सुरेश सेठ
बेशक अभी सूचकांक महंगाई नियंत्रण दिखा रहे हैं और पूंजी मंडियां भी बढ़त की ओर हैं, लेकिन लगता है कि जिस प्रकार थोक कीमतों के गिरने का अनुसरण परचून कीमतें नहीं कर रहीं और कमी का मनोविज्ञान पैदा करके चोरबाजारी का आलम आज भी खाद्य मंडियों से लेकर दवा मंडियों तक और जरूरी कच्चे माल की मंडियों में नजर आता है, वह यही बताता है कि कभी भी महंगाई नियंत्रण का यह दिवास्वप्न बिखर सकता है।
पिछले कुछ समय से भारत की अर्थव्यवस्था के संवरने को लेकर आशावादी बयान आने लगे हैं। कहा जा रहा है कि भारत की मौद्रिक नीति, जिसका रुख निवेश प्रोत्साहन के स्थान पर महंगाई नियंत्रण की ओर मोड़ दिया गया है, पूरी तरह से सफल रही है। सात बार रेपो दरों में परिवर्तन किया गया और इससे मौद्रिक नीति उदार के बजाय बहुत कठिन बन गई।
इसी के चलते ऋण साख की लागत बढ़ने लगी और उसके साथ-साथ चलने के लिए बैंकों को भी अपनी बंधी जमा दर की ब्याज दरों में भी परिवर्तन करने पड़े। अब जबकि विश्व में फेडरल बैंक की नीतियां भी इसी का अनुसरण करती नजर आ रही हैं, तो कहा जा रहा है कि भारत अपनी मौद्रिक नीति से इतना सफल रहा कि उसने खाद्य मंहगाई पर नियंत्रण कर लिया। इसके साथ ही यह भी कहा गया कि जहां विदेशी निवेश अगर भारत की मंडियों से भगोड़ा हुआ तो देश के घरेलू निवेश ने इन मंडियों को सहारा दिया और हमारी विकास दर दुनिया में लगभग तीव्रतम गति से बढ़ने लगी।
ऐसी खबरें भी आई हैं कि चाहे आगामी वित्तवर्ष दुनिया में महामंदी का वर्ष होगा, भारत अपनी प्रौढ़ आर्थिक नीतियों के कारण इस मंदी के कुप्रभावों से बच निकलेगा। इस समय भारत ने तरक्की करके दुनिया में सबसे ताकतवर पांचवीं आर्थिक शक्ति का स्थान ग्रहण कर लिया है। जल्दी ही वह आर्थिक शक्तियों की श्रेणी में तीसरा स्थान हासिल कर लेगा।
इसके अलावा नेताओं द्वारा बार-बार बेरोजगारों को रोजगार देने और भ्रष्टाचार के प्रति ‘जीरो टालरेंस’ की घोषणाएं तो होती ही रहती हैं और लगता है कि बहुत जल्दी भारत एक ऐसा पाक-साफ देश बन जाएगा, जहां इस युवा देश के काम मांगते नौजवानों को उचित रोजगार मिल जाएगा। देश से नौकरशाही, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार का इस प्रकार खात्मा हो जाएगा कि भारत दुनिया के महाभ्रष्टाचारी देशों के सूचकांक से निकल कर ईमानदारी की ओर बढ़ता नजर आएगा।
इन इंद्रधनुषी घोषणाओं के साथ-साथ ‘वर्ल्ड आफ स्टेटिस्टिक’ के नए आंकड़े भी आ गए हैं, जो बता रहे हैं कि भारत दुनिया के उन तीन शीर्ष देशों में शामिल है, जिनकी 2000 से 2022 के बीच विकास दर सर्वाधिक रही है। मगर इन सर्वाधिक विकास दर वाले देशों में चीन सबसे आगे और रूस उसके बाद बताया जा रहा है।
जहां तक महंगाई का संबंध है, मार्च में भारत ने महंगाई की 4.79 प्रतिशत दर दिखाई, जबकि विकसित देशों में यह दर 24 प्रतिशत तक पहुंच गई। सरकार की मौद्रिक नीति के अलावा गेहूं, चावल और चीनी निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर और रूस से सस्ती कीमत पर कच्चे तेल का आयात करके महंगाई पर काबू पाया। जब रूस-यूक्रेन युद्ध की वैश्विक अनिश्चितता में सारे आपूर्ति प्रबंध गड़बड़ा गए थे, भारत का यह प्रगतिशील चेहरा बहुत आश्वस्त करता है।
बीस साल में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 440 फीसद रही है, लेकिन यह न भूलें कि चीन की दर 1266 फीसद और रूस की आर्थिक वृद्धि दर 466 फीसद थी, बेशक वह यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा रहा। वैसे सरकारी आर्थिक प्रकोष्ठ तो यही कहते हैं कि भारत ने महंगाई नियंत्रण और आर्थिक विकास के मामले में शानदार काम किया है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है।
जब भारत का संविधान बना था, तो उसमें देश में प्रजातांत्रिक समाजवाद लाने की घोषणा की गई थी। गरीब और अमीर के बीच भेद मिटाने की बात कही गई थी, लेकिन आज भारत में दो देश बसते हैं। मुट्ठी भर धनकुबेरों का देश और उनके साथ जीता है पिसता हुआ मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग और कामगार लोग। देश के सत्तर करोड़ लोगों से ज्यादा पैसे केवल इक्कीस अरबपतियों के पास हैं।
चाहे जीएसटी संग्रह को सरकारी उपलब्धि माना जाता है, लेकिन इसमें भी आधे से ज्यादा जीएसटी आम आदमी भर रहा है। धनी लोग जीएसटी से लेकर आयकर तक में अपना वह हिस्सा अदा नहीं कर रहे, जो कि उन्हें करना चाहिए। अमीरों की तुलना में गरीब और मध्यवर्गीय लोग ज्यादा कर दे रहे हैं। जीएसटी का लगभग 64 प्रतिशत हिस्सा 50 प्रतिशत आबादी से जमा हुआ है।
लेकिन सबसे अमीर दस फीसद लोगों से जीएसटी का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा बाहर आया है। इसलिए देश की सही तरक्की का चित्र इंद्रधनुषी तभी बनेगा, जबकि करों की यह बोझ विभिन्नता कम होगी। जो जितना दे सकता है, उतना ही कर अदा करेगा। यह असमानता कब दूर होगी? जब हम यह कहना कब बंद करेंगे कि पांच फीसद अमीर भारतीयों के पास देश की संपत्ति का 60 फीसद हिस्सा है और नीचे के 50 फीसद लोगों के पास देश की संपत्ति का केवल तीन फीसद हिस्सा है।
इसके लिए निश्चय ही कुछ ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे, जिनमें धनी लोगों को भी अपनी कमाई के मुताबिक कर देना पड़े। इसके अलावा यह भी देखने का समय आ गया है कि देश की अर्थव्यवस्था में नीतिगत परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं। पिछले दिनों में उदारवाद के नाम पर देश में निजी क्षेत्र को बहुत बढ़ावा दिया गया। यह मानते हुए कि वह देश की विकास दर को तीव्र कर देता है।
मगर उसके साथ ही स्वचालित मशीनों की भरमार, डिजिटल और इंटरनेट के बढ़ावे के साथ कृत्रिम मेधा का प्रसार, कुछ ऐसी असलियतें भी आर्इं, जिनके कारण देश की युवा पीढ़ी बहुत बड़े पैमाने पर बेकार हो गई। सरकार ने इस समस्या का हल रियायतों और अनुकंपा की उदारवादी नीति के साथ किया। उदारता की यह पराकाष्ठा थी कि दावा किया जाने लगा कि दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं, जो अपनी अस्सी करोड़ जनता को रियायती अनाज दे रहा हो।
मगर लगता है कि कहीं यहीं पर व्यवस्था में त्रुटि पैदा हो गई है। युवा पीढ़ी अनुकंपावादी हो गई। रोजगार दफ्तरों की जगह रियायती रेवड़ियों वाले केंद्रों के बाहर उनकी कतारें लगने लगीं और चुनावी घोषणापत्रों में नई कार्यनीति की घोषणा के स्थान पर बढ़चढ़ कर अनुकंपा, राहत और रियायत की घोषणा होने लगी।
जिस देश में कर्मशीलता के स्थान पर इस तरह की मुफ्तखोरी को सदाशयता कह कर जनकल्याण की ओर बढ़ा जाए, वह युवा पीढ़ी को असमय ही निठल्ला करते हुए बूढ़ा बना देती है। चाहे सरकारी तौर पर यह कहा गया कि उनके लिए स्टार्टअप उद्योगों का रास्ता खुला है। लघु और कुटीर उद्योगों में वे स्वयं निवेश करते हुए नौकरी मांगने वाले के स्थान पर नौकरी देने वाले बन सकते हैं।
मगर उधर मौद्रिक नीति में परिवर्तन करके कर्ज महंगे कर दिए। इस स्थिति में युवा पीढ़ी स्वयंमेव की ओर कैसे जाए। बेशक अभी सूचकांक महंगाई नियंत्रण दिखा रहे हैं और पूंजी मंडियां भी बढ़त की ओर हैं, लेकिन लगता है कि जिस प्रकार थोक कीमतों के गिरने का अनुसरण परचून कीमतें नहीं कर रहीं और कमी का मनोविज्ञान पैदा करके चोरबाजारी का आलम आज भी खाद्य मंडियों से लेकर दवा मंडियों तक और जरूरी कच्चे माल की मंडियों में नजर आता है, वह यही बताता है कि कभी भी महंगाई नियंत्रण का यह दिवास्वप्न बिखर सकता है।
उधर मौसम के मिजाज में असाधारण परिवर्तन भी उत्पादन परिवर्तनों के साथ खिलवाड़ कर रहा है और उससे इस कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में जरूरी फसलों का आपूर्ति संकट भी पैदा हो सकता है। यह जमीनी हकीकत भी चौकन्ना करती है कि तरक्की के इंद्रधनुषी सपने देखने से पहले रास्ते के अवरोधों और कठिनाइयों की पड़ताल कर ली जाए। उन्हें दूर करना ही देश की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।