भारत का संविधान नागरिकों को राजनीतिक और सामाजिक समानता के साथ-साथ आर्थिक अवसरों की समानता का अधिकार भी देता है। पर इस समानता की ओर ले जाने वाली वित्तीय सेवाओं से अभी तक देश के एक बड़े तबके को वंचित ही रखा गया है। एक मोटे सरकारी अनुमान के मुताबिक साठ प्रतिशत ग्रामीण और शहरी जनता के पास अभी तक कोई बैंक खाता नहीं था और नब्बे प्रतिशत छोटे कारोबारी किसी भी प्रकार की सरकारी वित्तीय सेवा से जुड़े हुए नहीं थे। करीब तीस साल पहले जब मैं एक कचरा बीनने वाली का खाता खुलवाने बैंक मैनेजर के पास गई तो उसने मुझे चाय पिला कर रवाना कर दिया था।
मेरा यह समझाना किसी काम नहीं आया कि ‘वह आपको कुछ दे रही है, आपसे ले नहीं रही। इस बात से आपको क्या फर्क पड़ता है कि उसके घर का कोई स्थायी पता नहीं है। उसका पैसा तो आपके बैंक में है।’ पर आज वही कचरा बीनने वाली प्रधानमंत्री जन धन योजना में अपना खाता खुलवा सकती है। आधार कार्ड के बिना भी। नचिकेत मोर कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक 2016 तक देश की अधिकांश जनता का वित्तीय समावेशन कर लेने का लक्ष्य पूरा करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने अब ऐसे ही खाते खोलने के लिए भारतीय डाकघर और दस निजी बड़ी कंपनियों को इसकी अनुमति दी है। ये सभी भुगतान बैंक के रूप में काम करेंगे।
रिजर्व बैंक को यह कदम इसलिए उठाना पड़ा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक दूरदराज के गांवों तक पहुंच नहीं पा रहे थे। अगर पहुंचे भी तो आधारभूत ढांचे के अभाव में काम नहीं कर पा रहे थे। छोटे कारोबारियों और कम आय वर्ग को वित्तीय समावेश के दायरे में लाने के लिए मोर कमेटी ने भी इन बैंकों की सिफारिश की थी। जैसा कि नाम से ही जाहिर है, ये बैंक खाते खोल सकेंगे, खातों से पैसे का भुगतान कर सकेंगे, इसके लिए जरूरी एटीएम और डेबिट कार्ड जारी कर सकेंगे। पर इन्हें कर्ज देने का अधिकार नहीं होगा, इसलिए ये क्रेडिट कार्ड भी जारी नहीं कर सकेंगे। एक खाते में एक लाख रुपए से अधिक की राशि जमा नहीं की जा सकेगी।
आरबीआइ के इन दिशा-निर्देशों से दो बातें स्पष्ट हैं। एक, ये खाते कम आय वर्ग के लिए हैं। दूसरा, कर्ज का अधिकार न देकर केंद्रीय बैंक ने इस वर्ग के पैसे की सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश की है। कर्ज नहीं देने से बैंकों के एनपीए में जाने का खतरा नहीं रहेगा। पर सवाल उठता है कि अगर ये बैंक कर्ज नहीं देंगे तो इनकी आय का स्रोत क्या रहेगा? कमीशन।
खातेदारों से बतौर फीस ये कमीशन ले सकेंगे। भारतीय डाक विभाग की देश के सीमावर्ती गांवों तक पहुंच है और पैसे के लेन-देन का इतना-सा काम वह पहले से ही कर रहा है। इसलिए उसे भुगतान बैंक का दर्जा दिया जाना तो ठीक है, पर निजी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कंपनियां आखिर इस कम आय वर्ग वाले काम में क्यों आर्इं?
जवाब सीधा-सा है। देश का असंगठित क्षेत्र इतना बड़ा है और देश की अर्थव्यवस्था के विकास में उसका प्रमुख योगदान है। सरकारी बैंकों सेइस वर्ग को कर्ज न मिलने पर जिस तरह पूरे देश में अस्सी-नब्बे के दशक में निजी फाइनेंस कंपनियां कुकुरमुत्तों की तरह उभर आई थीं और नियमन के अभाव में उन्होंने जिस तरह मनमानी दरों पर लोगों से ब्याज वसूला उससे यह बात साफ हो गई थी कि आय भले ही कम हो, पर इस वर्ग की भी अपनी एक आर्थिक ताकत है। वित्तीय सेवाएं उसकी जरूरत हैं और कर्ज के मामले में वह संगठित क्षेत्र के मुकाबले कहीं ज्यादा भरोसेमंद है। जरूरत उसे अनधिकृत रूप सेबचत और कर्ज का काम कर रही एजेंसियों से बचाने की है।
इसीलिए यूपीए-दो की सरकार के समय आरबीआइ ने छोटे कारोबारियों और कम आयवर्ग के लोगों के वित्तीय समावेशन के लिए नचिकेत मोर समिति का गठन किया। समिति ने पिछले साल जनवरी में अपनी रिपोर्ट दी। जिन दस निजी कंपनियों को भुगतान बैंक खोलने का लाइसेंस मिला है वे हैं वोडाफोन-एम पैसा, भारती एअरटेल, आदित्य बिड़ला नुओ, रिलायंस इंडस्ट्रीज, टेक महेंद्रा, सन फार्मा, नेशनल सिक्योरिटीज डिपोजिटरी, पे टैम, फिनो पेटैम और चोलामंडलम डिस्ट्रीब्यूशन सर्विसेज। ये सभी अपने-अपने क्षेत्र की दिग्गज कंपनिया हैं और पहले से ही पैसे के लेन-देन का काम कर रही हैं। भुगतान बैंक के जरिए वे अपने काम का विस्तार चाहती हैं।
इन सभी की कोशिश होगी कि शहरों के साथ-साथ कस्बों और गांवों से भी ग्राहकों को अपनी ओर खींचा जाए। क्योंकि जितने ज्यादा ग्राहक होंगे उतनी ही ज्यादा रकम बैंकों के पास होगी, और उससे भी बड़ी बात, पैसे का लेन-देन बढ़ेगा। जितना लेन-देन होगा, कमीशन भी उसी हिसाब से बढ़ेगा। पर गांवों-कस्बों से ग्राहक खींचने के इस काम में केवल यही बैंक नहीं होंगे। आरबीआइ जल्द ही बंधन जैसे कई छोटे बैंकों को अगले कुछ समय में ही अनुमति देने जा रहा है। उसकी पूरी कोशिश है कि 2016 की पहली तिमाही तक देश के हर वयस्क नागरिक के पास कम से कम एक इलेक्ट्रॉनिक खाता हो जाए।
इसका सीधा-सा अर्थ है कि आने वाले समय में बैंकिंग क्षेत्र में ग्राहकों को खींचने के लिए गलाकाट प्रतियोगिता होगी। चूंकि यह काम एजेंटों के जरिए किया जाएगा, ऐसे में अपने लक्ष्य पूरे करने के लिए वे कितना झूठ-सच बोलेंगे इसका एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है। जीवन बीमा के क्षेत्र में जब एक साथ कई कंपनियां आ गर्इं और कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए एसबीआइ जैसा सरकारी बैंक भी उसमें उतर आया तो अपनी साख को भूल गया।
पालिसी का नाम शुभ निवेश रखा और एजेंटों ने ग्राहकों को उसे निवेश पालिसी बता कर बेच दिया, जबकि वह बीमा पालिसी थी। इरडा का बनाया जाना ही बताता है कि निजी कंपनियों के बीमा क्षेत्र में आ जाने से इसमें अनियमितताएं बढ़ीं और आम आदमी धोखे का शिकार हुआ। जब अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग इन वाणिज्यिक संस्थाओं की भाषा और खेल को नहीं समझ पाए तो गांव-कस्बे का अनपढ़ आदमी क्या समझ पाएगा! ऐसे में इनके कामकाज को लेकर कुछ सवाल उठना स्वाभाविक है।
पहली बात तो यही कि ये गांवों में कैसे पहुचेंगे और कैसे ग्राहकों को अपनी सेवाएं दे पाएंगे। कॉरपोरेट एजेंट और उसके बिजनेस कॉरस्पोंडेंट का प्रयोग गांवों में पहले ही नाकाम साबित हो चुका है। और उसके नाकाम होने का मुख्य कारण आधारभूत ढांचे का न होना था। न बिजली, न इंटरनेट, न मोबाइल या लेन-देन की मशीन को दुरुस्त करने वाले तकनीशियन।
ऐसे में तो कभी-कभी बीसी के लिए यह काम आ बैल मुझे मार वाला सबित हो जाता था। कमीशन मात्र तीन-चार हजार रुपए, और इधर खाताधारक कहे चोर, और उधर बैंक पूछे पैसा समय पर क्यों नहीं जमा कराया? उसकी मुसीबत यह कि जब मशीन ही बीच में रुक गई तो वह क्या करे। अगले दिन मीलों चल कर बैंक पहुंचा, पर वहां भी उसका कोई हमदर्द नहीं, क्योंकि उसे तो एक तीसरी ही कंपनी ने तैनात किया है। इस पूरे विवाद में मारा गया खाताधारक, क्योंकि पैसा तो उसी का फंसा।
जहां तक आधारभूत ढांचे की बात है, उसमें अभी तक कोई कारगर सुधार नहीं आया है। माना जा रहा है कि एअरटेल और वोडाफोन और महेंद्रा टैक जैसी कंपनियों का चयन किया ही इसलिए गया है कि वे इन सेवाओं में सुधार करेंगी। यह मान भी लिया जाए तो भी पहली जरूरत बिजली है। इन कंपनियों को भी अपने काम के लिए बिजली चाहिए।
वह राज्य सरकारों को ही देनी होगी। उसके अभाव में तो कुछ भी नहीं हो सकेगा। एटीएम के लिए तो चौबीसों घंटे बिजली चाहिए होगी। क्या हमारी राज्य सरकारें इसके लिए तैयार हैं? जहां तक इंटरनेट सेवाओं की बात है, यह मान भी लिया जाए कि कुछ कंपनियां अपने कारोबार के लिए छोटे शहरों में बेहतर मोबाइल कनेक्टीविटी और इंटरनेट सेवाओं के लिए कुछ पैसा खर्च करेंगी, तब भी हम यह कैसे भूल जाएं कि मुनाफा ही इनका एकमात्र लक्ष्य रहता है?
दिल्ली समेत हर बड़े-छोटे शहर में मोबाइल पर कॉल के बीच में कट जाने के लिए दोषी मोबाइल कंपनियां हैं यह बात खुद केंद्र सरकार को कितने सालों के बाद समझ आई है। अन्यथा अभी तक हम एक दूसरे को ही शक की निगाह से देखते रहते थे। ऐसे में ग्रामीण स्तर पर इन कंपनियों ने काम शुरू कर भी दिया तो नेटवर्क कब बोल जाएगा कौन जाने। दिल्ली में खुद सरकार ही परेशान हो उठी तो कुछ कहा भी गया, ग्रामीण की व्यथा कौन सुनेगा? क्या आरबीआइ विवादों के निपटारे के लिए जिला या ब्लाक स्तर पर निपटारा एजेंसियां बनाएगा?
मोबाइल कंपनियों के कस्टमर केयर सेंटर भी हर जगह नहीं होंगे। ऐसे में ग्राहक क्या करेगा? कहा जा रहा है कि इन बैंकों के आ जाने से मजदूर एक क्लिक में पैसा घर भेज सकेगा। बात सही है, पर हर कंपनी के आने वाले ढेरों मनी ट्रांसफर एप्स के बीच अगर एक भी क्लिक गलत हो गया और सारा वालेट खाली हो गया तो क्या होगा? क्या वित्तीय साक्षरता के लिए लगातार वैयक्तिक संपर्क आधारित अभियान भी चलाए जाएंगे? महिलाओं के लिए तो यह और भी जरूरी है।
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