सुरेश सेठ

इस कृषि प्रधान देश में किसानी पेशा नहीं, बल्कि जीने का ढंग है। मगर वक्त बदल गया। अब भारत कृषि प्रधान देश की जगह डिजिटल भारत कहलाना चाहता है। उसकी इंटरनेट क्षमता भी दुनिया के बहुत बड़े देशों का मुकाबला करती है और जहां तक मोबाइल से सोशल मीडिया अपनाने की बात है, शहर ही नहीं, गांवों तक में हर जगह मोबाइल नजर आते हैं। मगर फिर भी देश की रीढ़ की हड्डी को खेती-बाड़ी ही कहना चाहिए, क्योंकि उद्योगीकरण के विकास पर मंदी का पक्षाघात हो जाता है। कोरोना काल में अगर कोई धंधा बच निकला था या अपने पैरों पर खड़ा रहा तो वह खेती-बाड़ी ही था, जिससे आज भी देश की आधी जनसंख्या जुड़ी है।

मगर किसानों की त्रासदी का अंत नहीं। विकसित देशों की तरह यहां खेती-बाड़ी के बाद फसलों को लघु, कुटीर और मध्यम उद्योगों की सहायता से तैयार माल बना कर बेचा नहीं जाता। अब जो कुटीर, लघु और मध्यवर्ग को विकास के दमामे पूरे देश में बजाए गए हैं, उनमें भी खेतिहर की समस्याओं का अंत नहीं हुआ, क्योंकि धनकुबेर इस क्षेत्र की निर्यात संभावनाओं के कारण अपना हस्तक्षेप करना चाहते हैं और गरीब किसान के पास इतना धन नहीं कि वह फसल बीजने-काटने के बाद अगला कदम उसके विनिर्माण का भी उठा ले।

इतनी सदियों के खेती-बाड़ी के धंधे को जीवन धन की तरह अपनाने के बावजूद आज भी देश की खेती-बाड़ी का ढांचा चरमराता नजर आता है। किसानों का दृष्टिकोण अब खेती को एक जीवन-अर्थ न मानकर पेशा बनाने का हो तो गया, लेकिन उसकी संभावनाओं को पूरी तरह से उपयोग नहीं किया जा सका, क्योंकि खेती कल भी जीवन निर्वाह थी, आज भी जीवन निर्वाह है। वही फसल चक्र आज भी किसान के पल्ले पड़ा है। यानी गेहूं के बाद धान और धान के बाद गेहूं।

सरकार ने खेती-बाड़ी के विविधिकरण की बहुत बातें की हैं। नई फसलें उगाने का आग्रह किया जाता है, लेकिन किसान की इस विविधिकरण के बावजूद त्रासदी का अंत नहीं होता। कभी मौसम खलनायक बन जाता है, कभी नियमित मंडियों में उसकी विविध फसलों को उचित सम्मान नहीं मिलता। मौसम के परिवर्तन ने फसलों को मार दिया। यही हाल दलहन का हो रहा है। किसान के पास कोई और रास्ता नहीं, सिवाय फसल चक्र को अपनाए रखने के, क्योंकि वह उसे निम्नतम रोजी-रोटी की गारंटी तो दे देता है।

मगर लगता है, इस बार यह गारंटी भी नहीं मिलेगी। देश की मुख्य फसल है गेहूं। गेहूं की फसल खेतों में तैयार खड़ी थी, तब पर्यावरण प्रदूषण का तोहफा जलवायु का असाधारण परिवर्तन उस पर वज्रपात बनकर इस बार गिरा। आंधी, तूफान, ओलावृष्टि, बर्फबारी का अब कोई वक्त नहीं रहा। जलवायु के ये असाधारण परिवर्तन किसानों पर वज्रपात की तरह गिरते हैं और उनके खेतों में लहलहाती फसलें धरती पर बिछ जाती हैं। बारिश होती है, गेहूं के डंठल उसमें डूब जाते हैं और गेहूं के दाने छोटे रह जाते हैं। अब की बात करें तो पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश मौसम की मार के कारण बड़ा घाटा उठाने की स्थिति में नजर आ रहे हैं, क्योंकि आंधियां, तेज हवाएं और बेमौसमी बारिश उनकी मेहनत को धरती पर पटक रही हैं।

अब भी जलवायु विभाग जो नई चेतावनियां दे रहा है, वे यही हैं कि पीली चेतावनी अभी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। हो सकता है, पूरा अप्रैल का महीना भी मौसम के इसी उतार-चढ़ाव में गर्क हो जाए। मार्च के दिनों में भारी गर्मी पड़ने लगी थी। लगा था बसंत का महीना उड़न-छू हो गया। अब यह बारिश-तूफान चला आया पश्चिमी विक्षोभ के कारण। खेतों के खेत गेहूं की फसल खो रहे हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में 5.23 लाख हेक्टेयर जमीन पर गेहूं की फसल क्षतिग्रस्त हो गई। पंजाब पर सबसे ज्यादा असर हुआ है। पंजाब और हरियाणा में इस साल लगभग 34 लाख हेक्टेयर गेहूं बीजा गया था। अब जो आंधी, तूफान और धारासार बारिश हुई, उसने हमारे फसल चक्र में रबी की मुख्य फसल गेहूं का बंटाधार कर दिया है। इसके साथ-साथ छोटी अतिरिक्त फसलें भी गईं।

अनुमान था कि जून 2023 तक एक साल में हम 11.22 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन कर लेंगे, लेकिन बेमौसमी बारिश ऐसी आई कि फसल कटाई की योजनाएं धरी की धरी रह गर्इं। पंजाब से लेकर मध्यप्रदेश तक फसल मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद तो शुरू हुई, लेकिन गेहूं की आवक कहां हैं? खेतों में बिछ गई फसलों में से गेहूं के मरते हुए दाने को कैसे निकालें? हरियाणा में 1,02,627 नुकसान ग्रस्त किसानों ने मुआवजे के लिए पंजीकृत करवाया है। यहां 5.7 लाख एकड़ भूमि में नुकसान हुआ बताते हैं।

यह लगातार दूसरा साल है, जब पंजाब और हरियाणा के किसान यही भाग्य झेल रहे हैं। पंजाब में तो फसलों का इतना नुकसान हो गया कि 13 लाख हेक्टेयर फसल तबाह हो गई लगती है। अब अफसरों और विधायकों को मैदान में उतारा जा रहा है कि वे नष्ट फसलों वाले खेतों की गिरदावरी करें और उनका मुआवजा देने का प्रबंध किया जाए।

पंजाब के मुख्यमंत्री ने कहा था कि कि बैसाखी से पहले मुआवजा दे देंगे, लेकिन मौसम विभाग कहता है कि पीली चेतावनी ने पीछा नहीं छोड़ा। पंजाब के पंद्रह जिले बारिश और ओलावृष्टि से बार-बार ग्रस्त हो रहे हैं। कहा जा रहा है कि पूरे अप्रैल में मौसम की यही असाधारण करवट रहेगी। किसान अपनी आंखों के सामने अपनी मेहनत को बर्बाद होता देखेगा। यह किसान उन सभी गेहूं बीजने वाले राज्यों में घुटनों में सिर दिए बैठा है, जहां मौसम की मार ने उसकी फसलों को तबाह कर दिया। पंजाब सरकार ने मुआवजा 25 प्रतिशत बढ़ाकर पंद्रह हजार तो कर दिया, लेकिन किसान संगठन कहते हैं कि नुकसान तो अस्सी हजार रुपए प्रति एकड़ तक हुआ है। पंद्रह हजार मुआवजा क्या करेगा, कम से कम पचास हजार चाहिए। इसके लिए किसानों ने रेल पटरियों पर धरना भी लगा दिया।

मगर सवाल है कि ऐसे मौसम का नुकसान क्या केवल खेती-बाड़ी में ही होता है। क्या कस्बों और शहरों का व्यावसायिक जीवन अव्यवस्थित नहीं हो जाता। वे पहले ही मंदी की मार झेल रहे थे, अब मौसम खलनायक हो गया तो उन्हें भी अपना भाग्य डूबता नजर आ रहा है। ऐसी हालत में तत्काल मुआवजा कोई समाधान नहीं है। असली समाधान तो यह है कि इसके मूल कारण पर्यावरण प्रदूषण से जूझा जाए और इससे जूझने के लिए बाहुबली देशों के सहयोग का इंतजार न किया जाए। उन्होंने तो अपने वक्त में कार्बन उत्सर्जन करके पर्यावरण प्रदूषण की यह हालत कर दी। अब न जी-20 के मंच से और न ही क्वाड देशों के समूह में से उनकी आवाज ही उठती है कि वे पर्यावरण प्रदूषण से जूझने के लिए अपना सौ अरब डालर का व्यय कर देंगे। वे तीस अरब से आगे जाने के लिए तैयार नहीं हैं।

तो रास्ता क्या है? केवल एक कि भारत तीसरी दुनिया के देशों का नेतृत्व करे और अपने सीमित साधनों के साथ पर्यावरण प्रदूषण की इस विनाशलीला से जूझना शुरू करे। इसे अब और स्थगित नहीं किया जा सकता। केवल बजट में इसके लिए धनराशि आबंटित करने से कुछ नहीं होगा। संघर्ष के ये तेवर तेजी से नजर आने चाहिए। भारत नेतृत्व करेगा तो शेष विश्व भी अपने इस आसन्न संकट का संज्ञान लेकर अपना योगदान देगा।