समस्या यह है कि विकास के नाम पर आज तक जितनी योजनाएं बनती आई हैं, उनमें गरीबी मिटाने का बुनियादी लक्ष्य गायब ही रहा है। पिछले सात दशकों में केंद्र और राज्यों में चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो, गरीबों के मुद्दे हाशिए पर ही रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वर्ष 2020 में कोरोना महामारी के दौरान गरीबी स्तर में कोई वृद्धि नहीं हुई। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2019 में बेहद गरीब यानी सबसे कम क्रय-शक्ति वाले लोगों का प्रतिशत एक फीसद से भी नीचे रहा। वहीं, प्रति व्यक्ति खरीद क्षमता (पीपीपी) 1.9 डालर प्रति व्यक्ति रोजाना आंकी गई। गौरतलब है, साल 2020 के दौरान भी यह रफ्तार उसी स्तर पर बनी रही।

केंद्र सरकार की गरीब कल्याण योजना का फायदा गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले अस्सी करोड़ लोगों को मिला। यह योजना 2016 में गरीबों को मुफ्त अनाज मुहैया कराने के लिए शुरू की गई थी। लेकिन इसी दौरान देश में बेरोजगारी तेजी से बढ़ती चली गई। महामारी को फैलने से रोकने के लिए की गई पूर्णबंदी और अन्य प्रतिबंधों के कारण रोजगार छिनने से निम्न आय वर्ग में आने वाले करोड़ों लोगों की हालात पिछले दो सालों में ज्यादा खराब हुई।

इस साल की वैश्विक असमानता रिपोर्ट के मुताबिक भारत सहित दुनिया में असमानता तेजी से बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक उदारीकरण और मुक्त बाजार की वजह से आय और संपत्ति दोनों में व्यापक रूप से असमानता पैदा हो रही है। शोधकर्ताओं के अनुसार आज दुनिया एक बार फिर कमोबेश वैसी ही स्थिति में आ गई है, जैसी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दशकों में पश्चिमी साम्राज्यवाद के चरम के वक्त थी।

इसीलिए अर्थशास्त्री इसे दो सौ साल पहले जैसी गैरबराबरी की संज्ञा दे रहे हैं। बताया जाता है कि तब भी शीर्ष दस प्रतिशत लोग ही कुल आय का साठ फीसद हिस्सा अर्जित करते थे, जबकि निम्न आय वाले पचास फीसद लोग सिर्फ पांच से पंद्रह फीसद। इसलिए देखा जाए तो समाज में आर्थिक असमानता की जड़ें पहले से ही गहरी रही हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि दुनिया के विकास के साथ यह असामनता कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। इससे दुनियाभर के देशों में आर्थिक और सामाजिक संतुलन गड़बड़ा भी रहा है।

निवेश बैकिंग कंपनी क्रेडिट सुइस ग्रुप एजी के मुताबिक साल 2010 में देश के एक फीसद लोगों के पास कुल संपत्ति का चालीस फीसद हिस्सा था, जो 2016 में बढ़ कर 58.4 फीसद हो गया। इसी तरह 2010 में दस फीसद लोगों के पास देश की 68.8 फीसद संपत्ति थी, लेकिन 2016 में बढ़ कर यह 80.7 फीसद हो गई। यह बात पर गौर करने वाली है कि पिछले दो वर्षों में गरीबों की अतिरिक्त दस फीसद संपत्ति छिन गई।

जाहिर है, इसके पीछे सरकारों की नीतियां बड़ा कारण रहीं हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की हालात को सुधारने की जो कवायदें केंद्र व राज्य सरकारों के जरिए की गर्इं, लगता है वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। जबकि केंद्र सरकार का दावा है कि पिछले आठ सालों में भ्रष्टाचार कम हुआ है। पर भ्रष्टाचार के मामले में वैश्विक सूचकांक में हम किस पायदान पर हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

आंकड़े बताते हैं कि भारत के महज एक फीसद लोगों के पास ही सबसे अधिक संपत्ति है। दुनिया के कुल करोड़पतियों में से दो फीसद करोड़पति भारत में रहते हैं और पांच फीसद अरबपति। इसी तरह मुंबई में सबसे अधिक एक हजार तीन सौ चालीस धनकुबेर रहते हैं। यदि यही रफ्तार जारी रही तो महज दो वर्षों में दस हजार से अधिक नए धनपति इस कतार में और जुड़ जाएंगे। जाहिर है जैसे-जैसे देश में आर्थिक असमानता बढ़ रही है, वैसे-वैसे गरीबों और अमीरों दोनों की तादाद बढ़ती जा रही है।

केंद्र सरकार का कहना है कि धनपतियों की तादाद बढ़ने से आयकर के संग्रहण में वृद्धि हुई है। इससे विकास योजनाओं को कार्यान्वित करने में मदद मिलती है। आने वाले दस सालों में भारत में अति धनाढ्यों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक हो सकती है। लेकिन दूसरी ओर, गरीबों, बीमारों और असहायों की तादाद जितनी ज्यादा होगी, वह चिंता का विषय है। इस बढ़ती गैरबराबरी से आर्थिक और सामाजिक असंतुलन बढ़ेगा और नई-नई समस्याएं सामने आएंगी।

शहरों और महानगरों में निर्माण की जो योजनाएं लागू की जा रही हैं, उससे शहरों में प्राकृतिक संसाधनों की खपत तेजी से बढ़ेगी। लेकिन दूसरी ओर साफ पानी, हवा, सस्ता खाद्य, सुरक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी समस्याएं भी तेजी से बढ़ेंगी। इस पर केंद्र और राज्य सरकारों को ध्यान देने की जरूरत है। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में देश में शहरीकरण की रफ्तार बढ़ी है।

स्मार्ट सिटी परियोजनाओं का काम जोरों पर है। सरकार ने नए शहरों के निर्माण का जो खाका तैयार किया है, उससे गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ेगा और शहरी जीवन में असमानता बढ़ेगी। इसका असर सामाजिक समरसता, समुचित शिक्षा की व्यवस्था जैसे आवश्यक सामाजिक पहलुओं पर पड़ना तय है। शिक्षा और स्वास्थ्य से ताल्लुक रखने वाले संसाधन जिस तरह महंगे होते जा रहे हैं, उससे तमाम तरह की समस्याएं खड़ी होने लगी हैं। समाज का सबसे गरीब तबका नई-नई बीमारियों से घिर रहा है। ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार जैसे बीमारू राज्यों में गरीबों की हालात किससे छिपी है? कोरोना काल में मुफ्त राशन और सिलेंडर मुहैया कराने से गरीबों को कुछ राहत जरूर मिली, लेकिन यह समस्या का स्थायी हल नहीं कहा जा सकता।

समस्या यह है कि विकास के नाम पर आज तक जितनी योजनाएं बनती आई हैं, उनमें गरीबी मिटाने का बुनियादी लक्ष्य गायब ही रहा है। पिछले सात दशकों में केंद्र और राज्यों में चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो, गरीबों के मुद्दे हाशिए पर ही रहे हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में आज भी हम दयनीय स्थिति में ही हैं। सवाल तो इस बात का है कि अगर विकास योजनाओं में गरीबों को केंद्र में रखा जाता है तो फिर देश में गरीबों की तादाद कम क्यों नहीं हो रही? पिछले कई दशकों से गांवों से शहरों की ओर पलायन जारी है।

इसीलिए कि गांवों में रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का आज तक भी कोई मजबूत ढांचा खड़ा नहीं हो पाया है। हालांकि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बंगलुरू की तरह ही कोलकाता, हैदराबाद और इनके उपनगर अस्तित्व में आए हैं। लेकिन पिछले कुछ ही सालों में इन शहरों में जिस तेजी से अमीर तबका सामने आया है और इन शहरों की एक नई पहचान बन गई है, वह कहीं न कहीं हैरानी तो पैदा करता ही है। थोड़े से वक्त में धनकुबेरों की बढ़ती तादाद से साफ है कि सरकारों की नीतियां अमीरी और गरीबी के बीच खाई और चौड़ी करने वाली ही रही हैं।

बेहतर होता केंद्र और राज्य सरकारें मेट्रो शहर बसाने की जगह गांवों के विकास और नए ग्रामीण क्षेत्रों के निर्माण की योजना बनातीं, ताकि गांवों से शहरों की ओर बढ़ रहे पलायन पर रोक लगाती। गौरतलब है कि हाल में उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार मेट्रो गांव बनाने की बात कही है। लेकिन इस मेट्रो गांव का स्वरूप कैसा होगा, यह आने वाले वक्त में पता चलेगा। यदि मेट्रो गांव के निर्माण की बात केंद्र सरकार मुकम्मल योजना के साथ लाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह भारत में बढ़ती असमानता, गरीबी, अशिक्षा, पलायन और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से निपटने की दिशा में बड़ा कदम होगा। इससे गांवों से शहरों की ओर बढ़ता पलायन भी रुकेगा और गांव में ही लोगों के रोजगार का बंदोबस्त भी हो सकेगा।