सुरेश सेठ
कैसे हो साधारण आदमी की तरक्की? उसको अनुकंपा की दिलासा बंद कीजिए। भूख से न मरने की गारंटी तो उसे दे दी गई, लेकिन कब उसे रोजी-रोजगार और सम्मानजनक जीवन जीने की गारंटी दी जाएगी। बेशक आज कहा जा रहा है कि उन्हें रोजगार मांगने वाले से रोजगार देने वाला बनाया जाएगा। मगर नवउद्यम तभी चलेंगे, जब उनमें साधारण आदमी को अपने लिए कुछ बचता नजर आए।
आजादी के समय घोषित समतावादी समाज कब स्थापित हो सकेगी
देश की तरक्की औसत आदमी के वृत्त से बाहर क्यों? देश के लिए चमकती चुंधियाती खबरें आती हैं, तो देश के भाग्यनियंता अपनी उपलब्धियों पर गर्वित हो जाते हैं। अगर मुड़ कर देखें तो पाते हैं कि जब यह देश आजाद हुआ और देश की व्यवस्था लोकतांत्रिक बनी, तो इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हुए घोषणा की गई थी कि इस देश में अमीर और गरीब का भेदभाव मिटा दिया जाएगा। एक समतावादी समाज की स्थापना होगी। नेताओं से उम्मीद रखी गई थी कि वे केवल चंद धनकुबेरों का सहयोग न करें, बल्कि देश के असंख्य गरीबों को रोजी-रोजगार देने का अपना वादा पूरा करें। तब योजनाबद्ध आर्थिक विकास की घोषणा हुई थी।
बारह पंचवर्षीय योजनाओं में भी लक्ष्य पूरे नहीं हो सके
बारह पंचवर्षीय योजनाओं में इस पर काम हुआ, पर वे अपने लक्ष्यों को पूरी नहीं कर पाईं। मगर तब भी यही कहा गया कि देश तरक्की की राह पर है। गरीब आदमी राहत की सांस ले रहा है और यह सब उसके वोट बैंक की सहायता से हुआ है। नेताओं का यही स्वर था कि इस देश में हर युवक को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार मिलेगा। स्त्रियों को समानाधिकार और उनके सशक्तिकरण में वृद्धि होगी, वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चलेंगी।
इस समतावादी समाज में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत हो जाएगा, जिसमें बिना किसी मार-काट के गरीब और अमीर के बीच भेदभाव खत्म हो जाएगा। महंगाई और चोरबाजारी खत्म होगी। भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता रहेगी। लोगों को सहज व्यापार और सहज प्रशासन मिलेगा। देश के भाग्यनियंता गरीब की बात पहले सुनेंगे और धनी की बात बाद में।
मिश्रित अर्थव्यवस्था की धारणा इसी की पुष्टि करती थी कि सार्वजनिक क्षेत्र साधारण जन का कल्याण करेगा और निजी क्षेत्र का प्रोत्साहन देश की आर्थिक गति बढ़ाएगा। मगर देखते ही देखते सब कुछ लालफीताशाही में घिरता नजर आया। घोषणाओं की सफलता को मिथ्या आंकड़ों का आडंबर सहारा देने लगा और धीरे-धीरे योजनाबद्ध आर्थिक विकास को त्याग कर एक उदार अर्थव्यवस्था बनाने की बात होने लगी, जिसमें यह धीमी गति से चलती हुई आर्थिकी त्वरित गति को प्राप्त कर सके। पिछले नौ सालों में सार्वजनिक निजी भागीदारी के नाम पर निजी क्षेत्र को ही अधिक प्रोत्साहन मिला है। इसके नतीजे सामने हैं।
भारत ने दुनिया में विकट आर्थिक स्थितियों में भी सबसे तेज विकास दर प्राप्त की
कहा जा रहा है कि भारत ने दुनिया में विकट आर्थिक स्थितियों का सामना करते हुए भी सबसे तेज आर्थिक विकास दर प्राप्त कर ली। आर्थिक विशारद कहते थे कि 2023 में दुनिया महाआर्थिक मंदी का सामना करने जा रही है, लेकिन भारतीयों ने इससे भी अपना बचाव कर लिया। कहा गया कि अगर फेडरल बैंक की नीतियों के बदलने के साथ ब्याज दरों में वृद्धि और महंगाई के प्रहार के बाद भारत का विदेशी निवेश भगोड़ा हो गया है, तो उसे निजी निवेश ने भर दिया है। अभी जो नतीजे सामने आए हैं, उन पर चाहें तो हम गर्व कर सकते हैं।
पहला नतीजा तो यह है कि भारत में नौ साल में प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गई है। 2014-15 की तुलना में देश में प्रति व्यक्ति आय दोगुनी होकर 1,72,000 पर पहुंच गई है। अगर मुद्रास्फीति को दरकिनार करके आय बढ़ने के स्थिर दाम पर वास्तविक मूल्य देखें तो यही पाते हैं कि इन वर्षों में यह 35 फीसद बढ़ गई है, यानी नौ वर्ष पहले जो 72,805 रुपए थी, वह आज 98,118 रुपए हो गई है।
कहा जाता है कि जितनी तेजी के साथ भारत डिजिटल हुआ है, उसका कोई सानी नहीं। जिस प्रकार भारत की मंडियों में लोगों की मांग एक विशेष वर्ग की मांग की तरह बढ़ी है, वह बताती है कि अपना देश पूर्णबंदी की मार से उबर आया है। हमारे देश के बीस प्रतिशत सबसे अमीर अधिक खरीदारी करने लगे हैं। चाहे मौद्रिक नीति कर्ज महंगे कर रही है, लग्जरी कारों की बिक्री पचास फीसद बढ़ गई है। महंगे स्मार्टफोन पचपन फीसद ज्यादा बिक रहे हैं। महंगी स्विस घड़ियों की बिक्री दो साल में 843 करोड़ रुपए से 1640 करोड़ रुपए हो गई और बड़े अल्ट्रा एचडी टीवी 2021 के मुकाबले पंचानबे प्रतिशत बढ़ गए। मगर यह हालत तो केवल बीस प्रतिशत की मांग बढ़ने के कारण पैदा हुई है।
पर यह औसत आय की धारणा बड़ा भ्रमजाल फैलाती है। एक ओर कहती है कि देश में प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गई, दूसरी ओर गरीब अपनी जेब खाली पाता है। तिस पर कम आय वालों की आय भी इन दो सालों में बढ़ी नहीं। जो औरतें काम से बेकार हो गईं, उनको दुबारा काम नहीं मिला और कोरोना महामारी के प्रकोप से डरते हुए औद्योगिक क्षेत्र के निस्पंद हो जाने के कारण जो जनसमुदाय महानगरों को छोड़ गांवों की ओर चला गया, वह अब वापस लौटने को तैयार नहीं।
वृद्धि के आंकड़े दिलासा देते हैं, लेकिन साथ ही यह भी बताते हैं कि यह वृद्धि केवल सेवा और पर्यटन क्षेत्र में हो रही है। निर्माण क्षेत्र में यह वृद्धि कम हो रही है। निर्यात बढ़े नहीं और देश आज भी आयात आधारित है। किसी भी उत्पादन के लिए उसे कच्च? माल विदेशों से मंगवाना पड़ता है। चीन के साथ तनातनी के बावजूद हमारे फार्मा उद्योग का अधिकांश कच्चा माल चीन से आता है। अब यह कहा जा रहा है कि इसके लिए जापान की ओर भी ध्यान दिया जाएगा।
दूसरी ओर, इस देश का सबसे बड़ा दर्द कच्चे तेल की कीमतें और प्राकृतिक गैस की कीमतों का लगातार ऊंचे स्तर पर स्थिर रहना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये कीमतें कम हुई हैं, लेकिन सरकारों ने अपने राजस्व और तेल कंपनियों ने आपदा काल में हुए घाटे की दुहाई देते हुए इन कीमतों को कम नहीं होने दिया। पिछले दिनों तो घरेलू गैस और व्यावसायिक गैस के सिलिंडरों की कीमतों में और वृद्धि हो गई। अपने ही देश में कच्चे तेल के कुएं खोदने वाला आयल एंड नेचुरल गैस कमीशन हताश है, क्योंकि हम इस मामले में तरक्की नहीं कर पाए और आज भी तेल के लिए विदेशों पर निर्भर हैं। विशेष रूप से आजकल रूस की ओर।
अगर यह स्थिति है तो बताइए, देश का आम आदमी किस प्रकार अपनी इस तरक्की पर गर्वित हो ले।रिटेल इंटेलिजेंस फर्म ‘विजोम’ बताती है कि छोटे शहरों में टुथपेस्ट, नूडल और हेयर आयल जैसे उत्पादों की बिक्री कम हो गई। ग्रामीण और अर्धशहरी बाजार 0.8 प्रतिशत गिर गया। दुपहिया वाहनों की बिक्री कम हो गई और छोटी कारों की बिक्री में इजाफा नाममात्र रहा। कम कीमत वाले स्मार्टफोनों की बिक्री में भी पंद्रह प्रतिशत कमी आ गई। तनिक गरीब घरों में उज्ज्वला योजना के गैस सिलिंडर की हालत देख लीजिए। अब उनकी सबसिडी 200 रुपए पर सिमट गई है। जो गैस सिलिंडर उनको अब मिल रहा है वह 900 रुपए से कम नहीं। यह तो तरक्की नहीं।
कैसे हो साधारण आदमी की तरक्की? उसको अनुकंपा की दिलासा बंद कीजिए। भूख से न मरने की गारंटी तो उसे दे दी गई, लेकिन कब उसे रोजी-रोजगार और सम्मानजनक जीवन जीने की गारंटी दी जाएगी। बेशक आज कहा जा रहा है कि उन्हें रोजगार मांगने वाले से रोजगार देने वाला बनाया जाएगा। मगर नवउद्यम तभी चलेंगे, जब उनमें साधारण आदमी को अपने लिए कुछ बचता नजर आए। अब इन सारी नीतियों पर पुनर्विचार करने और आम आदमी के कल्याण को केंद्र बिंदु बनाने का वक्त है, न कि औसत आय के बड़े-बड़े आंकड़ों से धीरज बंधाने का।