भारतीय रेलवे की चर्चा दो ही मौकों पर ज्यादा होती है। रेल बजट के समय, जब लोग यात्री किराये और मालभाड़े की घटत-बढ़त में दिलचस्पी लेते हैं। या फिर किसी हादसे के वक्त, जब रेल सुरक्षा पर हरेक के पास कहने-सुनने को काफी मसाला रहता है। इधर, ट्रेनों की गति के एक मामले ने रेलवे को चर्चा में ला दिया है। खुद रेल मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि उसकी एक्सप्रेस ट्रेनों की औसत गति अधिकतम पचास किलोमीटर प्रतिघंटा ही है।
बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे मुल्क में ट्रेनों की रफ्तार निश्चय ही एक बड़ा मुद्दा होनी चाहिए। इस लिहाज से महाबोधि एक्सप्रेस का मामला काफी दिलचस्प हो जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था के अहम माने जाने वाले रेल खंड- गुरारु-गया के बीच इक्कीस किलोमीटर की दूरी यह एक्सप्रेस ट्रेन दो घंटे इक्कीस मिनट में पूरा करती है- ऐसा रेलवे समय सारिणी में दर्ज है। इस हिसाब से ट्रेन की औसत गति नौ किलोमीटर प्रतिघंटा निकलती है। मुमकिन है कि इस रेल खंड में महाबोधि एक्सप्रेस की गति को अन्य कारणों से समायोजित किया गया हो, पर रेलवे के मौजूदा ढांचे के मद््देनजर हमारी ज्यादातर ट्रेनों की गति बिल्कुल अव्यावहारिक है। सर्दियों के आगमन के साथ कोहरे की आमद के बीच ऐसी घटनाओं की वार्षिक पुनरावृत्ति इस साल भी तय है, जब दर्जनों ट्रेनें अपने निर्धारित समय से घंटों नहीं, बल्कि दिन के हिसाब से लेट हो सकती हैं।
हमारी ट्रेनों की यह धीमी चाल खास तौर से इसलिए ध्यान देने योग्य है, क्योंकि अरसे से देश में बुलेट ट्रेनें (जिनकी औसत गति दो सौ किलोमीटर प्रतिघंटा या उससे भी ज्यादा हो सकती है) चलाने की बात सरकार के स्तर पर कही जाती रही है। पिछले कुछ अरसे से कहा जा रहा है कि राजधानी और शताब्दी जैसी प्रीमियम श्रेणी की ट्रेनों की रफ्तार बढ़ाने के लिए रेलवे सेमी हाईस्पीड मॉडल अपना सकता है। योजना यह है कि इस मॉडल के तहत मौजूदा ट्रैक और सिग्नल प्रणाली में अपेक्षित सुधार किए जाएंगे और उन्नत किस्म के इंजन और बोगियों का इस्तेमाल किया जाएगा।
लेकिन यह काम जब होगा, तब होगा, अभी तो देश में रेल पटरियों की हालत इतनी खस्ता है कि उन पर तेज गति से ट्रेनें चलाना मुमकिन ही नहीं है। मिसाल के तौर पर, दिल्ली-पटना रूट पर सौ किलोमीटर प्रतिघंटा से अधिक की रफ्तार से ट्रेन चलाना जोखिम का काम माना जाता है। देश के दूसरे रेल ट्रैकों की हालत इससे अलग नहीं है। इसलिए मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों की औसत गति भी बेहद निराश करने वाली है। यह कोई अनजाना तथ्य नहीं है, बल्कि खुद भारतीय रेलवे इससे परिचित है और संसद में इसकी जानकारी दी जा चुकी है।
तीन साल पहले 14 दिसंबर, 2012 को तत्कालीन रेल राज्यमंत्री केजे सूर्यप्रकाश रेड्डी ने संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में यह तथ्य रखा था कि फिलहाल देश में ज्यादातर ट्रेनें पचास किलोमीटर प्रतिघंटा की औसत गति से दौड़ पा रही हैं। राज्यमंत्री के अनुसार वर्ष 2011-12 के दौरान मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों की औसत गति पचास किलोमीटर प्रति घंटा रही, जबकि बड़े शहरों में चलने वाली ईएमयू (इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट्स) की औसत गति चालीस किलोमीटर प्रति घंटा। साधारण पैसेंजर ट्रेनें फिलहाल छत्तीस किलोमीटर प्रतिघंटे की औसत गति से ही चल पा रही हैं और मालगाड़ियां महज पचीस किलोमीटर प्रतिघंटे की औसत रफ्तार निकाल पा रही हैं। ब्रॉड गेज के मुकाबले मीटर गेज यानी बड़ी लाइन के मुकाबले छोटी रेलवे लाइन पर चलने वाली यात्री रेलगाड़ियां तीस किलोमीटर, जबकि मालगाड़ियां चौदह किलोमीटर प्रतिघंटे की औसत रफ्तार से चल पा रही हैं।
देश की विशाल भौगोलिक दूरियों और तेज विकास की जरूरतों के हिसाब से ट्रेनों की रफ्तार बढ़ाना एक अनिवार्य तकाजा है। इधर जब हमारे देश में ज्यादातर ट्रेनें आज भी कछुआ चाल से रेंग रही हैं, उधर हमारे पड़ोसी देश चीन में बुलेट ट्रेनें दौड़ रही हैं। हाल के वर्षों में चीन ने अपनी राजधानी बेजिंग से 2298 किलोमीटर दूर स्थित औद्योगिक शहर गुआंगझो को तीन सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली बुलेट ट्रेन से जोड़ा है। चीन का उदाहरण इस संबंध में दो वजहों से प्रासंगिक है। एक तो यह भी भारत की तरह विशाल भूभाग वाला देश है, और दूसरे, चीन भी ट्रेनों की रफ्तार के मामले में लंबे समय तक बाकी दुनिया से पिछड़ा रहा है। लेकिन नब्बे के दशक में चीन ने इस संबंध में ठोस नीतियां बनार्इं और सबसे कम समय में तेज ट्रेनें चला कर और तिब्बत के दुर्गम इलाकों को रेल संपर्क से जोड़ कर दिखा दिया कि जब तेज विकास की जरूरत हो तो ठोस नीतियां बना कर कैसे कम समय में ऊंचे लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं।
चीन के समान ही ट्रेनों की गति बढ़ाना भारत की अनिवार्य जरूरतों में गिना जा सकता है। देश के एक छोर से दूसरे छोर तक ट्रेन से आने-जाने में आज भी कई-कई दिन का समय लग जाता है। इसी तरह अगर कारखानों तक देश के किसी हिस्से से कच्चा माल पहुंचाने और वहां से उत्पादित सामान को दूसरी जगह तक पहुंचाने में और भी ज्यादा वक्त लगता है, क्योंकि मालगाड़ियों की औसत रफ्तार पैसेंजर ट्रेनों की लगभग आधी है। सड़क के जरिए होने वाली माल ढुलाई से कड़ी चुनौती मिलने की दशा में यह और भी जरूरी है कि ट्रेनों की रफ्तार बढ़ाई जाए, अन्यथा रेलवे भारी घाटे की स्थिति में पहुंच सकती है, क्योंकि माल ढुलाई इसकी आय का एक प्रमुख जरिया है।
इन बातों के मद््देनजर देश में रेलवे ट्रैकों की दशा सुधारने और उन पर तेज रफ्तार वाली ट्रेनें चलाने की बात पिछले एक-डेढ़ दशक से लगातार हो रही है। इसकी सबसे ज्यादा चर्चा तब हुई थी, जब लालू प्रसाद यादव रेलमंत्री थे। वर्ष 2007 में उन्होंने रेल बजट में यह बात जोर देकर कही थी कि रेलवे की कमाई बढ़ाने से ज्यादा उनका जोर ट्रेनों की रफ्तार बढ़ाने पर है। उन्होंने देश को जानकारी दी थी कि सरकार दो सौ पचास किलोमीटर तक की रफ्तार की ट्रेनें चलाने के प्रस्ताव पर विचार कर रही है।
रेलवे के मुताबिक ट्रेनों की गति उनके इंजन की ताकत के अलावा कई अन्य चीजों पर भी निर्भर करती है। जैसे पटरियों की हालत, सिग्नलिंग सिस्टम, रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों की संख्या और उनमें सवार यात्रियों या उनके जरिए ढोए जा रहे सामान का वजन। इसके अलावा किराये को कम रखने की विवशता के चलते भी भारी-भरकम निर्माण-खर्च वाली ऐसी परियोजनाओं का पक्ष नहीं लिया जा सकता। पर इन सारी बाधाओं से निपटते हुए भारतीय रेल अगर तेज गति वाली हाइ स्पीड या बुलेट ट्रेनें देश में चलाने का प्रबंध कर ले, तो एक आकलन के मुताबिक दिल्ली से पटना तक करीब एक हजार किलोमीटर के सफर को मौजूदा न्यूनतम बारह घंटों की जगह सिर्फ पांच घंटों में सिमटाया जा सकता है।
जापान और चीन आदि देशों की तरह भारत में भी बुलेट ट्रेनें दौड़ने की संभावना तलाशने के लिए कुछ अध्ययन हो चुके हैं। रेलवे ने तो एक दफा तीन देशी-विदेशी कंपनियों की मदद से प्रि-फिजिबिलिटी रिपोर्ट तैयार करवाई थी। इनमें सबसे अहम अध्ययन मुंबई और अमदाबाद सेक्शन के 533 किलोमीटर लंबे रूट पर तीन सौ पचास किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से बुलेट ट्रेन चलाने के बारे में किया गया। इसके अलावा देश में बुलेट या हाइ स्पीड ट्रेनें चलाने के लिए पुणे-मुंबई-अमदाबाद समेत छह अन्य रूटों की भी पहचान की जा चुकी है। ये रूट हैं- दिल्ली से पटना, दिल्ली से चंडीगढ़ होकर अमृतसर, हावड़ा से हल्दिया, हैदराबाद से दोरनाकल और विजयवाड़ा होते हुए चेन्नई और चेन्नई से बंगलुरु, कोयंबटूर के रास्ते एर्नाकुलम। बुलेट ट्रेन के जरिये पुणे से मुंबई पहुंचने में सिर्फ पच्चीस मिनट का वक्त लगेगा। मुंबई से अमदाबाद का सफर का वक्त दो घंटे से भी कम रह जाएगा। अभी पुणे से मुंबई आने में तीन घंटे लगते हैं।
इसी तरह मुंबई से अमदाबाद का सफर सात घंटे में पूरा हो पाता है। पर तेज गति वाली हाइ स्पीड ट्रेनें चलाने के रास्ते में सबसे बड़ी अड़चन यह है कि इन्हें मौजूदा खस्ताहाल रेल ट्रैकों पर नहीं चलाया जा सकता। इनके लिए अलग से कॉरिडोर बनाने की जरूरत है। इसके हर किलोमीटर के निर्माण पर न्यूनतम एक सौ पचास करोड़ रुपए का खर्च आ सकता है। देश की भावी जरूरतों को देखते हुए हाइ स्पीड ट्रेनें निश्चय ही हमारी प्राथमिकता में शामिल होनी चाहिए, लेकिन मानवरहित लेवल क्रॉसिंग, रेलवे ट्रैकों का घटिया रखरखाव, एक सदी से भी ज्यादा पुराने और काफी कमजोर हो चुके हजारों पुल और आॅटो सिग्नलिंग का अभाव- इन दिक्कतों से पार पाए बिना रेलवे के आधुनिकीकरण की सारी कोशिशें व्यर्थ साबित हो सकती हैं।
कभी विश्वस्तरीय स्टेशन, तो कभी बुलेट ट्रेन जैसी अति महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं की बातें सुनने में चाहे जितनी भली लगें, लेकिन इस तरफ बढ़ने से पहले भारतीय रेलवे को उन अनगिनत समस्याओं का संज्ञान लेना होगा, जो इसकी मामूली चाल तक में रोड़े अटकाती हैं। एक्सप्रेस ट्रेनों में जनरल बोगियां बढ़ाने, दुर्घटनाएं और लूटपाट रोकने, टिकट-आरक्षण और भोजन की गुणवत्ता में सुधार से लेकर रेल लाइनों की लंबाई बढ़ाने जैसे अनगिनत मुद््दे हैं जिन्हें प्राथमिकता पर लेकर उनका हल ढूंढ़ा जाएगा तो रेल का सफर काफी सुकून भरा हो जाएगा।