पवित्र जुम्मे का दिन कलंकित हुआ है। तेरह नवंबर 2015 को पेरिस में हुए आतंकी कत्लेआम से हम सब आहत हैं, साथ ही आईएस की बर्बरता गुस्सा भी दिला रही है। इसी वातावरण के बीच ‘पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन’ होना है। ऐसा लगता है कि तीस नवंबर से ग्यारह दिसंबर तक चलने वाला ‘पेरिस जलवायु-सम्मेलन’ निराशा, बेबसी और क्रोध में फंस सकता है। पर जरूरी यह है कि शांति और विवेक से आतंकी-बर्बरता का जवाब भी दिया जाए और जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों का सही जवाब भी खोजा जाए।
‘पेरिस जलवायु-सम्मेलन’ होकर रहेगा; यह घोषणा फ्रांस के राष्ट्रपति ने की है। फिर तो सम्मेलन के आयोजन को लेकर सवाल की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। इतनी खराब परिस्थितियों में पेरिस का जलवायु-सम्मेलन अपने आप कई मायनों में अहम होगा। दुनिया के दो सौ देशों के प्रतिनिधि सरकारी आयोजन में शामिल होंगे। समांतर चलने वाले गैर-सरकारी आयोजनों में पचास से सत्तर हजार लोग भागीदारी करेंगे। जलवायु-सम्मेलन की यह प्रक्रिया 1992 में ब्राजील के रियो में हुए ‘पृथ्वी सम्मेलन’ से शुरू हुई थी। इसी कड़ी में कोप-21वां ‘जलवायु-सम्मेलन’ पेरिस में होने वाला है।
पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन में उन उपायों पर विचार होगा, जिनसे ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को कम किया जा सके। अगर यह सम्मेलन विफल रहा और आम सहमति के साथ कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना, तो ऐसे में धरती का तापमान आने वाले कुछ दशकों में दो डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा बढ़ जाएगा। और यह बढ़े तापमान की वह अधिकतम सीमा है, जहां तक धरती जलवायु-परिवर्तन के असर को बर्दाश्त कर सकती है। इसके बाद तो विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं की अंतहीन शृंखला शुरू हो जाएगी।
कार्बन उत्सर्जन में कमी करने का दावा अगर विफल रहा तो उसके भयानक परिणाम होंगे, आशंकाओं से भी ज्यादा। कई देश पूरे डूबेंगे, कई देशों का काफी हिस्सा डूबेगा, मौसम की अस्थिरता भुखमरी के हालात बनाएगी। इससे भविष्य में न केवल जलवायु संबंधी परेशानियां होंगी बल्कि दुनिया भर में अस्थिरता, विद्रोह और युद्ध के खतरे खड़े होंगे। इस संदर्भ में ‘जलवायु-सम्मेलन: कोप-21’ को सिर्फ जलवायु-वार्ता के तौर पर न देखा जाए, बल्कि यह एक ‘शांति सम्मेलन’ भी है।
क्यों यह सम्मेलन अहम शांति सम्मेलन होगा, इसे समझने के लिए ग्लोबल वार्मिंग के होने वाले खतरों पर हालिया आईपीसीसी की रिपोर्ट को समझना होगा। 2014 में आई रिपोर्ट कहती है कि अगर जलवायु परिवर्तन से समझदारी के साथ न निपटा गया तो अकाल, भयंकर तूफान, गर्म हवाएं, फसलों का नुकसान और समुद्रों में तूफान आएगा, जो तबाही और मौत पसारता रहेगा। रिपोर्ट यहां तक कहती है कि ग्लोबल वार्मिंग के घातक सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भी हो सकते हैं जिनमें आर्थिक मंदी, राज्यों का खात्मा, गृहयुद्ध, बड़े पैमाने पर पलायन और अंत में आगे चल कर संसाधनों के लिए युद्ध भी शामिल है। आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार शायद इन सबके चलते तुरंत सशस्त्र युद्ध जैसी स्थिति भले न हो, लेकिन मौजूदा गरीबी-भुखमरी, संसाधनों की कमी, सरकारों का नाकारापन और भ्रष्टाचार तथा जातिगत-धार्मिक असहिष्णुता जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ मिल जाएंगे, तब लोग खाद्य, जल-जमीन और जीने की अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए और भयानक संघर्ष करेंगे। सीरिया, लीबिया आदि कई देशों में यही हो रहा है।
ऐसे युद्ध हवा में नहीं होंगे। पहले से मौजूदा समस्याएं और तकलीफें जब चरम सीमा पर पहुंचेंगी, तब कोई अपने उत्तेजक भाषणों से गलत दिशा देगा और हिंसा से समाधान की बात करेगा। जलवायु परिवर्तन बहुत-से ऐसे कुदरती संसाधनों को कम या खत्म कर देगा जिन पर पहले से ही दबाव है।
ऐसे ही संकट का एक उदाहरण है सीरिया गृहयुद्ध। इन झगड़ों से बड़ी संख्या में शरणार्थी पैदा हुए हैं, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से कभी नहीं हुए थे। 2006 से 2010 के बीच सीरिया में जो भयंकर सूखा पड़ा, उसके लिए जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार था, जिससे देश का लगभग साठ फीसद हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। फसलें बर्बाद हो गई हैं, मवेशी मर गए हैं और लाखों किसान भुखमरी के शिकार हुए हैं। विवश होकर वे सीरियाई शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में गए, जहां उन्हें वापस लौटने को धकेला गया।
अंतत: सीरिया गृहयुद्ध का शिकार हो गया, जिसमें अब तक दो लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और चालीस लाख से ज्यादा लोग शरणार्थियों के रूप में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। जलवायु संकट अब राजनैतिक संकट बन चुका है। अगर सीरिया की सरकार ने बेघर हुए लोगों के लिए आपातकालीन नौकरियां और आवास सुविधाएं मुहैया करवाई होतीं तो शायद संघर्षों को टाला जा सकता था। इसके उलट उसने रसद-पानी और र्इंधन पर दी गई सबसिडी में कटौती करके बेघर हुए लोगों के दुखों को बढ़ा दिया, जिसने गुस्से की आग को भड़काया ही।
अफ्रीकी दक्षिणी छोर के साहेल क्षेत्र का मंजर भी कुछ ऐसा ही है, सहारा का दक्षिणी छोर जहां भयंकर अकाल तो पड़ा ही, साथ ही भड़की सशस्त्र हिंसा की सरकार द्वारा अनदेखी किए जाने से आम लोग पलायन कर गए। हालांकि इस इलाके में पहले भी ऐसी घटनाएं और आपदाएं आती रही हैं, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से अकाल जल्दी-जल्दी पड़ने लगा है। साहेल में अकाल पहले दस साल पर आता था, फिर पांच साल पर, लेकिन अब तो एक-दो साल के अंतर पर ही आ जाता है। इसकी वजह से पहले से ही गरमी और सूखे की मार झेल रहे लोगों की स्थिति बदतर होती जाती है।
सीरिया को भविष्य में होने वाली घटनाओं की शुरुआत के रूप में देखें क्योंकि आगे चल कर ये बड़े पैमाने पर होने वाली हैं। हालांकि शक्तिशाली और धनी सरकारें इन चुनौतियों से निपटने में ज्यादा समर्थ होंगी, पर गरीब और कमजोर देश ‘असफल राज्य’ (फेल्ट स्टेट) में बदलेंगे, जैसे आज लीबिया, सीरिया और यमन हैं। कुछ लोग ऐसे हालात में वहीं रह कर जिंदगी की जंग लड़ेंगे, कुछ पलायन कर जाएंगे; और पलायन कर गए शरणार्थियों के साथ किस तरह का दुश्मनी और उपेक्षा का व्यवहार होता है यह किसी से छिपा नहीं है। इस सब की परिणति संसाधनों को लेकर एक वैश्विक गृह-युद्ध के रूप में होगी।
इनमें से ज्यादातर गृह-युद्ध आपसी लड़ाई के रूप में दिखाई देंगे- एक नस्ल के लोग दूसरी नस्ल के साथ तो एक जाति दूसरी जाति के साथ। पर इनमें से कई लड़ाइयों का कारण जलवायु-परिवर्तन के चलते धरती पर घटते संसाधनों का मामला होगा। ऐसे में युद्ध केवल घरेलू नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी होंगे। विशेषकर पानी के लिए देशों के बीच संभावित युद्धों की आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सिंधु सहित कई नदियों के पानी को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा-विवाद से भी आगे जल-विवाद आ चुका है।
जल-युद्ध के खतरे तब और आएंगे, जब दो या दो से ज्यादा देश एक ही जल-स्रोत पर निर्भर होंगे, जैसे- नील, जॉर्डन, यूफ्रेट्स, सिंध, मीकोंग जैसी दूसरी अंतरराष्ट्रीय नदियां। इनसे जुड़े देशों में से कोई एक जब हिस्से से ज्यादा पानी लेने की जिद पर अड़ेगा तो यही रवैया युद्ध को हवा देगा। इन नदियों पर बांध बना कर पानी का रास्ता बदलने की बार-बार कोशिश करना युद्ध को दावत देने वाली बात है। ऐसा उदाहरण हमारे सामने है जब तुर्की और सीरिया ने यूफ्रेट्स पर बांध बना कर पानी का रास्ता बदल कर निचले हिस्सों में पानी जाने से रोक दिया।
ब्रह्मपुत्र नदी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यह चीन से निकलती है जहां इसका नाम ‘यारलुंग सांगपो’ है और हिंद महासागर में गिरने से पहले यह भारत और बांग्लादेश से गुजरती है। चीन ने पहले ही इस नदी पर एक बांध बना रखा है और नए बांध बनाने की योजना बना रहा है जिससे भारत में बहुत-सी समस्याएं खड़ी होंगी। क्योंकि ब्रह्मपुत्र के पानी से भारत में एक बड़े हिस्से में सिंचाई की जाती है। हालांकि चीन यही कह रहा है कि इस योजना को अभी अमली जामा नहीं पहनाया जाएगा, लेकिन भविष्य में बढ़ते हुए तापमान और अकालों के मद्देनजर ऐसा कदम उठाया जा सकता है। सुधा रामचंद्रन ने ‘द डिप्लोमेट’ में लिखा है, ‘‘चीन के बांध बना कर ब्रह्मपुत्र के पानी का रास्ता बदल देने से निचले भागों में केवल जल प्रवाह, खेती, जीवन और आजीविका के ही संकट नहीं खड़े होंगे बल्कि यह भारत-चीन संबंधों में दरार का कारण भी बन सकता है।’’
जल-युद्धों के खतरों को रोकने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है, जैसे जल-प्रबंधन की विभिन्न योजनाओं को अपनाना आदि ऐसे तरीके जिनसे कम पानी में ज्यादा काम संभव हो सके। लेकिन इन सबसे भी बढ़ कर भविष्य में जलवायु संबंधी संघर्षों को रोकने के लिए जरूरी है ‘वैश्विक तापमान में कमी करना’। पेरिस के जलवायु-सम्मेलन में आने वाले विभिन्न देशों के प्रतिनिधि अगर तापमान में दो डिग्री से भी ज्यादा कटौती करने का कुछ सटीक रास्ता सुझा पाए तो भविष्य में उसी के मुताबिक हिंसा के खतरे भी कम होंगे। तापमान में हर छोटी-से-छोटी कटौती का बड़ा मतलब होगा, क्योंकि इससे आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन की वजह से संसाधनों के लिए होने वाले युद्धों को टाला जा सकेगा। यही वजह है कि पेरिस के जलवायु-सम्मेलन को शांति-सम्मेलन के रूप में देखा जाना चाहिए। (केसर)