प्रदीप राय

आज भारतीय पत्रकारिता की आयु दो सौ इकतालीस बरस की हो गई है। ठीक आज के दिन, यानी 29 जनवरी को वर्ष 1780 में, भारत में पहले अखबार का प्रकाशन आरंभ हुआ था। यह किसी की कल्पना में भी नहीं था कि ब्रिटिश हुकूमत की छत्रछाया में व्यापार करने वाला एक आयरिस मूल का व्यक्ति भारत में सबसे पहला अखबार निकाल कर ब्रितानी हुकूमत की नींद उड़ा देगा और भारतीयों की समस्याओं को सजग तरीके से उठाएगा।

हैरानी इस बात की है कि भारत में पत्रकारिता का जनक कहलाने वाले शख्स जेम्स आगस्तस हिकी की पत्रकारिता और साहित्य लेखन में रुचि नहीं थी। जैसा कि हिकी ने खुद अखबार में लिखा : ‘मुझे अखबार छापने का कोई विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकी योग्यता है। कठिन परिश्रम करना मेरे स्वभाव में नहीं है। तब भी मुझे अपने शरीर को कष्ट देना स्वीकार है, ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त कर सकूं।’

आयरलैंड से भारत आया यह शख्स मूलत: एक चिकित्सक था और बाद में यहीं व्यापार करने लगा। इस व्यक्ति के सामने न किसी ने पत्रकारिता का विचार रखा, न ही भारत में इस कार्य को लेकर कोई भूमि तैयार हो रही थी, जिसे देख कर वह प्रेरित हुआ हो। बावजूद इसके उसने न केवल बहुत सुरुचिपूर्ण विषय-वस्तु के साथ अखबार निकाला, बल्कि भारत में अंग्रेजों की जमती जड़ों से आक्रोशित भारतीयों के मन में यह भाव पैदा कर दिया कि आजादी की मंजिल अखबार के पथ से होकर जाएगी। इस प्रकार इस देश में पत्रकारिता की अप्रत्याशित शुरुआत हुई।

भारत में पत्रकारिता की शुरुआत करने वाला ‘बंगाल गजट’ या ‘कैलकटा जरनल एडवरटाइजर अखबार’ नितांत सीमित साधनों में सप्ताह में एक बार छपता था। इस बारह इंच लंबे और आठ इंच चौड़े साप्ताहिक अखबार के दो पन्ने ब्रिटिश हुकूमत के सामने बहुत मामूली थे। मगर उसने भारी हलचल पैदा कर दी। हिकी और उसके साथियों की पत्रकारिता के बाद फिर इस क्षेत्र में भारतीय क्रांतिकारी पत्रकारों ने पूरा जिम्मा संभाल लिया था। एक लंबे दौर तक सभी भारतीय पत्रकारों ने ही इस कारवां को आगे बढ़ाया।

भारत में प्रिंटिंग प्रेस 1550 में गोवा में और 1662 में मुंबई, 1772 में मद्रास में स्थापित हो चुका था। लेकिन अखबार निकालने का विचार नहीं बन पा रहा था। 1780 से कई वर्ष पूर्व एक डच मूल के व्यक्ति ने भारत में अखबार प्रकाशित करने का प्रयास किया, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया। उस समय भारतीय मूल के जो लोग ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार से आक्रोशित थे, वे भी अखबार के विचार को मूर्त रूप नहीं दे पा रहे थे।

इस पूरे परिदृश्य में भारत में पत्रकारिता का शून्य भरने का काम पत्रकारिता में शून्य रुचि रखने वाले शख्स ने संभाला। लेकिन जब उन्होंने काम शुरू किया, तो सबको ऐसा लगा कि वे पत्रकारिता के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं और वे समझते हैं कि लोगों तक कौन-सा समाचार पहुंचाना है।

विशेषज्ञों का मानना है कि हिकी ने भले स्वीकार किया कि उसके भीतर पत्रकारिता का कोई चाव नहीं, लेकिन इस क्षेत्र में काम आने वाला सबसे गुण- ‘न्यूज सेंस’ यानी क्या समाचार है और क्या नहीं- उसमें कूट-कूट कर भरा था। इसका उसे खुद अंदाजा नहीं था। हालांकि हिकी का अखबार ब्रिटिश हकूमत के अत्याचारों के चलते दो साल से अधिक नहीं चल पाया। 30 मार्च, 1782 को वह बंद हो गया।

लेकिन उसने भारत में पत्रकारिता के विकास का मार्ग खोल दिया और फिर एक के बाद एक नए अखबार निकलने शुरू हो गए। भले ब्रितानी हुकूमत ने अखबारों का अस्तित्व समाप्त करने के लाखों जतन किए। ‘बंगाल गजट’ को बंद करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1799 से लेकर 1923 तक बहुत सारे सेंसरशिप कानून लगाए, लेकिन जितने दमनकारी ये कानून थे, उससे ज्यादा प्रबल उन काले कानूनों का मुंहतोड़ जवाब देकर पत्रकारिता करने वाले भारतीयों की अदम्य शक्ति थी।

भारत के उस पहले अखबार की सबसे बड़ी खासियत उसकी चुटीली व्यंग्यात्मक भाषा थी। उसमें राजनीतिक समाचारों के साथ कटु-मधु व्यंग्य, गप्पें सारी थोड़ी-थोड़ी सामग्री को दो पृष्ठों में समेटा जाता था। खास बात यह कि हिकी ने कलकत्ता शहर की स्थानीय समस्याओं के प्रति हुकूमत की अनदेखी को बड़े सटीक ढंग से उसमें रखा। तत्कालीन कलकत्ता में झोपड़-पट्टी में रहने वाले लोगों की दयनीय स्थिति को लेकर ब्रिटिश शासन की अनदेखी पर उन्होंने गहरे कटाक्ष किए।

अंग्रेजों की तत्कालीन राजधानी रहे इस शहर के गली-कूचों से लेकर दूसरी तरह की समस्याएं खूब उठार्इं। इसने शासन में बेचैनी पैदा कर दी। यहां तक कि हुकूमत ने उन्हें पैसे देकर खरीदने की कोशिश भी की, उस सौदे को भी उन्होंने उजागर कर दिया। इसके बाद हिकी के साथ मारपीट की घटनाएं हुई औैर उनका अखबार बंद करने के बड़े हथकंडे अपनाए गए। उधर उनके पास पैसे का घोर अभाव और परिवार के कई सदस्यों का भरण-पोषण करने का भारी संकट था।

अखबार शुरू करने से पहले वे व्यापार का कर्ज न चुका पाने की वजह से जेल की सजा काट चुके थे। जेल में प्रिंटिंग प्रेस लगा कर सरकारी कागजात की छपाई का काम करके कर्ज से मुक्ति पाई। कुछ रिकार्ड बताते हैं कि हिकी ने सरकारी कागजात का प्रकाशन जेल से किया, जिसके लिए उन्होंने पैंतीस हजार रुपए से अधिक का बिल बनाया। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने कहा कि उनकी प्रिंटिंग में खामी थी और काम भी पूरा नहीं हुआ, इसलिए छह हजार रुपए का भुगतान ही किया जाएगा।

जेल से छूटते ही हिकी ने अखबार निकाल कर ब्रिटिश सरकार की पोल खोलने की ठान ली। 1780 में उन्होंने अखबार शुरू किया, तो 1781 में उन्हें मानहानि सहित कई आरोपों में जेल भेज दिया गया। वे जेल से भी अखबार निकालते रहे। आखिर में अंग्रेजों ने अपना पक्ष रखने वाला एक अखबार ‘इंडिया गजट’ शुरू कर दिया और अपने साधनों के बल पर वे उसकी पहुंच हिकी के अखबार से कहीं अधिक ले गए।

इस प्रतिद्वंद्विता के आगे हिकी को घुटने टेकने पड़े और 1782 में अपना अखबार बंद करना पड़ा। हिकी के पदचिह्नों पर चलने वाले उनके प्रशंसक विलियम ने बंगाल गजट निकाला और हिकी जैसे तेवर दिखाए। हिकी के दुस्साहस की कहानी को एंड्रयू ओटिस ने अपनी किताब ‘हिकीज बंगाल गजट : द अनटोल्ड स्टोरी आॅफ इंडियाज फर्स्ट न्यूजपेपर’ में दर्ज किया है।

हिकी के अखबार निकालने को लेकर कई मत हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि तत्कालीन गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के साथ उनके गहरे मतभेद थे, जिसे लेकर वे मुखर हो गए। मगर इस सारे परिदृश्य में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हिकी ने भारतीयों के साथ भेदभाव की बात प्रखरता से रखी। उनके ही प्रयास से भारत में पत्रकारिता का अंकुरण हुआ, जो बाद में एक वटवृक्ष बना और उसकी छाया में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांति पनपी।

भारत में पत्रकारिता के विकास के कालखंड का पहला भाग 1780 से 1826 माना जाता है। इसी दौर में भारतीय पत्रकारित के अग्रदूत राजा राममोहन राय का उदय हुआ। यों तो उन्होंने कई अखबार निकाले, लेकिन ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ भारत की सोई चेतना को जगाने में कामयाब रहे। विकास की दृष्टि से दूसरा कालखंड 1885 से 1920 का माना जाता है, जिसमें कई जानी-मानी भारतीय शख्सियतों ने प्रखर पत्रकारिता की। इसके बाद महात्मा गांधी का उदय होने पर आजादी के दौर की पत्रकारिता की मशाल 1947 तक खूब वेग से जली और आजादी के बाद भी विकास का क्रम बिना अवरोध के चलता रहा।