सत्येंद्र किशोर मिश्र
गरीबों के कल्याण के लिए मुफ्त उपहार या अनुदान आवश्यक होते हैं, जो बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं, पर अनियंत्रित और अतार्किक ‘दान’ या फिर अनुदान, अर्थव्यवस्था पर बोझ बन सकते हैं। इसके बजाय विकास परियोजनाओं सहित सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढांचे के निवेश पर जोर, अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन सतत विकास में मदद करता है। मुफ्त उपहार जनता को अस्थायी राहत दे सकते हैं, लेकिन वे देश की अर्थव्यवस्था में भी सेंध लगाते हैं।
जनतंत्र में सरकारें अपने संसाधनों का आबंटन लोकहित के मद्देनजर करती हैं। संविधान के नीति निर्देशक तत्त्वों में सरकारों से लोककल्याणकारी व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। अनुच्छेद 282 में अनुदान की व्यवस्था भी है। पर जनकल्याणकारी उपायों तथा मुफ्त उपहार के बीच अंतर की एक बारीक रेखा है।
समय के साथ सियासी नफे-नुकसान की कसौटी पर मुफ्त की घोषणाएं समष्टि आर्थिक प्रबंधन को बिगाड़ कर सामाजिक-आर्थिक विकास में बाधक बन रही हैं। सर्वोच्च अदालत ने सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले में 2013 के फैसले के संदर्भ में दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान मुद्दे की जटिलता को देखते हुए, इसे तीन जजों की पीठ को भेज कर पुनर्विचार और व्यापक सार्वजनिक बहस की जरूरत बताई।
ऐसे में कल्याणकारी योजनाओं और सियासी दलों के मुफ्त की रेवड़ी के वादों के बीच अंतर समझने की जरूरत है। साथ ही देखना होगा कि ऐसे मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा क्या होना चाहिए? क्या अदालत द्वारा नियुक्ति विशेषज्ञ निकाय कुछ हासिल कर सकता है?
सर्वोच्च अदालत में 2011 में सरकारी खजाने से मुफ्त चीजें बांटने के राज्य सरकारों के अधिकार के खिलाफ दाखिल याचिका से इस बहस की शुरुआत हुई। हालांकि सर्वोच्च अदालत ने इसे भ्रष्ट आचरण नहीं माना, पर सियासी दलों द्वारा मुफ्त रेवड़ी बांटने की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा पर कटाक्ष किया कि भारत का चुनाव आयोग अगर ऐसी मुफ्तखोरी नहीं रोक सकता, तो देश को भगवान ही बचा सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट का दावा है कि सरकारों द्वारा मुफ्त सुविधाओं पर फिजूलखर्ची के कारण राज्यों की वित्तीय हालत खस्ताहाल होती जा रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों, अर्थशास्त्रियों और समाज वैज्ञानिकों के ‘मुफ्त सुविधाएं’ बनाम ‘जनकल्याण’ के पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क हैं। विपक्ष में तर्क है कि मुफ्तखोरी, मतदाताओं को घूस देने जैसा और लोकतांत्रिक मूल्यों पर खतरा है। नैतिक पहलू यह है कि जब सियासी दलों को चुनने की बात आती है, तो यह इस बात पर टिक जाती है कि कौन कितना मुफ्त उपहार की घोषणा कर रहा है।
आर्थिक पहलू यह है कि सरकारी खजाने से मुफ्त उपहार राज्य की आर्थिक बेहतरी के लिए कितना बेहतर और टिकाऊ है। खाद्य सबसिडी और किसानों की कर्ज माफी जैसी योजनाएं मुफ्त उपहार ही तो हैं। सियासी दलों के तर्कहीन वादे चुनावी नफे-नुकसान की होड़ में, दीर्घकालीन सामाजिक-आर्थिक विकास की संभावनाओं को धूमिल कर रहे हैं।
इसके पक्षकार इसे लोककल्याणकारी उपाय मानते हैं, जिसमें मुफ्त वस्तु या सेवाएं सरकारी खजाने से दी जाती हैं। समझना महत्त्वपूर्ण है कि क्या मुफ्त को कल्याणकारी व्यय माना जा सकता है? सरकारी खजाने से व्यय के रूप में नीतिगत हस्तक्षेप, जो सीधे उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि सुनिश्चित नहीं करता, ‘मुफ्त’ माना जा सकता है। ऐसे व्यय जो सामाजिक-आर्थिक लाभ की संभावना उत्पन्न करते हैं, लोककल्याणकारी व्यय माना जाता है।
इसी अस्पष्ट आधार पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी योजनाएं तथा शिक्षा और स्वास्थ्य पर राज्यों के समर्थन को कल्याणकारी व्यय माना जाता है। दूसरी ओर, मुफ्त बिजली-पानी, मुफ्त सार्वजनिक परिवहन, कर्ज माफी आदि को अक्सर ‘फ्रीबीज’ माना जाता है। समय और संदर्भ के साथ इसका अर्थ बदल सकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबी तथा आय असमानता को देखते हुए कुछ मुफ्त उपहार उचित भी हो सकते हैं। कभी-कभी, मुफ्त उपहार एक सक्षम मानव संसाधन तैयार करते हैं, जो कि किसी भी विकास रणनीति का एक आवश्यक हिस्सा है।
दरअसल, मुफ्तखोरी के राजनीतिक विमर्श में आर्थिक सिद्धांतों की कमी है। अर्थशास्त्री भेद करने के लिए सार्वजनिक वस्तुओं बनाम निजी वस्तुओं, ‘मेरिट’ तथा गैर-मेरिट वस्तुओं जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं। ‘मेरिट’ वस्तुओं में सकारात्मक बाह्यताएं होती हैं, यानी प्रभावित व्यक्ति के कल्याण के साथ ही सामाजिक हित में बेहतरी आती है।
जबकि गैर-मेरिट वस्तुओं में नकारात्मक बाह्यताएं हो सकती हैं, इस पर व्यय दूसरों से वसूला जाता है। फिर भी लाभार्थी परिवार के आय सृजन में भाग ले सकते हैं। ऐसे में यह तय करना कठिन है कि कौन-सी मुफ्तखोरी अच्छी और जरूरी है तथा कौन-सी गैर-जरूरी तथा खराब है? इसे कौन तय करेगा? बेशक, एक कल्याणकारी राज्य में समाज के हाशिये पर पड़े नागरिकों के हितों की रक्षा जरूरी है। पर मुफ्त उपहार हर किसी के लिए मुफ्त नहीं हो सकता, क्योंकि सरकार इसे दृश्य-अदृश्य रूप में अन्य करदाताओं से वसूलती है। साथ ही, सरकारें नुकसान की भरपाई के लिए समाज के अन्य वर्गों पर अंतहीन बोझ नहीं लाद सकती हैं।
‘मुफ्त उपहार’ संबंधी बहस लोकतांत्रिक पूंजीवाद तथा नवउदारवाद के दायरे में बाजार की भूमिका को स्वीकार करती है। उपयोगितावाद तथा समतावादी दृष्टिकोण अधिकतम लोगों के कल्याण के साथ सामाजिक न्याय के तर्क को आधार बनाता है। वहीं क्षमता दृष्टिकोण में विकास को लोगों की स्वतंत्रता का विस्तार कर उनकी क्षमताओं को बढ़ाने की प्रक्रिया के तौर पर देखा जाता है।
इन सभी सामाजिक-आर्थिक विचारों में समाज कल्याण में राज्य की भूमिका को लेकर संशय नहीं है। पर किसे मुफ्तखोरी माना जाए तथा किसे विकास व्यय अनिर्णय की स्थिति? राज्य सरकारों द्वारा दिए गए मुफ्त उपहार कर्ज का बोझ बढ़ाकर आर्थिक बदहाली ला सकते हैं। प्रश्न है कि मुफ्तखोरी क्या इतनी बुरी हो सकती है कि आर्थिक विनाश का कारण बन जाए?
वर्ष 2020-21 में आरबीआइ की राजकोषीय जोखिम रिपोर्ट में भारी कर्जदार राज्यों में कर्ज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीएसपी) के आधार पर ज्यादातर राज्यों की वित्तीय हालात बहुत बुरी है। पंजाब में यह सबसे अधिक 53.6 फीसद है, जो चिंता का सबब है। अन्य राज्यों, राजस्थान में 39.5 फीसद, बिहार में 38.6, केरल में 37, उत्तर प्रदेश में 34.9, पश्चिम बंगाल में 34.2, झारखंड में 33.0, आंध्र प्रदेश में 32.5, मध्यप्रदेश में 31.3 तथा हरियाणा में 29.4 फीसद के साथ बड़े कर्जदार राज्य हैं। इन राज्यों का भारत के सभी राज्य सरकारों द्वारा कुल व्यय का लगभग आधा हिस्सा है और राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून 2003 का उल्लंघन भी कर रहे हैं।
एक अनुमान है कि विभिन्न राज्यों में मुफ्त उपहारों पर खर्च जीएसडीपी के 0.1 से 2.7 फीसद के बीच है। पंजाब और आंध्र प्रदेश जैसे अत्यधिक ऋणग्रस्त राज्यों में मुफ्त उपहार जीएसडीपी के दो फीसद से अधिक है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, सबसिडी पर राज्य सरकारों का खर्च भी वर्ष 2020-21 और वर्ष 2021-22 के दौरान 12.9 फीसद तथा 11.2 फीसद बढ़ा है।
राज्यों द्वारा कुल राजस्व व्यय में सबसिडी का हिस्सा वर्ष 2019-20 के 7.8 फीसद से बढ़ कर वर्ष 2021-22 में 8.2 फीसद हो गया है। मुफ्त उपहार समग्र आर्थिक प्रबंधन की बुनियाद को कमजोर करते हैं। पंजाब के मामले में, अनुमान है कि मुफ्त उपहारों का वादा जीएसडीपी के तीन फीसद का अतिरिक्त भार डालने वाला है। मुफ्तखोरी की सियासत व्यय प्राथमिकताओं को विकृत कर सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बढ़ा सकती है।
गरीबों के कल्याण के लिए मुफ्त उपहार या अनुदान आवश्यक होते हैं, जो बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं, पर अनियंत्रित और अतार्किक ‘दान’ या अनुदान, अर्थव्यवस्था पर बोझ बन सकते हैं। इसके बजाय, विकास परियोजनाओं सहित सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढांचे के निवेश पर जोर, अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन सतत विकास में मदद करता है। मुफ्त उपहार जनता को अस्थायी राहत दे सकते हैं, लेकिन वे देश की अर्थव्यवस्था में भी सेंध लगाते हैं। महत्त्वपूर्ण है कि समय आ गया है कि सियासत के दायरे से बाहर, इस व्यवस्था पर तार्किक नजरिए से समग्रता में विचार हो।