साल 2005 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दुनिया के जिस सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र यानी सियाचिन का दौरा कर उसे ‘माउंटेन ऑफ पीस’ यानी ‘शांति शिखर’ में बदलने की इच्छा जताई थी, वहां पिछले दिनों हिमस्खलन ने एक जेसीओ समेत दस जवानों की जान ले ली। पर सवाल है कि क्या ऐसे हादसों से बचा नहीं जा सकता? वर्ष 1984 से, जबसे सियाचिन पर भारत की नियमित सैनिक तैनाती है, वहां हुई नौ सौ से ज्यादा जवानों की मौत की वजह शत्रु पड़ोसी का कोई धावा नहीं रहा, बल्कि वह कुदरत रही है जिसके सामने सारे इंतजाम बेमानी हो जाते हैं। हमारे सैनिकों की हालिया मौतें अपने पीछे एक बड़ा सवाल छोड़ गई हैं कि आखिर ऐसे इलाके में सेना की तैनाती की क्या जरूरत है जहां जंग सिर्फ मौसम से लड़नी है?

भौगोलिक नजरिए से देखें, तो करीब छिहत्तर किलोमीटर लंबा सियाचिन ग्लेशियर उत्तरी लद्दाख के काराकोरम में स्थित है। भारत, चीन और पाकिस्तान के कब्जे वाले उत्तरी कश्मीर के इस जंक्शन प्वाइंट पर कुल बाईस ग्लेशियर हैं। इन ग्लेशियरों की ऊंचाई 11 हजार 400 से 20 हजार फुट तक है। यहां का औसत तापमान शून्य से दो सौ डिग्री से भी कम होता है। यह तापमान ऐसा है कि अगर भूले से शरीर का कोई हिस्सा गर्म कपड़ों से बाहर रह जाए तो वह हमेशा के लिए खराब हो सकता है। यहां इंसान ही नहीं, मशीनें भी अपनी क्षमता का महज एक चौथाई काम कर पाती हैं। हिमपात, बर्फीली आंधी और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक घटनाएं इस इलाके और दुर्गम बना देती हैं। मौसम की इन मुश्किलों के बीच वहां सैनिकों की तैनाती पर सरकार को पांच करोड़ रुपए प्रतिदिन और एक हजार करोड़ से अधिक रकम सालाना खर्च करनी पड़ती है।

सियाचिन हमेशा से युद्धभूमि नहीं रहा है। सत्तर और अस्सी के दशक में सियाचिन में सिर्फ पर्वतारोही जाते थे। उस समय पाकिस्तान ने काराकोरम और सियाचिन क्षेत्र में देशी-विदेशी पर्वतारोहियों को जाने की इजाजत दे रखी थी। वर्ष 1977 में भारतीय कर्नल नरेंद्र कुमार ने सिचाचिन में पर्वतारोहण के बारे में एक लेख पढ़ कर वहां अपना अभियान दल ले जाने की योजना बनाई। यह दल लद्दाख की तरफ से सियाचिन और उस इलाके की अनेक चोटियों पर सफलतापूर्वक चढ़ाई करके वापस लौटा। इनके वहां से लौटने के बाद पाकिस्तान के पर्वतारोहियों ने उस इलाके में भारतीय ब्रांड की सिगरेट के खाली पैकेटों को देख कर इसके बारे में अपनी सेना को बताया।

भारतीय सैनिकों के वहां आने की बात सुन कर पाक सेना ने इस इलाके पर अपना कब्जा जमाने की योजना बनाई। इस मकसद से उसने लंदन स्थित एक फर्म को बड़े पैमाने पर पर्वतारोहण के औजार सप्लाई करने का आर्डर दिया। यह फर्म भारत को भी ऐसे उपकरण सप्लाई करती थी। माना जाता है कि पाकिस्तानी आर्डर की सूचना वहां से लीक हो गई और इससे पहले कि पाकिस्तान ‘ऑपरेशन अबाबील’ चला कर सियाचिन पर कब्जा जमा पाता, भारत ने 1984 में ‘ऑपरेशन मेघदूत’ नामक अभियान चला कर इस इलाके पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस तरह सियाचिन का करीब छब्बीस सौ वर्ग किलोमीटर हिस्सा भारत के कब्जे में आ गया।

भारतीय सेना ने सियाचिन के दो प्रमुख दर्रों बिलाफेंडला और सियाला को अपने अधिकार में लिया था। इससे पाकिस्तान की सियाचिन में प्रभावी पहुंच की संभावना खत्म हो गई। असल में पाकिस्तान के कब्जे वाले भूभाग से सियाचिन तक जाने के लिए भी यही दोनों दर्रे एकमात्र रास्ता थे। इसके बाद दस और ग्लेशियरों पर भारत कब्जा जमाने में सफल रहा। आज स्थिति यह है कि पाकिस्तान का बेस सियाचिन के निचले ग्योंग ग्लेशियर में सिमट गया है। जबकि भारतीय सैन्य बेस सियाचिन के ऊपरी इलाके में हैं। इससे फायरिंग के मामले में भी भारत की स्थिति काफी मजबूत है।

हालांकि 1984 के बाद से पाकिस्तान सियाचिन पर दोबारा कब्जा जमाने की लगातार कोशिश करता रहा, लेकिन इसमें उसे कामयाबी नहीं मिली। आखिर 2003 में इस क्षेत्र में दोनों देशों ने युद्धविराम लागू कर दिया। लेकिन इस समय तक दोनों मुल्कों के दो हजार से ज्यादा सैनिक यहां जान गंवा चुके थे। भारतीय सैनिकों से ज्यादा मौतें पाकिस्तानी सैनिकों की हुई हैं। पर किसी युद्ध में नहीं, बल्कि फ्रास्टबाइट की समस्या होने, ऑक्सीजन की कमी, हिमस्खलन (एवलांच) में दब जाने और दूसरे प्राकृतिक कारणों से। शून्य से काफी नीचे के तापमान वाले सियाचिन इलाके में दोनों देशों की करीब डेढ़ सौ चौकियां हैं जहां दोनों तरफ से करीब तीन-तीन हजार सैनिक हर वक्त तैनात रहते हैं। ये दोनों इसकी भारी आर्थिक कीमत भी चुकाते हैं। भारतीय क्षेत्र में ज्यादातर आर्मी पोस्ट सोलह हजार फुट से ऊंचाई की जगहों पर स्थित हैं और इसमें बाना चौकी बाईस हजार फुट पर स्थित है।

सियाचिन का एक सामरिक-रणनीतिक महत्त्व अवश्य है, जिसे देखते हुए कोई भी सरकार यहां से अपने सैनिक हटाना नहीं चाहेगी। वर्ष 1949 में निर्धारित युद्धविराम रेखा और 1972 में निर्धारित नियंत्रण रेखा- ये दोनों ही सियाचिन से होकर नहीं गुजरती हैं। इन दोनों रेखाओं के मामले में भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन की रेखा मैप प्वाइंट एनजे 9842 पर खत्म हो जाती है। बाद में इस प्वाइंट से आगे युद्धविराम रेखा और नियंत्रण रेखा को उत्तर में सालतोरो रिजलाइन से गुजारा गया, जो सियाचिन के नजदीक है। हालांकि भारत ने तो इस विभाजन को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया, लेकिन पाकिस्तान का दावा कुछ और है। पाकिस्तान के अनुसार विभाजन रेखा को उत्तर-पूर्व से नुब्रा घाटी और भारत-तिब्बत सीमा के काराकोरम दर्रे में स्थित मुख्य काराकोरम श्रेणी से गुजारा जाना चाहिए। पाकिस्तान की इस व्याख्या के कारण उसके हिस्से में अतिरिक्त दस हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र शामिल हो जाता है। इन तथ्यों के आधार पर संसार की छत कहलाने वाली इस जगह का सामरिक महत्त्व तो साबित होता है।

कहने को सन 2003 से सियाचिन शांत है, लेकिन ऐसे इलाके में कुदरत सबसे बड़ी दुश्मन है। इसीलिए यहां जवानों की तैनाती की भारी कीमत दोनों देशों को चुकानी पड़ रही है। किसी भी नजरिये से अक्लमंदी यही है कि इस बेकार की तनातनी से पीछा छुड़ाया जाए। इस पर सहमति बनते-बनते रह जाती है। भारत ही नहीं, पाकिस्तान में भी आम जनता में यही राय है कि इस जगह को सिर्फ कुदरत के हवाले छोड़ दिया जाए। दो साल पहले तो पाकिस्तानी संसद की रक्षा संबंधी समिति तक ने दोनों मुल्कों की सरकारों से अपील की थी कि वे सियाचिन का पर्यावरण बचाने और उसे जलवायु परिवर्तन से सुरक्षित करने के लिए मिलकर काम करें। इस मकसद से दोनों ही देशों की सरकारों को पिछले तीस साल से जारी तनाव को कम करने के लिए वहां से अपनी सेनाएं हटा लेनी चाहिए। इस इलाके में दोनों देशों का पैसा तो बर्बाद हो ही रहा है, मानव संसाधन का भी दुरुपयोग हो रहा है।

सियाचिन में इंसानी गतिविधियों से इलाके के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। वहां बर्फ तेजी से पिघल रही है और दोनों देशों की सेनाओं की गतिविधियों के कारण मलबे का ढेर लग गया है। समिति ने एक सुझाव यह दिया था कि सियाचिन को बचाने के लिए वहां एक शांति पार्क बना देना चाहिए। वहां सैन्य गतिविधियों की जगह पर्वतारोहण को बढ़ावा दिया जाए। मगर इन सुझावों पर अमल तभी मुमकिन है, जब इस बारे में कोई सैन्य समझौता हो जाए।

इस बारे में वस्तुस्थिति यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाली हर बातचीत में पाकिस्तान सियाचिन का मामला जरूर उठाता है। सियाचिन मुद्दे पर पहली बार 1986 में भारत-पाक वार्ता होने के बाद दोनों देशों के बीच अब तक वार्ताओं के दर्जन भर से ज्यादा विफल दौर हो चुके हैं, लेकिन आगे का रास्ता नहीं खुल पा रहा। अब तक के अनुभवों से सबक लेकर भारत चाहता है कि पहले इस इलाके में सेनाओं की जमीनी स्थिति की पहचान हो, उसे नक्शों में दर्ज किया जाए, उसे प्रमाणित किया जाए और दोनों पक्ष उस पर अपनी मुहर लगाएं। यह इसलिए जरूरी है ताकि आगे चल कर समझौता तोड़ा न जा सके। लेकिन पाकिस्तान यथास्थिति बनाए रखने के वादे से आगे नहीं बढ़ना चाहता। इससे अंदेशा यह है कि अगर आगे कभी पाकिस्तान ने समझौता तोड़ा और उसकी सेना सालतोरो रिज तक चढ़ आई, तो क्या होगा? पक्के दस्तावेजों के बिना विवाद कैसे सुलझेगा? इन सवालों को भारत इसलिए भी नजरअंदाज नहीं कर सकता कि पाकिस्तानी सेना के लिए सालतोरो रिज पर पहुंचना आसान है, जबकि ग्लेशियर को पार कर दोबारा वहां कब्जा करना भारतीय सेना के लिए लगभग नामुमकिन हो जाएगा।

अब अगर पाकिस्तान की मंशा साफ है, तो सियाचिन पर समझौता मुश्किल नहीं होना चाहिए। यही उम्मीद भारत को रही है। लेकिन हो सकता है पाकिस्तान कहीं और रियायत हासिल करने के लिए इसे गोटी की तरह इस्तेमाल कर रहा हो। अगर ऐसा है, तो यह खुद अपने सैनिकों के साथ उसकी नाइंसाफी होगी, जो एक झूठे अहंकार के लिए उस बफार्नी कैद में पड़े हैं। दूसरे विवाद अपनी जगह, लेकिन कम से कम इस मामले का जल्द हल हो जाना चाहिए। सरहद के दोनों ओर बहुतों की यह राय है कि सियाचिन को संसार का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है।