भारत कृषि प्रधान देश है। आज भी देश के किसानों का एक बड़ा वर्ग अपनी फसलों के लिए बादलों की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखता है। मानसून का अच्छा या बुरा होना, हमारी फसलों की पैदावार के अच्छे या बुरे होने को तय करता है। लेकिन बदली जीवन शैली में जिन लोगों का कृषि संबंधी गतिविधियों से सीधा सरोकार नहीं है, मानसून उनसे भी अपने यथोचित स्वागत की अपेक्षा करता है, क्योंकि बरसात के मौसम में बादलों से गिरा पानी ही वह एकमात्र माध्यम है, जो हमारे सूखे तालाबों, कुंओं, कुंडों, बावड़ियों, जोहड़ों आदि को फिर से भर सकता है। पिछली गर्मियों में जब देश के कई राज्यों ने भयानक सूखे का सामना किया, चौमासे में बरसने वाले पानी को सहेजने की जरूरतें और प्रबल हो जाती हैं, ताकि भविष्य को ऐसे किसी संकट की संभावना से बचाया जा सके।

लगभग सभी बड़े शहरों में कभी पानी के प्रवाह का मार्ग रह चुके भूभागों पर आवासीय बस्तियां बस चुकी हैं। पुरानी कहावत है कि आग, पानी, राजा और सांप अपना स्वभाव नहीं बदलते। पानी का स्वभाव है बहते रहना। उसका प्रवाह आसानी से परिवर्तित नहीं होता। ऐसे में यह प्रवाह जब कभी प्रबल होता है, अपने रास्ते में आने वाली रुकावटों को तोड़ और बस्तियों को अस्त-व्यस्त कर देता है। याद कीजिए पिछले साल चेन्नई में आई भीषण बाढ़ को। दरअसल, पुरानी नदी अडियार के पेटे में बस गई बस्तियों ने अचानक पानी के तेवर तीखे कर दिए थे। मुंबई में नीरी नदी पर खड़े हो गए सीमेंट के जंगलों के कारण यह स्थिति होती है कि जरा-सी बारिश तेज हो जाए तो मुंबई पानी-पानी हो जाता है।

इसे राजस्थान के कोटा शहर के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। कोटा हाड़ौती के पठार के सबसे निचले हिस्से पर बसा है। पठार के ऊपरी हिस्से पर बरसने वाला पानी तेजी से नीचे की ओर दौड़ता था और बस्तियों को नुकसान पहुंचाता था। इस स्थिति को तत्कालीन बूंदी रियासयत के राजकुमार धीरदेह ने समझा और सन 1346 में इस पठार पर पानी के प्रवाह के मार्ग में तेरह तालाब बनवाए। ये तालाब न केवल पानी के वेग को संभाल लेते थे, बल्कि पूरे साल आसपास के लोगों को उनकी जरूरतों के लिए पानी उपलब्ध कराते थे। लेकिन शहर बढ़ने के साथ-साथ इन तालाबों को पाट दिया गया और इनके पेटे में बस्तियां और बाजार बना दिए गए। नतीजा यह हुआ कि हर बारिश में शहर में बाढ़ के हालात पैदा होने लगे। कुछ साल पहले पठार के ऊपरी हिस्से में बरसने वाले पानी को शहर में घुसने से पहले ही चंबल नदी में डाल देने के लिए एक डायवर्जन चैनल बना दिया गया। अब बारिश के दिनों में पठार के ऊपरी हिस्से में बरसने वाला पानी कोटा शहर में बाढ़ के हालात तो नहीं पैदा करता, लेकिन तालाबों में इकट्ठा होने वाला पानी जिस तरह भूजल स्तर को रिचार्ज करता था, धरती उससे वंचित हो गई।

इधर लोगों ने बोरिंग करवा कर भूजल के अंधाधुंध दोहन को अपना अधिकार मान लिया। नतीजा यह हुआ कि चंबल जैसी सदानीरा नदी के साथ का सुख उपलब्ध होने के बावजूद कोटा और उसके आसपास भूगर्भीय जल का स्तर खतरनाक तरीके से नीचे पहुंच गया। चंबल, कालीसिंध, परवन और पार्वती जैसी बड़ी नदियों से घिरे होने के बावजूद दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान के इस भूभाग को इन गर्मियों में पानी के संकट से दो-चार होना पड़ा।

पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर शहर में एक तालाब है गढ़सीसर तालाब। इसका निर्माण जैसलमेर के महारावल घड़सी ने सन 1335 में करवाया था। हर साल मानसून के आगमन के पहले जैसलमेर में ल्हास खेला जाता था। इस खेल या उत्सव के दौरान शहर के आम और खास नागरिक मिल कर गढ़सीसर तालाब की सफाई करते थे और तालाब के पेंदे में जमी गाद निकालते थे। यही कारण था कि गढ़सीसर मरुभूमि में भी एक समंदर की तरह अपनी छटा बिखेरता था। गढ़सीसर की स्वच्छता बनाए रखने के लिए समाज के अपने नियम थे, जिनका पालन सभी वर्ग स्वेच्छा से करते थे। मानसून की पहली बारिश के अवसर पर ही इस तालाब के किनारे नहाया जा सकता था। उसके बाद तालाब में नहाना वर्जित था।

जैसलमेर देश के उस भूभाग में बसा है, जहां दुनिया के सबसे बड़े मरुस्थलों में एक थार का मरुस्थल स्थित है। कहते हैं कि हजारों बरस पहले इस इलाके में टैथिस महासागर हुआ करता था। समुद्र के मरुस्थल में परिवर्तित होने के भौगोलिक या पर्यावरणीय कारण जो भी रहे हों, लेकिन लोक एक समुद्र के मरुस्थल में बदल जाने के सत्य को एक प्रसिद्ध आख्यान से जोड़ता है। मान्यता है कि जब राम ने लंका पर चढ़ाई करने का फैसला किया और समुद्र ने उनकी सेना को रास्ता देने से इनकार कर दिया तो क्रोधित होकर उन्होंने समुद्र को सुखा देने के मकसद से तीर कमान पर चढ़ा लिया। इसके बाद समुद्र एक ब्राह्मण के वेश में राम के सम्मुख उपस्थित हुआ और उनसे आग्रह किया कि हर पदार्थ को प्रकृति ने एक प्रवृत्ति दी है, वह अपनी प्रवृत्ति को कैसे त्यागे? राम ने समुद्र का पक्ष समझा और राम सेतु बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ। लेकिन जो तीर तरकश से निकल चुका था, उसका क्या किया जाए? उन्होंने वही तीर इस दिशा में छोड़ा और टैथिस महासागर थार के मरुस्थल में बदल गया। कहते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण इसी रास्ते से अपने मित्र अर्जुन के साथ कुरुक्षेत्र से द्वारका जा रहे थे। रास्ते में उन्हें उत्तुंग नामक ऋषि तप करते मिले। कृष्ण ने ऋषि को प्रणाम निवेदन कर कोई वरदान मांगने को कहा तो ऋषि ने कहा- ‘मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। अगर मेरे कुछ पुण्य हैं तो इस क्षेत्र में कभी जल का अकाल न हो।’ और कृष्ण ने तथास्तु कह दिया।

पश्चिमी राजस्थान के लोग पानी की एक-एक बूंद सहेज कर रखते हैं। मानसून में बरसने वाली हर बूंद तालाबों, कुंओं, जोहड़ों, कुंडों, टांकों, बावड़ियों में सहेज ली जाती है। तालाब एक-दूसरे से शृंखलाबद्ध तरीके से जुड़े हैं, जिसके कारण उनके ओवरफ्लो हो जाने का खतरा नहीं होता। यह जल प्रबंधन की वह तकनीक है, जो मरुस्थल में भी जीवन की उम्मीदों को कुंभलाने नहीं देती। इसकी तुलना देश के उन हिस्सों से करें, जहां पुराने जलस्रोतों को पाट कर उन पर मकान या दुकान बना दिए गए हैं या पुराने जलस्रोतों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। स्थापत्य का सुंदर नमूना होने के बावजूद लगभग सभी प्राचीन शहरों में बावड़ियां अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाती मिल जाएंगी।

मानसून हमें एक अवसर देता है कि हम प्रकृति के वरदान स्वरूप आसमान से गिरने वाले पानी को धरती के आंचल में सहेज लें। हम अगर ऐसा कर सके तो कुछ वैज्ञानिकों की उस आशंका को टाल सकते हैं, जो कहते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए भी हो सकता है। कल्पना करिए कि दुनिया में तीन-चौथाई से अधिक हिस्से में पानी है, फिर भी सारा विश्व पानी के लिए एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुला हो। फिर क्यों न इस आशंका को चुनौती देने के लिए हम उस पानी को सहेजें, जिसे कुदरत की नेमत के रूप में बादल बारिश की ऋतु में बरसाते हैं।

बुद्ध के जीवन से जुड़ी अनेक कथाओं में एक रोचक कथा है। बुद्ध अपने परिव्रजन के दौरान नदी किनारे बसे किसी गांव में एक ग्वाले के यहां ठहरे। हर साल बरसात के दिनों में नदी में बाढ़ आती थी और जनजीवन अस्त-व्यस्त कर देती थी। लेकिन ग्वाले को कोई भय नहीं था। उसने बुद्ध से कहा कि उसने अपने घर के छप्पर को सही कर लिया है और चौमासे भर की जरूरत के लिए जरूरी सामान भी जुटा लिए हैं, इसलिए अगर गांव बाढ़ के पानी से घिर भी जाता है तो उसे चिंता नहीं है। बुद्ध ने कहा कि उन्होंने भी कर्म-कषायों की बारिश होने के पहले आत्मज्ञान का छप्पर सही कर लिया है और समय रहते मुक्ति का सामान इकट्ठा कर लिया है, इसलिए उन्हें भी जीवन के तट पर आने वाली काल की नदी की बाढ़ का कोई डर नहीं है। दोनों के संवाद से एक जरूरत रेखांकित होती ही है कि हमें जीवन के आसमान में मानसून के बादल घिरने से पहले उनके स्वागत की तैयारी जरूर कर लेनी चाहिए।

मानसून आ चुका है। शहर-गांव-कस्बे तर होने लगे हैं। अधिकतर शहरों में हालत यह है कि जरा-सी बारिश होने पर सड़कों पर बाढ़ जैसे हालात बन जाते हैं। इस वर्षा जल को हम सहेज कर पीढ़ियों की उम्मीदों को बचा सकते हैं। छतों पर बरसने वाला पानी अगर पाइपों के जरिए जमीन के अंदर उतारने की समुचित व्यवस्था कर दी जाए तो जमीन के हलक को तो हम तर करेंगे ही, जमीन हमारी पीढ़ियों के लिए अपने आंचल में पानी बचा लेगी। जमीन के अंतस में बचा पानी ही भविष्य की उम्मीदों को सींच सकेगा। पानी को बचाने के प्रति सामुदायिक चेतना और सामूहिक प्रयास जरूरी हैं वरना आने वाले दिन सचमुच बहुत कठिन होंगे। मानसून के दिनों में बादलों से गिरने वाला पानी अवसर देता है कि हम भविष्य की इस चुनौती का सामना करने के लिए अपने स्तर पर सार्थक बंदोबस्त कर सकें।

(अतुल कनक)