सुशील कुमार सिंह

इससे सवाल उठता है कि मानव जिस सभ्यता की ऊंचाई पर है, क्या उसकी जड़ों को नहीं पहचान पा रहा है? दूसरा कि क्या मानव यह समझने में नाकाम है कि पृथ्वी एक सीमा के बाद भोजन देने में सक्षम नहीं है? गौरतलब है कि पृथ्वी दस अरब लोगों का ही पेट भर सकती है और अब दुनिया आठ अरब की आबादी के आसपास खड़ी है।

भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि जहां अन्न का अपमान होता है वहां लक्ष्मी का वास नहीं होता। मगर अब लोग शायद इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। विकसित और विकासशील देशों में भोजन की बर्बादी का सिलसिला लगातार जारी है। इस मामले में चीन पहले और भारत दूसरे स्थान पर है। हैरत की बात है कि दुनिया में जहां तिरासी करोड़ से अधिक लोग भूखे सो जाते हैं, वहीं खाने की बर्बादी कई करोड़ टन रोज की दर से हो रही है। यूएनईपी की ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि चीन हर साल 9.6 करोड़ टन भोजन बर्बाद करता है और भारत 6.87 करोड़ टन।

अमेरिका 1.93 करोड़ टन। ‘यूएनईपी फूड इंडेक्स 2021’ की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में पूरी दुनिया में तिरानबे करोड़ टन से अधिक खाना बर्बाद हुआ। अब यह आंकड़ा और बड़ा हो चुका है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत में उन्नीस करोड़ लोग रोजाना भूखे सो जाते हैं। यहां खाद्य उत्पाद का चालीस फीसद हिस्सा बर्बाद होता है। यानी सालाना बानबे हजार करोड़ रुपए का भोजन कूड़ेदान में चला जाता है। आश्चर्य की बात यह भी है कि ताजा भूख सूचकांक में भारत एक सौ एकवें से खिसक कर एक सौ सातवें स्थान पर चला गया है, जो भोजन की बर्बादी और भूख के बीच एक नई चिंता की ओर इशारा कर रहा है।

भारत में भोजन की बर्बादी जागरूकता, संवेदनशीलता और भूख के प्रति चिंतन से ही रुक सकती है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रथम विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस के अवसर पर ‘कम खाओ, सही खाओ’ मुहिम को जन आंदोलन बनाने का आह्वान किया और इस संकल्प पर जोर दिया कि एक भी दाना बर्बाद नहीं होना चाहिए। देश की शीर्ष अदालत ने दिशा-निर्देश दिया था कि सभी वैवाहिक स्थल, होटल, मोटल और फार्म हाउस में होने वाले शादी समारोहों में भोजन की बर्बादी को रोका जाना चाहिए।

इसमें कोई दुविधा नहीं कि मानव सभ्यता में अन्न का पहला और सबसे बड़ा योगदान है। यह सभ्य समाज के लिए बड़ी चुनौती है कि करोड़ों भूखे क्यों और कैसे सो रहे हैं। भोजन की बर्बादी से न केवल सरकार, बल्कि सामाजिक संगठन भी चिंतित हैं। बावजूद इसके यह सिलसिला थम नहीं रहा है। इस बात पर भी गौर करने की आवश्यकता है कि खाने की बर्बादी का मुख्य कारण क्या है। आमतौर पर बड़े देशों में ज्यादातर खाना खेत और बाजार के बीच होता है। भोजन का खराब भंडारण और संचालन, खराब पोषण, अपर्याप्त आधारभूत संरचना, घरों में खाने की बर्बादी, रखरखाव में लापरवाही, फलस्वरूप भोजन की खराबी और कूड़ेदान तक पहुंच स्वाभाविक हो जाती है।

यह अजीब है कि एक तरफ दुनिया भुखमरी का दंश झेल रही है, तो दूसरी तरफ करोड़ों टन अन्न बर्बाद हो रहा है। इससे सवाल उठता है कि मानव जिस सभ्यता की ऊंचाई पर है, क्या उसकी जड़ों को नहीं पहचान पा रहा है? दूसरा, कि क्या मानव यह समझने में नाकाम है कि पृथ्वी एक सीमा के बाद भोजन देने में सक्षम नहीं है? गौरतलब है कि पृथ्वी दस अरब लोगों का ही पेट भर सकती है और अब दुनिया आठ अरब की आबादी के आसपास खड़ी है। भोजन फेंकने की आदत पूरी दुनिया में एक अपसंस्कृति बन गई है। अनुमान है कि 2050 तक दुनिया भर में अपशिष्ट भोज्य पदार्थों की बर्बादी दोगुनी हो सकती है और यह बर्बादी इसी दर पर जारी रही तो 2030 तक दुनिया भर में भुखमरी उन्मूलन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित लक्ष्य ‘जीरो हंगर’ का उद्देश्य हासिल करना मुश्किल होगा।

बड़े होटलों या पार्टियों में अतिरिक्त भोजन के साथ विभिन्न रूपों में खाद्य सामग्री परोसने की आदत के चलते बर्बादी में बढ़ोतरी हुई है। इस बात का समर्थन सभी करेंगे कि भोजन की बर्बादी न केवल सामाजिक और नैतिक अपराध, बल्कि अन्न के प्रति स्वयं का बिगड़ा हुआ अनुशासन है। यह न केवल भुखमरी को अवसर दे रहा है, बल्कि पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों को भी बढ़ा रहा है। अध्ययन से पता चलता है कि थाली के जूठन से पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। ‘वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट आफ राकफेलर फाउंडेशन’ द्वारा किए गए शोध के अनुसार भोजन की बर्बादी के चलते ग्रीन हाउस गैसों में आठ से दस फीसद तक की बढ़ोतरी होती है। जाहिर है, ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज से भी भोजन की बर्बादी एक समस्या बनी हुई है।

इतना ही नहीं, भोजन के सड़े-गले अवशेष से कई बीमारियां जन्म लेती हैं। आंकड़े बताते हैं कि अवशिष्ट भोजन से हर साल साढ़े चार गीगा टन कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन होता है। पेरिस जलवायु समझौते में दुनिया से दो डिग्री सेल्सियस तापमान घटाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। अगर भोजन की बर्बादी पर विराम लग जाए तो ग्रीन हाउस गैसों में न केवल कटौती होगी, बल्कि जलवायु परिवर्तन की समस्या के साथ-साथ भुखमरी की समस्या से भी कमोबेश निजात मिल सकती है।

एक अच्छी आदत से ही भोजन की बर्बादी को कम किया जा सकता है और यह अच्छी आदत बच्चों को बड़े सिखाएं और बड़े अन्न की कद्र करें तथा होटल और रेस्तरां में परोसी गई थाली की कीमत रुपए से आंकने के बजाय जरूरत और जीवन के आधार पर आंकी जाए, ताकि भोजन की बर्बादी रोकी जा सके। बर्बाद होते भोजन और इससे बढ़ती समस्या से पार पाने के मकसद से दुनिया के तमाम देशों में सरकारी नीतियां बनाई और जागरूकता पैदा करने के लिए कई सराहनीय पहल भी की जा रही हैं। गौरतलब है कि संसार के कई देशों में 2030 तक भोजन की बर्बादी को आधा करने का लक्ष्य बनाया है। इसमें सबसे पहला नाम आस्ट्रेलिया का है। आस्ट्रेलिया में एक व्यक्ति एक वर्ष में 102 किलोग्राम खाना बर्बाद करता है।

इसके चलते वहां की अर्थव्यवस्था पर हर साल बीस मिलियन डालर का नुकसान होता है। ऐसे में यहां अन्न की बर्बादी रोकने में जुड़ी संस्थाओं को सरकार प्रोत्साहन दे रही है और अच्छा-खासा निवेश कर रही है। नार्वे मानव विकास सूचकांक के मामले में शीर्ष देशों में शामिल है, जबकि वहां भी हर साल साढ़े तीन लाख टन भोजन कूड़ेदान में जाता है। यहां का एक नागरिक भी अड़सठ किलो भोजन बर्बाद कर देता है। इसने भी 2030 तक इस बर्बादी को आधा करने का नियोजन बनाया है। चीन भोजन बर्बादी के मामले में अव्वल है। अब वहां ‘आपरेशन एंप्टी प्लेट’ नीति के तहत थाली में खाना छोड़ने पर रेस्तरां में जुर्माना लगाया जा रहा है।

यूरोपीय देशों में फ्रांस दुनिया का पहला देश है, जिसने सुपर मार्केट को बिना बिका भोजन बाहर फेंकने पर साल 2016 में प्रतिबंधित कर दिया था। गौरतलब है कि फ्रांस और इटली जैसे देशों में ऐसे भोजन को दान देने पर जोर दिया जा रहा है। कुछ इसी तर्ज पर लंदन, स्टाकहोम, कोपेनहेगन, न्यूजीलैंड के आकलैंड और इटली के मिलान जैसे शहरों में अतिरिक्त भोजन को जरूरतमंदो के बीच बांटने का काम होता है। भारत में रोटी बैंक के माध्यम से भोजन को जरूरतमंदों के बीच बांटा जा रहा है। ऐसी संस्थाओं के प्रति लोगों की चेतना और जागरूकता बढ़नी चाहिए, ताकि बचे हुए भोजन को बर्बाद होने से पहले भूखे लोगों तक पहुंचाया जा सके। मगर विडंबना है कि देश गरीबी और भुखमरी की राह पर सरपट दौड़ रहा है और भोजन की बर्बादी के प्रति लोगों की संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है।