दिल्ली के जिस मयूर विहार इलाके में यह लेखिका रहती है, वह मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के प्रोफेशनल्स का इलाका है। इसके आसपास कई गांव भी हैं। लेकिन यहां शायद ही ऐसा कोई घर हो जिसमें शौचालय न हो। लेकिन पिछले दिनों जब से शौचालय बनाने और सफाई अभियान की बातें चली हैं, तब से इस इलाके के फुटपाथों पर कई छोटे-छोटे शौचालय बना दिए गए हैं। इस इलाके में फुटपाथ पहले से ही तरह-तरह के अतिक्रमण के शिकार हैं, जिसे राजनीतिकों ने बढ़ावा भी दिया है।

एक दिन यह लेखिका फुटपाथ पर बने ऐसे ही एक शौचालय के पास से गुजरी। देखा कि शौचालय के ऊपर पानी की टंकी भी लगी है यानी कि पानी की व्यवस्था भी है। अकसर सार्वजनिक शौचालयों से पानी गायब रहता है। दीवार पर बनवाने वाले स्थानीय नेता का नाम भी लिखा हुआ था। पास में ही चाय का एक खोखा था। उसे एक महिला चलाती है। जब उससे पूछा कि इस शौचालय का रख-रखाव और सफाई कौन करता है, तो उसने बड़े अनमने ढंग से कहा कि पता नहीं। तीन लोग हाथ में चाय का प्याला पकड़े सामने ही बैठे थे। बात सुन कर, उनमें से एक जोर से बोला- मैडम जी, कोई भी नहीं। यहां तो यह बीमारियों का घर बना दिया। सब घुसते हैं, मगर सफाई कोई नहीं करता। कल को कोई घुस कर कुछ और भी कर सकता है। कुछ और से मतलब उसने स्पष्ट नहीं किया। लेकिन समझा जा सकता था कि कहीं कोई बम ही न रख दे। या किसी लड़की के साथ दुराचार न हो जाए। क्योंकि इनमें कोई शौचालय अलग से महिलाओं के लिए नहीं है।

यह सोच कर सचमुच हैरत होती है कि जो सुविधाएं आपको दी जाती हैं, आखिर उनके रख-रखाव की जिम्मेदारी किसी और की क्यों होती है। किसी सुविधा का लाभ अगर आप उठा रहे हैं, तो उसकी देखभाल कोई और क्यों करेगा। मगर अपने देश में तो लोग कुछ खाकर, रैपर रास्ते में फेंक कर आगे बढ़ जाते हैं। यानी कि उनके फैलाए कूड़े को कोई और उठाए। देश में फैले जातिवाद का एक प्रमुख कारण सफाई के बारे में यह सोच भी है।

सफाई के मामले में यह कैसा मतैक्य है कि गंदगी फैलाएंगे हम और साफ कोई दूसरा करेगा। बहुत-से देशों में शायद मनुष्य की इसी आदत को सुधारने के लिए गंदगी फैलाने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है। अपने यहां भी स्वच्छता-कर लगाया गया है। मगर इससे लोगों की मानसिकता कैसे बदलेगी, यह नहीं पता। सार्वजनिक स्थानों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस स्टेंडों पर बने शौचालयों की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। सुलभ इंटरनेशनल ने जरूर इस दिशा में अच्छा प्रयास किया है। मगर आम आदमी को भी यह सोचना होगा कि इस सुविधा का अगर इस्तेमाल वह करता है, तो इसकी सफाई की जिम्मेदारी भी उसकी ही है।

शहरों के मुकाबले गांवों में मुश्किल और भी अधिक है। गांवों में कोई सीवेज सिस्टम तो है नहीं। वहां सेप्टिक टैंक वाले शौचालय बनाए जाते हैं। या ड्राई लैट्रिन्स। गांवों में हालत यह हो गई है कि जो गलियां कभी साफ-सुथरी दिखती थीं, आज नालियों से बह कर गंदगी वहां तक बहती रहती है। पहले कच्ची गलियां होती थीं, तो मिट््टी बहुत-सी गंदगी को सोख लेती थी। मगर खड़ंजे बिछी गलियों में गंदगी पड़ी ही रहती है। उससे बच कर चलना पड़ता है। इसलिए जिन शौचालयों के बन जाने से सफाई बढ़ जाने की बात कही जा रही थी, उनसे गंदगी और अधिक फैल रही है।

कहा जा रहा है कि 2019 तक भारत के हर घर में शौचालय होगा। भारत के दूरदराज इलाकों से आती ऐसी खबरें भी सुनाई देती हैं जिनमें बताया जाता है कि जिनके घर में शौचालय नहीं होंगे, वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। उन्हें राशनकार्ड की सुविधा नहीं मिलेगी। सरकार द्वारा चलाए गए कई विज्ञापन कहते हैं कि लड़कियों के लिए यह सुविधा कितनी जरूरी है। लड़कियों, महिलाओं की नजर से यह आवश्यक भी है। गांवों में मुंहअंधेरे या दिन छिपने के बाद ही महिलाएं दैनिक क्रिया से निवृत्त होने के लिए जा सकती हैं। अगर तबीयत खराब हो तो उन पर क्या बीतती होगी, सोचा जा सकता है।
मोदी का नारा पहले शौचालय फिर देवालय ठीक है। मगर किसी भी अभियान को चलाने से पहले, उसके दूसरे पक्ष पर भी विचार किया जाना चाहिए।

अगर गांव-गांव, घर-घर शौचालय बना भी दिए जाएं तो वहां जो गंदगी होगी उसके निपटान का तरीका क्या सोचा गया है। क्या गांवों में हर घर की नाली को बाहर किसी ऐसे केंद्र से जोड़ा जाएगा, जहां इसे इकट्ठा किया जा सके। और वहां इस गंदगी से खाद या बिजली अथवा गैस का निर्माण किया जाएगा। ऐसी कोई व्यवस्था की जा रही है, अभी तक सुना तो नहीं गया। क्योंकि यदि गंदगी के निपटान का सही तरीका जल्दी न सोचा गया तो हर गांव, हर शहर में गंदगी के पहाड़ इकट्ठे हो जाएंगे। और महामारियां विकराल रूप से फैलेंगी।

इतने शौचालयों के लिए पानी की व्यवस्था कैसे होगी। क्या इस पानी को रिसाइकल किया जाएगा। क्या गांव-गांव में वर्षाजल संचयन की तकनीक विकसित की जाएगी। क्योंकि आज पानी की कमी से देश में हर गांव और शहर बेहाल है। हर घर में शौचालय बन जाने से पानी की जरूरत भी बेतहाशा बढ़ जाएगी। इस जरूरत को क्या ऊपर बताए तरीकों से पूरा किया जाएगा। यही नहीं, जरूरी है कि इसमें लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। जिसे आज की भाषा में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) कहते हैं। सरकार के जिस अभियान में लोगों की भागीदारी होती है, उन्हें उसके फायदे समझाए जाते हैं, वे अभियान जरूर सफल होते हैं।

हाल ही में टी-20 क्रिकेट मैच शुरू होने से पहले यूनिसेफ तथा कई अन्य संस्थाओं ने बच्चों के साथ हाथ धोने और सफाई रखने का अभियान उन शहरों में चलाया था, जिनमें मैच होने हैं। उन शहरों में टी-20 की ट्राफी भी ले जाई गई थी। हर गांव और शहर के स्कूली बच्चों, अध्यापकों, सरकारी अधिकारियों, स्व सहायता समूहों आदि को सरकार के सफाई अभियान से जोड़ा जाना चाहिए। लोगों को बताया जाना चाहिए कि उनके जीवन के लिए सफाई का कितना महत्त्व है। वरना कोई अच्छा अभियान भी रस्म अदायगी भर बन कर रह जाता है। जैसा कि स्वच्छता अभियान शुरू होने के बाद हुआ था, लोगों की दिलचस्पी झाड़ू हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने तक सीमित रही, झाड़ू लगा कर सफाई करने में नहीं। बाद में शायद ही कभी वे इस अभियान को चलाते और झाड़ू लगाते दिखे।

पिछले दिनों भारत में कई ऐसी लड़कियों को पुरस्कृत भी किया जा चुका है , जिन्होंने शौचालय न होने के कारण ससुराल जाने से मना कर दिया था। उन्हें अन्य औरतों के लिए ‘रोल मॉडल’ की तरह भी पेश किया गया था। लेकिन क्या शौचालय बन जाने भर से तमाम समस्याएं हल हो जाएंगी। पिछले दिनों बिल ऐंड मिलंडा गेट्स फाउंडेशन और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन ऐंड ट्रापीकल मेडिसिन ने ओड़िशा के सौ गांवों का अध्ययन किया था। इस अध्ययन के परिणाम लांसेट पत्रिका में छपे थे। इन गांवों के इक्यावन हजार लोगों में से आधे के घरों में शौचालय हैं। इन शौचालयों के बनने के बाद छोटे बच्चों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ा इसका पता लगाया गया। लेकिन जानकारियां चौंकाने वाली थीं। पता चला कि शौचालय बनने के दो साल बाद भी बच्चों के स्वास्थ्य में कोई खास सुधार नहीं हुआ था। बच्चे बार-बार डायरिया का शिकार हो रहे थे। वे बार-बार बीमार हो रहे थे। उनके माता-पिता परेशान थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर शौचालय बना दिए जाएंगे तो बच्चे हमेशा स्वस्थ रहेंगे। बच्चों के पेट में पाए जाने वाले कीड़े भी कम नहीं हुए थे। अकसर विज्ञापनों तथा रिपोर्टों में बताया जाता है कि शौचालय बन जाने से बच्चों को डायरिया जैसी बीमारियां नहीं होंगी। मगर ऐसा नहीं हुआ था।

इन दिनों हमारे यहां शौचालय बनाने का जो अभियान चलाया जा रहा है उसमें यही बताया जा रहा है कि अगर हर घर में शौचालय हो तो बच्चों को डायरिया और कीड़ों के कारण होने वाली बीमारियां नहीं होंगी। भारत में हर साल लाखों बच्चे इन बीमारियों से मर जाते हैं। लेकिन मिलिंडा फाउंडेशन की रिपोर्ट पर गौर करें तो शौचालय बन भी जाएं तो गरीबों की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

हमारे देश में सफाई भी वही रख सकता है, जिसके पास सफाई रखने के साधन हों। पानी हो। रहने के लिए साफ-सुथरी हवादार जगह हो। स्वास्थ्य ठीक रखने में हो सकता है शौचालय कुछ मदद करें, लेकिन उनके बन जाने से ही स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन हो जाएगा ऐसा नहीं है। हालांकि सरकार द्वारा जारी कई विज्ञापनों में विद्या बालन अपनी कर्कश आवाज में ऐसा ही बताती रहती हैं। काश, पानी तथा अन्य संसाधनों की भारी कमी झेल रहे इस देश में लोगों की बीमारियों और तकलीफों को दूर करने में शौचालय कोई जादू की छड़ी साबित होते, मगर ऐसा है नहीं। एक तरफ लोग सफाई के प्रति जागरूक नहीं हैं, उन्हें जागरूक करने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ किसी अभियान को हाइप करने की भी जरूरत नहीं है। वरना लोग यही समझेंगे कि उन्हें बार-बार मूर्ख बनाया जाता है।