सुशील कुमार सिंह

उद्यमिता एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसमें रोजगार के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास और जीवन सम्मान का संदर्भ भी निहित है। आमतौर पर उद्यमिता का तात्पर्य किसी उद्यमी के उस क्रियाकलाप से लगाया जाता है, जो जोखिम उठा कर लाभ कमाने के इरादे से कोई गतिविधि करता है। व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो स्वदेशी उद्यमिता सतत और समावेशी विकास के दायरे से बाहर नहीं है।

महात्मा गांधी ने औपनिवेशिक काल के दिनों में जो सपने बुने थे, उनमें ग्राम स्वराज और सर्वोदय के अलावा स्वदेशी भी था। स्वदेशी का सीधा सरोकार बिना स्वदेशी उद्यमिता से फलित नहीं हो सकता था। भारत गांवों का देश है। ऐसे में ग्राम उदय से भारत उदय की संकल्पना अतार्किक नहीं है। कृषि की दृष्टि से स्वदेशी उद्यमिता भी बहुतायत में है।

वर्ष 2013 से 2017 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर कृषि आधारित नवाचारी उद्योगों की संख्या तीन सौ छियासठ थी। इन उद्योगों को स्टार्टअप इंडिया, अटल इनोवेशन मिशन, न्यूजेन मिशन और उद्यमिता विकास केंद्र व लघु कृषक एग्री बिजनेस संघ जैसी योजनाओं सहयोग भी मिला था। आज कृषि से जुड़े नवाचारी उद्योगों की संख्या साढ़े चार सौ के पार निकल चुकी है। जाहिर है ये उद्योग कहीं न कहीं उद्यमिता को एक नया आयाम दे रहे हैं और कृषि उत्पादों को स्वदेशी विनिर्माण के साथ बड़ा बाजार भी प्रदान कर रहे हैं।

किसानों की आय बढ़ाने और युवाओं को रोजगार प्रदान करने के लिए कृषि क्षेत्र के नवाचारी उद्योगों को प्रोत्साहित करने वाली सरकार की हालिया नीति भी कुछ इसी प्रकार का संदर्भ लिए हुए है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत नवाचार और कृषि उद्यमिता विकास कार्यक्रम को अपनाया गया है जिसमें एक सौ बारह कृषि उद्योगों को एक हजार एक सौ छियासी लाख रुपए देने की बात है। आजादी के बाद बहुत कुछ बदला है। उद्यमों के स्वरूप भी बदले हैं। नए-नए प्रयोग भी हुए हैं।

स्वदेशी उद्यमिता एक ऐसा विचार और व्यवहार है जो आर्थिक रूप से बहुत सशक्त तो नहीं, मगर देशीयकरण में बहुत उपजाऊ है। कोविड-19 के बुरे दौर में स्वदेशी उत्पाद और स्वदेशी उद्यम दोनों का फलक पर होना स्वाभाविक हो गया। गांव में डेरी उद्योग से लेकर तमाम कच्चे माल को परिष्कृत कर बाजार में उपलब्ध कराना और आत्मनिर्भर भारत की कसौटी पर खरे उतरने की परिकल्पना में कदमताल करना स्वदेशी उद्यमिता का ही परिचायक है।

विश्व बैंक ने वर्षों पहले कहा था कि यदि भारत की महिलाएं रोजगार और उद्यम के मामले में सक्रिय हो जाएं तो देश की जीडीपी में चार फीसद से ज्यादा की बढ़ोत्तरी तय है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि स्वदेशी उद्यम रोजगार को आसमान तो देते ही हैं, आत्मनिर्भरता को भी ऊंचाई देने में कामयाब हैं। गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने लोकल के लिए वोकल बनाने का जो नारा महामारी के दौर में दिया है, वह कहीं न कहीं स्वदेशी उद्यमिता की अवधारणा को और प्रखर करता है।

गौरतलब है कि औपनिवेशिक सत्ता के दिनों में स्वदेशी आंदोलन भी एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ भारत में स्थान लेते रहे थे। स्वदेशी वस्तुओं का निर्माण व उपयोग का क्रम इन्हीं दिनों अंग्रेजी सत्ता विरोध का एक बड़ा कारण भी था। स्वराज आंदोलन और स्वदेशी उद्यम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे हथियार थे जिनसे जन-जन को भागीदारी के लिए उकसाना हद तक सहज था।

इतिहास को उकेरा जाए तो आर्थिक स्वदेशी का विचार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आया था। उन दिनों औपनिवेशिक सत्ता द्वारा लगातार किए जा रहे आर्थिक शोषण के बारे में परिचित होने का मौका यहीं से मिला था। स्वाधीनता की लड़ाई में स्वदेशी उद्यमिता एक ऐसा उपकरण था जो न केवल जरूरतों की पूर्ति हेतु, बल्कि भारतीय समाज में भी बदलाव की दरकार लिए हुए था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद बड़ी संख्या में भारतीय कारोबारियों ने व्यापार के बजाय निर्माण कार्य करना शुरू कर दिया था। इस समय तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में महात्मा गांधी का प्रवेश हो चुका था।

गांधी के अहिंसा के सिद्धांत तथा ट्रस्टीशिप के उनके विचार ने नामी भारतीय कारोबारियों पर गहरा प्रभाव डाला। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तक भारत ने स्वदेशी उद्यमिता का एक ऐसा स्वावलंबन विकसित कर लिया था जो अपने आप में आत्मनिर्भरता का परिचायक था। स्वतंत्रता के पश्चात ग्रामीण विकास को स्वावलंबन देने के लिए दो अक्तूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम शुरू किया गया था। हालांकि सामुदायिक विकास कार्यक्रम विफल हो गया था और इसी की असफलता पंचायती राज व्यवस्था का प्रस्फुटन था।

उद्यम एक ऐसा विचार है जो जोखिम और मुनाफे का मिला-जुला रूप है। वर्तमान में जब सरकारी नौकरियां संकुचित हो रही हैं तो उद्यम को अपनाना एक आवश्यकता बनती जा रही है। हालांकि भारतीय युवाओं के मानस पटल के केंद्र में सरकारी नौकरी होती है उद्यम नहीं। मगर तकनीकी विकास के इस दौर में अब चौतरफा संभावनाएं खुली हुई हैं, जिसमें एक स्वदेशी उद्यमिता है जो लघु, मध्यम और कुटीर किसी भी रूप में विकसित की जा सकती है। भारतीय उद्यम का ढांचा अब भी बड़े पैमाने पर पारंपरिक है। जाहिर है, इसमें बदलाव की बयार लानी जरूरी है।

उद्यमिता एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें रोजगार के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास और जीवन सम्मान का संदर्भ भी निहित है। आमतौर पर उद्यमिता का तात्पर्य किसी उद्यमी के उस क्रियाकलाप से देखा जाता है जो कमोबेश जोखिम उठा कर लाभ कमाने के इरादे से कोई गतिविधि करता है। व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो स्वदेशी उद्यमिता सतत और समावेशी विकास के दायरे से बाहर नहीं है। भारत में अधिकतर उद्यमों के लिए सतत विकास एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है। गौरतलब है कि अब उद्यमों की तैयारी संयुक्त राष्ट्र के 2030 के एजेंडे के हिसाब से करनी होगी।

‘भारत गांवों का देश है और इसकी आत्मा गांव में निवास करती है’, महात्मा गांधी का यह कथन मौजूदा समय में उतना ही प्रासंगिक है जैसा कि पहले था। ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज बेरोजगारी का सामना कर रहा है। कोरोना के दौर में तो स्थिति बेपटरी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) ने स्पष्ट कर दिया है कि 2022 में वैश्विक बेरोजगारी इक्कीस करोड़ होने का अनुमान है। इस मामले में भारत की स्थिति तो और खराब है। हकीकत यह है कि बेरोजगारी अपने रेकार्ड स्तर को पहले ही पार कर चुकी है। ऐसे में छोटे उद्यमों का सहारा ही संकटों से निकालने में मददगार हो सकता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) के एक अनुमान से पता चलता है कि साल 2030 में खाद्यान्न की मांग बढ़ कर करीब पैंतीस करोड़ टन हो जाएगी। इस हिसाब से प्रतिवर्ष उत्पादन दर मौजूदा समय की तुलना में पचपन टन बढ़ानी होगी। भारतीय कृषि कौशल परिषद का निर्माण वर्ष 2013 में कृषि और कृषि से संबंधित क्षेत्रों में कौशल और उद्यमिता विकास के लिए किया गया था।

देश में खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन, डेरी, मुर्गीपालन सहित अनेक कृषि संबंधित क्षेत्रों से इसका सरोकार था। भारतीय कृषि कौशल परिषद देश भर में दस लाख प्रशिक्षार्थियों को प्रशिक्षण दे चुका है। भारत में मेक इन इंडिया भी स्वदेशी उद्यम का ही एक उदाहरण कहा जा सकता है। कृषि वानिकी, कृषि पर्यटन, वाणिज्यिक स्तर पर विविधीकरण से युक्त खेती-बाड़ी कहीं-न-कहीं कृषि उद्यम के क्षेत्र में बढ़त लिए हुए है।

स्वदेशी उद्यमिता का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है। मगर समय के साथ इसे व्यापक रूप देना अभी बाकी है। देश आजादी की पचहत्तर वीं सालगिरह मना रहा है। कोरोना का भारतीय टीकाकरण स्वदेशी उद्यम का ही प्रारूप है। हालांकि इस मामले में अभी पूरी तरह आत्मनिर्भर होने की बात कहना कठिन है। आजादी के अमृत महोत्सव का वास्तविक उद्देश्य प्रत्येक राज्य और प्रत्येक क्षेत्र में इसके इतिहास को संरक्षित करना है ताकि भावी पीढ़ियों को प्रेरणा मिल सके। स्वदेशी उद्यम को भी ऐसी ही विरासत की श्रेणी में रखना लाजिमी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश को सशक्त, समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने के लिए सुशासनिक कदम के साथ बेहतरीन स्वदेशी उद्यमिता को व्यापक स्थान देना ही होगा।