ब्रह्मदीप अलूने

सत्ता हाथ से जाने के बाद इमरान खान पिछले कई महीनों से सत्तारूढ़ दल और सेना के खिलाफ हमलावर रहे हैं तथा रैलियों और जलसों में शहबाज शरीफ की सरकार को खरीद-फरोख्त की सरकार बताते रहे हैं। उन्हें अभूतपूर्व जनसमर्थन भी मिल रहा है, लेकिन सेना और आइएसआइ इमरान खान की बढ़ती लोकप्रियता से आशंकित हैं।

पाकिस्तान एक राष्ट्र के तौर पर लोकतंत्र की मूल मान्यताओं से बहुत दूर नजर आता है। लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक यात्राओं को सत्ता प्राप्ति का साधन माना जाता है, लेकिन वहां ऐसा बिल्कुल नहीं है। पाकिस्तान में सत्ता के विरोध में जनता को लामबंद करने के लिए ‘लांग मार्च’ की परंपरा बहुत पुरानी है, हालांकि यह लोकतंत्र की मजबूती का कारण कभी नहीं बन पाई। वहां चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों को बर्खास्त करने के लिए सेना ने विपक्षी दलों से मिल कर कई बार इन्हीं ‘लांग मार्च’ को मजबूत किया। देश में अशांति का माहौल बनाने में मदद की और फिर सुरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री को अपदस्थ करके सैन्य सरकार की स्थापना कर दी।

एक बार फिर पाकिस्तान उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। तहरीक-ए-इंसाफ के नेता इमरान खान के नेतृत्व में ‘लांग मार्च’ का कारवां पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में समाप्त होता, उसके ठीक पहले उन पर हमला हो गया। यह लोकतंत्र को खत्म करने की सुनियोजित कोशिश का हिस्सा दिखाई देता है। इमरान खान को ‘लांग मार्च’ में जिस प्रकार अभूतपूर्व समर्थन मिला है, वह न तो पाकिस्तान की सेना के लिए सुखद संकेत माना गया और न ही सत्तारूढ़ पार्टी के लिए। इमरान खान देश में तुरंत आम चुनाव चाहते हैं और यह स्थिति उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को स्वीकार नहीं है।

इमरान खान जिस सेना की शह पर 2018 में प्रधानमंत्री बने थे, वही सेना उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी बन गई है। क्रिकेट के मैदान में आक्रामक तेवर के लिए मशहूर रहे इमरान खान राजनीतिक मैदान को आक्रामकता से जीत लेना चाहते हैं, पर उनकी यह कोशिश कामयाब होती दिख नहीं रही है। वे अपने भाषणों में देश की विदेश और गृह नीति की स्वतंत्रता की बात कह रहे हैं, लेकिन सेना के प्रभाव वाले इस इस्लामी देश में यह न तो सिद्धांत रूप में संभव है और न ही व्यवहार में।

इस साल रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले की शुरुआत में बतौर प्रधानमंत्री इमरान खान की रूस यात्रा और पुतिन से मुलाकात पाकिस्तान की सैन्य रणनीति के उलट मानी गई। अमेरिकी प्रभाव वाले इस देश में इमरान खान की रूस के करीबी दिखने की कोशिश को सेना ने चुनौती की तरह लिया और उसने विपक्षी दलों से हाथ मिलाकर उनको प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।

पाकिस्तान में हर सरकार अमेरिका से बेहतर संबंध बनाए रखती है। पाकिस्तानी सेना के पास अधिकांश अत्याधुनिक हथियार अमेरिका के ही हैं। 1979 में अफगानिस्तान में तत्कालीन सोवियत संघ के सैन्य हस्तक्षेप के बीच पाकिस्तान और अमेरिका के सैन्य और कूटनीतिक संबंधों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी। बाद में इसके व्यापक वैश्विक प्रभाव पड़े। अफगानिस्तान में मुजाहिदीन की सेना, तालिबान का जन्म और सोवियत संघ का विभाजन इन्हीं स्थितियों का परिणाम माना जाता है। अमेरिका की शह पर पाकिस्तान ने आतंकी केंद्र बनाए और अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना को बाहर निकालने के लिए जिहाद को राजनीतिक हथियार बनाया।

इमरान खान का रूस को समर्थन, उनकी अपरिपक्वता और पाकिस्तानी सैन्य हितों के विपरीत माना गया। इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में भारी उथल-पुथल हुई और सत्ता उनके हाथ से जाती रही। देश के नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो बने। सत्ता हाथ से जाने के बाद इमरान खान पिछले कई महीनों से सत्तारूढ़ दल और सेना के खिलाफ हमलावर रहे हैं तथा रैलियों और जलसों में शहबाज शरीफ की सरकार को खरीद-फरोख्त की सरकार बताते रहे हैं। उन्हें अभूतपूर्व जनसमर्थन भी मिल रहा है, लेकिन सेना और आइएसआइ इमरान खान की बढ़ती लोकप्रियता से आशंकित हैं।

लगभग डेढ़ दशक पहले पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो ने भी कुछ ऐसा ही साहस दिखाने की कोशिश की थी, जिसका परिणाम उनकी हत्या के रूप में सामने आया। इस घटना के दस साल बाद यानी 2017 में पाकिस्तान की ‘एंटी टेररिज्म कोर्ट’ ने बेनजीर भुट्टो हत्याकांड में पूर्व राष्ट्रपति और तानाशाह परवेज मुशर्रफ की संलिप्तता पर मुहर लगाते हुए उन्हें भगोड़ा करार दिया और उनकी संपत्ति जब्त करने के आदेश दिए थे।

पाकिस्तान में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बीच नेताओं को देश निकाला या चुनाव लड़ने से अयोग्य करार दिया जाना व्यवहार में रहा है। बेनजीर भुट्टो को भी यही झेलना पड़ा था। 2007 में जब उन्होंने पाकिस्तान की सरजमीं पर कदम रखा तो लगभग तीस लाख लोगों की भीड़ उनके स्वागत में उमड़ पड़ी। इस बात से पाकिस्तान का सैन्य शासन बेहद डरा हुआ था। इसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। इससे यह भी साफ हो गया कि पाकिस्तान की सेना देश में अपनी बादशाहत बरकरार रखने के लिए सर्वोच्च स्तर के लोकतांत्रिक नेताओं का कत्लेआम करने से भी गुरेज नहीं करती।

गौरतलब है कि पाकिस्तानी सेना ने इस मुल्क के अस्तित्व में आने के बाद आधे से ज्यादा समय तक तानाशाही के जरिए सीधा राज किया है और वह किसी भी कीमत पर देश की सत्ता को अपने शिकंजे में रखती है। उसे देश में लोकतंत्र के प्रति बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है। यही कारण है कि पाकिस्तान में कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। जब भी किसी प्रधानमंत्री ने अपने लोक लुभावन कामों से जनता का दिल जीतने की कोशिश की, वह सेना को कभी रास नहीं आया। इस प्रकार पाकिस्तान में लोकतंत्र को खत्म करने के लिए सेना न्यायपालिका के साथ मिलकर साजिशों को अंजाम देती है।

पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता और सेना के प्रभाव को अमेरिका का समर्थन मिलता रहा है। अमेरिका ने पाकिस्तान की सैन्य तानाशाही को प्रश्रय देते हुए अय्यूब खान, जनरल याह्या खान, जनरल जिया-उल-हक और जनरल परवेज मुशर्रफ को भरपूर समर्थन दिया। सेना ने अमेरिका की आर्थिक मदद को देश के विकास से ज्यादा सैन्य सुविधाओं के लिए खर्च किए। पाकिस्तान के विभिन्न व्यवसायों में सैन्य अधिकारियों की बड़ी भागीदारी और निजी हित रहे हैं।

वहां की आम जनता महंगाई से भले त्रस्त हो, लेकिन सैनिकों की सुविधाओं से कभी समझौता नहीं किया गया। सरकारें सेना के दबाव में ही देश का आर्थिक बजट तय करती हैं। वहां सेना और आइएसआइ की आलोचना को अपराध माना जाता है। इमरान खान इस स्थिति को जानते हैं, फिर भी सत्ता में लौटने के लिए विरोध को अपना हथियार बना रहे हैं। पाकिस्तान का लोकतंत्र, सेना और धार्मिक समूहों के संगठित हितों के जाल में इस कदर उलझा हुआ है कि उनका उन्मुक्त होकर काम करना नामुमकिन है।

इमरान खान देश में व्यवस्थागत परिवर्तन चाहते हैं, जिसमें देश की आंतरिक और विदेश नीति पर सरकार का नियंत्रण हो। वे पूर्व सरकारों के शीर्ष नेताओं की अकूत संपत्ति को लेकर भी हमलावर रहे हैं। पाकिस्तान को अमेरिका का सैन्य अड्डा बने रहने का खुला विरोध करते रहे हैं। मगर वे यह सोचते हैं कि जन समर्थन के बूते वे देश में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में कामयाब हो जाएंगे तो सेना के प्रभाव के चलते यह मुमकिन नहीं दिखाई देता।

विद्रोही तेवर के चलते ही उन पर कई प्रतिबंध लाद दिए गए हैं, जिससे वे देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सके। इमरान खान की छवि अमेरिका विरोधी होने से उनका सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना खासा मुश्किल है और सेना इसे पसंद भी नहीं करेगी। इमरान खान पर जानलेवा हमले के बाद पाकिस्तान में आंतरिक सुरक्षा का संकट फिर गहरा गया है। ऐसे समय का ही इंतजार सेना को होता है। पाकिस्तान की यह राजनीतिक अस्थिरता सैन्य शासन का एक और अवसर लेकर आई है।