महामारी की वैश्विक विपत्ति ने स्वास्थ्य के मोर्चे पर ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक मोर्चे पर भी दुष्प्रभाव डाला है। इस आपदा से जूझते हुए हर उम्र, हर तबके के लोगों ने निराशा और अकेलेपन के दंश को झेला है। साथ ही जीवन को पीड़ा देने वाली वजहों की इस फेहरिस्त में संवेदनशीलता और असुरक्षा भी शामिल हो गई है। महामारी की विपदा में घरबंदी, कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता, आर्थिक निर्भरता और भावनात्मक रूप से अकेले पड़ जाने जैसे पहलुओं ने बुजुर्गों की तकलीफें और बढ़ा दी हैं। इस दौर में बुजुर्गों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार, तिरस्कार और उपेक्षा से जुड़ी स्थितियों को लेकर आ रही रिपोर्टें चौकाने वाली हैं। दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु, हैदराबाद, कोलकाता और चेन्नई सहित देश के छह शहरों में किए गए एक सर्वे में वरिष्ठजनों के मन के भय और जीवन की जद्दोजहद का खुलासा करते हालात वाकई चिंतनीय हैं।
कोरोना काल में घर की बड़ी पीढ़ी शारीरिक से ज्यादा मानसिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर प्रभावित हो रही है। व्यापक रूप से देखा जाए तो बुजुर्गों के मन में मौजूद भय, चिंता, अकेलेपन की भावना और बढ़ती निर्भरता के कारण दुर्व्यवहार की स्थितियां समाज के लिए किसी चुनौती से कम नहीं हैं। यह समझना मुश्किल नहीं कि मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसे हालात मन ही नहीं, शरीर को भी कमजोर करते हैं। अकेलापन, अवसाद और डर का भाव भीतर से तो मनुष्य को तोड़ता ही है, कई शारीरिक व्याधियों को भी न्योता देने वाला साबित होता है। बीते डेढ़ साल से घर से काम कर रहे बच्चों की हर पल घर में मौजूदगी के बावजूद बीस प्रतिशत से ज्यादा बुजुर्ग चाहते हैं कि उनके साथ कोई रहे। इतना ही नहीं, 35.7 प्रतिशत बुजुर्गों ने सर्वे में बताया कि वे चाहते हैं कि कोई उन्हें सिर्फ बात करने के लिए बुलाए। हर आयु वर्ग के लिए घर तक ही सिमट आई जिंदगी के इस दौर में 13.7 प्रतिशत ने अपनों के बीच ही खुद को फंसा हुआ और निराश महसूस किया। चालीस फीसद से ज्यादा बुजुर्ग मानते हैं कि समाज में वृद्धजनों के साथ दुर्व्यवहार सामान्य बात है। पंद्रह फीसद से ज्यादा ने स्वीकार किया कि वे खुद दुर्व्यवहार के शिकार हैं।
महामारी के प्रकोप के कारण बदले हालात में साठ प्रतिशत वरिष्ठजनों ने महसूस किया कि कोरोना के दौरान दुर्व्यवहार का जोखिम बढ़ गया है। जीवन को हर मोर्चे पर तकलीफदेह हालात तक ले आने वाली महामारी के प्रकोप के चलते बुजुर्गों ने अपनों को खोने की पीड़ा का सामना किया है। कितने ही परिवारों में नौजवान कोरोना से हार गए और बुजुर्ग अकेले रह गए। सर्वे में सामने आया है कि बीस प्रतिशत बुजुर्गों ने या तो अपने परिवार के सदस्यों या दोस्तों को खो दिया था। यही वजह है कि पचास फीसद से ज्यादा बुजुर्गों ने बेहतर चिकित्सा, स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा बेहतर बनाने, टीकाकरण तेज करने और दवाओं की उपलब्धता बेहतर बनाने की बात भी कही। ऐसे में जीवन के आखिरी पड़ाव पर संसाधनों की कमी के चलते अपनों को खो देने की यह पीड़ा प्रशासनिक अमले को समझनी होगी। साथ ही संवेदनाओं के पहलू पर अब अकेले रह गए बुजुर्गों के प्रति समाज को भी अपना दायित्व समझने की जरूरत है।
दरअसल, बुजुर्ग आबादी के लिए वित्तीय निर्भरता से लेकर सामाजिक और पारिवारिक अनदेखी जैसी समस्याएं पहले से मौजूद हैं। कोरोना काल के ठहराव ने इन्हें और बढ़ा दिया है। देखने में आता है कि हमारे यहां बड़ों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के अधिकतर मामले आर्थिक कारणों से जुड़े होते हैं। कभी बच्चों का जमीन जायदाद अपने नाम करवाने का दबाव, तो कभी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी बच्चों से गुजारिश करते रहने की स्थितियां अधिकतर परिवारों में देखने को मिलती हैं। एक उम्र के बाद दूसरों पर बढ़ती वित्तीय निर्भरता वरिष्ठजनों की सबसे बड़ी चिंता रही है।
इस साल की शुरूआत में स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से करवाए गए दुनिया के सबसे बड़े सर्वे ‘लॉन्गिट्यूडनल एजिंग स्टडी इन इंडिया’ में हुए खुलासे में भी वृद्धजनों के स्वास्थ्य को लेकर डरावने तथ्य सामने आए थे। इस सर्वे में पता चला कि भारत में साढ़े सात करोड़ बुजुर्ग या साठ साल से अधिक उम्र के प्रत्येक दो में एक व्यक्ति किसी लंबी और पुरानी बीमारी से पीड़ित है। ज्यादातर बुजुर्गों में शारीरिक अक्षमता की परेशानी है। बीस फीसद से ज्यादा बुजुर्ग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारी से जूझ रहे हैं। साथ ही सत्ताईस प्रतिशत वरिष्ठजन कई अन्य तरह की बीमारियों से घिरे हुए हैं, जिनकी संख्या साढ़े तीन करोड़ के आसपास है। ऐसे में पहले से ही पीड़ा और परेशानियों के पहाड़ तले दबे वृद्धजनों के लिए कोरोना की मुसीबत ने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।
अगर संवेदनाएं हों और अपनों का साथ व सहयोग मिले तो जीवन की हर जद्दोजहद आसान हो जाती है। अपनेपन का भाव और अपनों का लगाव उम्र के हर मोड़ पर मन को ऊर्जा देता है। पर अफसोस कि थके शरीर और कमजोर होती मन:स्थिति के हालात में बुजुर्गों को अपनों का साथ नहीं, बल्कि शोषण का व्यवहार मिलता है। एक अध्ययन में पता चला कि साठ फीसद से ज्यादा वृद्धजन मुख्य रूप से भावनात्मक शोषण, वित्तीय संकट और शारीरिक शोषण के शिकार हुए हैं। भारत जैसे परंपरागत पारिवारिक ढांचे वाले देश में अपनों का यह दुर्व्यवहार एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है।
सबसे ज्यादा चोट भावनात्मक रूप से पहुंचाई जाती है। पिछले कुछ सालों में उम्रदराज लोगों को मारपीट और घर से निकाल देने के मामलों में खासी तेजी आई है। ऐसी खबरें भी सुर्खियां बनी हैं जहां बुजुर्गों से उनकी जमीन-जायदाद ले लेने के बावजूद बच्चे और नाते रिश्तेदार बदसलूकी करते हैं। जीवन की आपाधापी में हर मुश्किल से जूझते हुए बच्चों को बड़ा करने वाले माता-पिता के लिए यह व्यवहार असहनीय होता है। यह उन्हें मानसिक रूप से तोड़ डालता है। व्यग्रता, चिंता और अवसाद जैसी बीमारियों का शिकार बना देता है। नतीजतन, उम्रदराज लोगों का एक बड़ा प्रतिशत ऐसे दुर्व्यवहार के चलते खुद को समाज और सामाजिक जीवन से भी दूर कर लेता है।
बुजुर्गों को पारिवारिक व्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। अनुभव और मार्गदर्शन की अनमोल पूंजी माना गया है। सह-अस्तित्व और आपसी सम्मान की सोच के साथ पीढ़ियों का साथ रहना हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। यही वजह है कि भारत में बड़ों की देखभाल का जिम्मा सरकार का कम, समाज और परिवार का अधिक रहा है। बावजूद इसके अब बुजुर्गों के प्रति अपनों की ही सोच और स्वीकार्यता में बड़ा फर्क देखने को मिल रहा है। ऐसे में पारिवारिक व्यवस्था में ही उपज रही असंवेदनशीलता ने उनके लिए हर तरह की असुरक्षा भी बढ़ा दी है।
कोरोना के संकट में यह और खुल कर सामने आया है। निस्संदेह, बड़ों के अपमान, शोषण और तिरस्कार की तस्वीर दिखाते ऐसे आंकड़े पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के सामने सवाल खड़े करते हैं। यह विडंबना ही है कि देश, समाज और परिवार को गढ़ने में अपना पूरा जीवन लगा देने वाले बुजुर्ग जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर हर मोर्चे पर खुद को अकेला और असुरक्षित पा रहे हैं। इसलिए आपदा के इस दौर के बाद तो बुजुर्गों की जरूरतों को नए सिरे से समझना और उनका हल तलाशना और जरूरी हो गया है।