।
कोयला खदानों और कोयले के इस्तेमाल से पर्यावरण प्रदूषण में सबसे अधिक योगदान है। इसलिए कई बार कोयला खदानों को बंद करने की बात उठाई जाती है, लेकिन बंद करना संभव नहीं हो पाता, क्योंकि इससे लाखों मजदूरों की जीविका जुड़ी हुई है। पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था ‘आइ फारेस्ट’ के ताजा अध्ययन से पता चलता है कि अगर कोयला खदानों को बंद कर दिया जाए या अचानक रोक दिया जाए तो लाखों मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे। देश के कई जिले ऐसे हैं जहां के मजदूरों की जीविका का साधन कोयला खदानों की मजदूरी है।
इनमें झारखंड का रामगढ़ जिला प्रमुख है, जहां चौवन हजार घर अपने जीवनयापन के लिए कोयला-खदानों पर निर्भर है। इनमें से आधे से अधिक कोयला चुन और बेच कर अपना जीवन चलाते हैं। गौरतलब है यहां की कोयला खदानों के कारण पर्यावरण प्रदूषित हुआ है और खेत भी खराब हो गए हैं। घोर गरीबी में जीवनयापन करने वाले यहां के मजदूर कई तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद सरकार इनकी बदतर हालात पर गौर नहीं कर रही है।
कोयला खदानों और कोयले के विविध उपयोग से पर्यावरण पर जो असर पड़ रहा है उस पर ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन खदानों को बंद कर देने से बिना विकल्प के जहां लाखों मजदूर बेरोजगार होंगे, वहीं कोयले से चलने वाले बिजलीघर भी बंद हो जाएंगे। ऐसे में नवीन ऊर्जा विकल्प की जरूरत है। साथ ही खदानों में लगे मजदूरों की जीविका और उनके लिए मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराना भी एक बड़ी चुनौती है। विकास के नए माडल में मजदूरों के हालात में तब्दीली कैसे आएगी, इस पर सरकार और मजदूर संगठनों को विचार करने की जरूरत है।