दिल्ली में प्रदूषण काफी खतरनाक हद तक पहुंच गया है इस बारे में अब दो राय नहीं है। अनेक अध्ययन इसकी गवाही देते हैं। एक अध्ययन में तो इसे दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित शहर माना गया है। लोग रोजमर्रा के अपने अनुभव से जानते हैं कि दिल्ली की आबोहवा कितनी घुटन भरी हो चुकी है। दिल्ली में सांस की तकलीफें बढ़ रही हैं। बड़े-बूढ़ों को होने वाली परेशानियां तो अपनी जगह हैं ही, बच्चों तक में दमे की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं। यह कैसा विकास में जिसमें सांस लेना दूभर हो जाए? लेकिन जब वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के उपायों की बात आती है, तो लोगों की राय जुदा-जुदा होती है।

सांस रुकने या घुटन महसूस होने की लोगों की शिकायतों के बीच कारों को सम-विषम नंबरों के हिसाब से एक दिन के अंतराल पर सड़क पर उतारने के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के फैसले को लागू किए जाने संबंधी चुनौतियां जनता की ओर से टीवी चैनलों पर गिनाई जा रही थीं, तो मुझे लग रहा था कहीं से एक आवाज ऐसी भी आएगी जिसमें कहा जाएगा- हमने कार पूलिंग का फैसला किया है या फिर हमारे परिवार ने तीन दिन शाम को गाड़ी नहीं निकालने का निर्णय किया है या फिर कहीं से आवाज आती कि अस्पताल जाने की स्थिति में कैब का प्रयोग किया जा सकता है। आखिर यह कोई परिवहन की स्थायी व्यवस्था तो थी नहीं। समय-विशेष की जरूरत के आधार पर उठाया जाने वाला एक कदम था। पर ऐसी कोई आवाज जनता के बीच से नहीं आई, जबकि इस समय जो भी शोर या समस्या है उसे जनहित में ही चेतावनी-भरा माना जा रहा है और उसी के लिए दिल्ली सरकार पर फौरी कदम उठाने का दबाव है।

ऐसे में सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश का इस प्रस्ताव का स्वागत करना और जजों से कार पूल करने के लिए कहना जून के महीने में इंडिया गेट स्थित तालाब में बच्चों को डुबकी लगाते देखना जैसा सुखद था। अन्यथा हमारे यहां के इस संभ्रांत तबके की आदतें तो चांदनी चौक के फव्वारा चौक की ही याद ज्यादा दिलाती हैं। असल में इस समस्या के लिए जितनी हमारी सरकारें व प्रशासन खासकर स्थानीय प्रशासन जिम्मेदार हैं उतनी ही जिम्मेदारी लोगों की भी है जो सामान्य नियमों का पालन करने को भी तैयार नहीं हैं और न अपनी सुख-सुविधा छोड़ने को तैयार हैं।
दिल्ली में प्रदूषण केवल गाड़ियों से नहीं है। बड़े-बड़े खुले नाले, सड़कों पर फैली धूल, रिहायशी इलाकों व घरों में चल रहे लघु उद्योग, रिहायशी इलाकों में कबाड़ियों के गोदाम, बेतहाशा हो रहा निर्माण, लोगों का आधुनिक बनाने के लिए घरों में व दफ्तरों में तोड़-फोड़ करते रहना और मलबे या फिर बची हुई सामग्री को बीच राह में ही छोड़ देना, ये भी कुछ सामान्य कारण हैं जिनसे प्रदूषण हमेशा हमारे घरों में घुसा रहता है। सामान्य इसलिए कि आमतौर पर लोग इसमें से किसी भी बात को खुद प्रदूषण की नजर से नहीं देखते। उलटे, अगर कोई कहे तो उसे ही सनकी व कानूनबाज ठहरा दिया जाता है। निर्माण-कार्य चल रहा हो तो सड़कों पर रोड़ी-बजरी का बिखरा रहना आज भी आम बात है, जिससे यातायात में बाधा तो आती ही है, आम आदमी का उस पर चलना दूभर हो जाता है और कई बार उसकी वजह से दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं।

बात भले ही पच्चीस साल पहले की है, पर आज भी मौजूं है। मयूर विहार फेज-एक में एक स्कूल अपनी इमारत का विस्तार कर रहा था। उसकी सारी रेत-बजरी व रोड़ी स्कूल के बाहर सड़क पर ही पड़ी थी। बच्चे उसी पर से आते-जाते। एक बच्ची रोड़ी पर गिर गई और रोड़ी का तीखा कोना उसकी आंख में घुस गया। इतना गहरा कि आंख पूरी तरह खत्म हो गई। पत्थर की आंख लगवाई गई। आज वह युवती है। वह कितना भी सामान्य होना चाहे, लोग उसे नहीं होने देते। कोई कह सकता है कि यह प्रदूषण कैसे? मेरा कहना है कि प्रदूषण के इन प्रकारों को भी हमें समझना होगा। सड़कों पर इस तरह का मलबा लोग ही नहीं, सरकारी संस्थाएं भी छोड़ती हैं। और उससे होने वाले किसी नुकसान की जिम्मेवारी भी नहीं लेतीं। नि:संदेह आज इस संबंध में कानून थोड़े सख्त हुए हैं, पर पालन कहां हो रहा है!

अब एक और अहम मुद्दा, जिसकी बात कम से कम राजनीतिक दल तो नहीं ही करेंगे। वे हैं दिल्ली के भीतर और उसके आसपास फैले ढेरों गांव। निर्माण व रिहायशी बस्तियों से संबंधित दिल्ली के कानून इन पर लागू नहीं होते। आयकर या अन्य किसी भी सरकारी कर से यहां के लोग मुक्त हैं। ज्यादातर में पानी का बिल भी उन्हें नहीं देना होता। सरकार की ओर से मिलने वाली सुविधाओं से भी ये महरूम हैं। ऐसे में ये दिल्ली के भीतर ऐसे स्वतंत्र व स्वेच्छाचारी टापू हैं जो भीतर से तो बेतरतीब तथा गंदगी भरे हैं ही, इनका सारा गंदा पानी, मलबा व धुआं आसपास के इलाकों और वातावरण को दिन-रात प्रदूषित करता रहता है। आज मैं जिस मकान में रह रही हूं, नौ साल पहले इसमें आई थी। तब सर्दियों में रात को एक-दो बजे अपार्टमेंट में पहुंचते ही नाक बदबू से भर जाती और घर में दाखिल होते ही गले में घुटन महसूस होती। आंखों में जलन से रात भर नींद नहीं आती। कई बार आधी रात को सौ नंबर पर फोन कर शिकायत दर्ज कराती तो पुलिस गांव में जाकर धुएं का स्रोत पता लगाने के बजाय मेरे ही घर में आकर पूछती, आप ही बताइए हम इस आधी रात में क्या करें?

प्लास्टिक को जलाए जाने की समस्या रात की ही नहीं थी, दिन की भी थी। असल में मेरे घर के पिछवाड़े स्थित दल्लूपुरा गांव में लोगों ने अपनी खाली पड़ी जगह या मकान कबाड़ियों को दे रखे थे और वे मनमाने ढंग से इस जगह का इस्तेमाल करते थे। उस समय तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर रिहायशी इलाकों में चल रहे उद्योग-धंधों को दिल्ली से बाहर ले जाया जा चुका था, पर यह तो गांव था जहां किराया भी कम देना पड़ता है इसलिए बहुत-से कबाड़ी, कपड़ों की फैक्टिरयों के गोदाम यहीं आ गए थे। नगर निगम बात को डीडीए और डीडीए नगर निगम पर डालता रहता। होता कुछ नहीं। छुटकारा तब मिला जब सुप्रीम कोर्ट ने एक निगरानी समिति गठित की और उसने हमारी याचिका पर डीडीए को वहां से कबाड़ियों को हटवाने के निर्देश दिए। पर कुछ साल बाद ही फिर वहां कबाड़ी जमा होने लगे और आज अपने अपार्टमेंट की छत पर चढ़ कर देखती हूं तो जितनी दूर तक निगाह जाती है कबाड़ ही कबाड़ दिखता है।

दिन-रात कबाड़ लाते-ले जाते वाहनों की आवाज, सर्दियों में रूई धुनने के पेंजों की आवाज, बेतरतीब आए-दिन खड़े किए जा रहे एक र्इंट की दीवार के छह-छह मंजिला बड़े बड़े मकान, तंग गलियां, उफनती नालियां और जहां-तहां से उठते धुएं के गुबार। हर रोज सुबह यहां का आसमान धुएं से काला होता है और शाम को यह धुआं हमारी सोसायटियों व घरों को अपने में समेट लेता है। हम सभी इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। प्लास्टिक जलने की बदबू अब नहीं आती। आ भी जाए तो आपस में चर्चा करके ही रह जाते हैं। न पहले कोई बोलता था न अब कोई बोलता है। जैसा चल रहा है चल रहा है। लोगों को अपने या बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता होती तो क्या वे इसे अनदेखा करते? मुझे भी कई ने कबाड़ी लॉबी और गांव के लोगों, दोनों के ही प्रभावी होने का भय दिखा मकान ही बदल लेने की सलाह दी थी। ये वे लोग थे जो सौ नंबर पर फोन तक नहीं करना चाहते थे। कारण, इससे उनका नंबर पुलिस के पास चला जाता। यही वे लोग हैं जो आज प्रयोग के तौर पर शुरू किए जा रहे किसी भी उपाय को समर्थन देने को तैयार नहीं हैं।

पर यथास्थितिवादी लोग कोई ज्यादा बड़ी समस्या नहीं हैं। हर समाज कमोबेश ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है। अधिक बड़ी समस्या है प्रशासन की तरफ से। क्या यह जरूरी नहीं कि दिल्ली के सभी गांवों को रोजाना के सामान्य नियमों के दायरे में लाया जाए। एक र्इंट की दीवार पर तीस-चालीस कमरे खड़े कर हर महीने एक-डेढ़ लाख रुपए बतौर किराया कमाने वाले लोग दिल्ली के संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल तो कर रहे हैं, पर उनका वित्तीय योगदान शून्य है। इनमें से ज्यादातर तो किराएदारों को सामान्य सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करवाते। ऐसे में उसका बोझ भी सार्वजनिक व्यवस्था पर ही पड़ता है। ऐसे किराएदारों के परिवार सड़क, पार्क या फिर आसपास खाली पड़ी जमीन को ही गंदा करते हैं और लोगों के गुस्से को भी झेलते हैं।

पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी ने खेतों में पुआल और फसलों के अवशेष जलाने के खिलाफ आदेश पारित किया। आज जब प्रदूषण की बात हो रही है तो क्या जरूरी नहीं कि इन गांवों पर भी गौर किया जाए। इन गांवों में से निकल रहा रसोई, कचरे, कबाड़ व रूई के पेंजों जैसी छोटी मशीनों का धुआं क्या सड़क पर जलाए जाने वाले कचरे से कम खतरनाक है? क्या इसकी मात्रा गाड़ियों के धुएं से कम है?