परमजीत सिंह वोहरा

उनमें विभिन्न वैश्विक आर्थिक संस्थानों से बुनियादी ढांचे के लिए आर्थिक सहायता प्राप्त करना और आयात लागत को तुलनात्मक रूप से कम करने के लिए आर्थिक महाशक्तियों के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाना मुख्य उद्देश्य होने चाहिए। अगर यह संभव हो पाता है, तो भारत अपना विदेशी मुद्रा भंडार सदा सुरक्षित रखने में सक्षम हो पाएगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने सदा अवसरों की तुलना में चुनौतियां अधिक रही हैं। आजादी के बाद के पहले चार दशक तक अर्थव्यवस्था सरकारी नियंत्रण में थी और उसका मुख्य जोर कृषि क्षेत्र को विकसित करने और आधारभूत संरचना के विकास पर केंद्रित था। उस दौरान भी पड़ोसी देशों से युद्ध, अकाल के कारण खाद्यान्न की कमी आदि चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

फिर भी आर्थिक नीतियों में सदा पूर्वानुमान को प्राथमिकता देते हुए सर्वांगीण विकास को महत्त्व दिया गया। 1990 के आर्थिक सुधारों के बाद आर्थिक विकास में तेजी आई, जिसके चलते आर्थिक विकास के स्तर पर आज भारत विश्व के शीर्ष मुल्कों में पांचवें पायदान खड़ा है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था तकरीबन साढ़े तीन खरब अमेरिकी डालर के बराबर है।

हालांकि इन सबके बावजूद भारत के लिए आर्थिक चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं, जिनमें विशाल जनसंख्या के लिए रोजगार, महंगाई, गरीबी और अमीरी के बीच लगातार बढ़ती खाई, शिक्षा में गुणवत्ता का स्तर, ग्रामीण व्यक्ति के आर्थिक स्तर में प्रगति, असंगठित क्षेत्रों में संलग्न व्यक्तियों को आर्थिक सुरक्षा, छोटे उद्योगों में लागत तथा गुणवत्ता के स्तर पर अच्छी जानकारियों का अभाव आदि मुख्य हैं।

इन सबके बीच भारत को जी-20 देशों का नेतृत्व करना है। निश्चित रूप से यह एक ऐसा अवसर है, जिसे भारत आगामी एक वर्ष तक अपने आर्थिक दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अच्छे ढंग से नियोजित कर सकता है। अगर इसका क्रियान्वयन सकारात्मक रहा तो भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच खरब अमेरिकी डालर तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगेगा और भारत विश्व के तीन शीर्ष आर्थिक महाशक्तियों में शुमार हो जाएगा।

गौरतलब है कि जी-20 की स्थापना एशिया महाद्वीप में 1997-98 के दौरान शुरू हुए आर्थिक संकट से निपटने के लिए हुई थी। उस दौरान जब थाईलैंड ने अपनी मुद्रा को अमेरिकी डालर की तुलना में नियंत्रित करने की कोशिश की, तो उसके दुष्प्रभाव फिलीपींस, मलेशिया, दक्षिण कोरिया आदि देशों पर पड़े थे। तब एशिया महाद्वीप के आर्थिक संकट का बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को रोकने के लिए विश्व के सबसे बड़े आर्थिक संगठन जी-8 को विस्तार देकर जी-20 बनाया गया था।

आज के वर्तमान परिदृश्य में जी-20 के अंतर्गत सम्मिलित सभी देशों की अर्थव्यवस्था का वर्तमान स्तर पचहत्तर खरब अमेरिकी डालर है, जो लगभग वैश्विक जीडीपी का पचासी प्रतिशत है। इसके अलावा संपूर्ण विश्व के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में जी-20 में सम्मिलित देशों का योगदान पचहत्तर प्रतिशत है। यह इस बात को स्पष्ट करता है कि जी-20 में सम्मिलित सभी मुल्क आज के दौर की सभी वैश्विक आर्थिक नीतियों के ढांचे को निर्धारित करने के पीछे मुख्य भूमिका निभाते हैं।

जी-20 में शामिल मुल्कों में अमेरिका, चीन, जर्मनी, भारत और जापान की विश्व की आधी से अधिक आबादी निवास करती है। विश्व के बड़े आर्थिक संस्थान, जिनमें विश्व बैंक, आइएमएफ, संयुक्त राष्ट्र, डब्ल्यूटीओ आदि जी-20 के मुख्य भाग हैं, इसलिए यह एक बड़ी उपलब्धि है कि भारत ने जी-20 जैसे आर्थिक संगठन की कमान संभाली है।

इन दिनों वैश्विक स्तर पर आर्थिक अनिश्चितता है। इसके पीछे कोरोना महामारी के आर्थिक दुष्प्रभाव कारण हैं, तो वहीं पिछले ग्यारह महीनों से रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध भी एक मुख्य समस्या है। इसी वर्ष श्रीलंका का आर्थिक संकट भी पूरे विश्व ने देखा। फिर इस बात की भी सुगबुगाहट है कि अमेरिकी आर्थिक नीतियों के चलते वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी आने को है।

अमेरिकी फेड द्वारा जानबूझ कर लगातार की जा रही ब्याज दरों में बढ़ोतरी से तुलनात्मक रूप से अमेरिकी डालर वैश्विक स्तर पर मजबूत हो रहा है, जिसके चलते दूसरे देशों की मुद्रा पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। सभी मुल्कों में आयात महंगा होता जा रहा है, जिससे घरेलू स्तर पर महंगाई बढ़ रही है।

जिन विकासशील मुल्कों ने कई वैश्विक आर्थिक संस्थानों से कर्ज लिए हुए हैं, डालर की मजबूती उन्हें और अधिक ब्याज का भुगतान करने के लिए विवश कर रही है। रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल के मूल्य बढ़ गए हैं। उर्वरकों की आपूर्ति में कमी देखी जा रही है, जो कृषि क्षेत्र को प्रभावित कर रही है। इन सब आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए पूरा विश्व जी-20 से एक सकारात्मक सोच और नई नीतियों की अपेक्षा कर रहा है।

पिछले दिनों जब जी-20 का नेतृत्व मिला तो इस बात पर मंथन शुरू हो गया कि इसके माध्यम से भारत अपनी अर्थव्यवस्था को क्या-क्या अवसर उपलब्ध करा सकता है? भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने मुख्य चुनौतियों में कृषि क्षेत्र को उन्नत करना, बेरोजगारी का निवारण, आधारभूत संरचनाओं को वैश्विक स्तर का बनाना और निर्माण के क्षेत्र में भारत के उद्योग-धंधों को अधिक से अधिक वैश्विक अवसर उपलब्ध कराना मुख्य है।

यह भी स्पष्ट है कि आज भारत वैश्विक स्तर पर अपनी क्रय क्षमता के कारण एक बड़ी पहचान रखता है, पर अब भारत को आत्मनिर्भर बनने की भी अत्यंत आवश्यकता है। जी-20 समूह के अंतर्गत विश्व के चार अन्य राष्ट्र, जो भारत से बड़ी आर्थिक महाशक्तियां हैं, उनमें भारत की चीन पर आर्थिक निर्भरता तुलनात्मक रूप से काफी अधिक है। चीन के साथ भारत का आयात पचासी प्रतिशत के आसपास है, तो वहीं निर्यात तकरीबन दस से पंद्रह प्रतिशत के बीच है। चालू वित्त वर्ष में भारत का चीन से आयात तकरीबन नवासी अरब डालर का है, तो वहीं निर्यात सिर्फ चौदह अरब डालर है।

यह एक ऐसी चुनौती है, जिसका हल भारत को जल्दी तलाशना होगा और आगामी एक वर्ष में उसके माध्यम से विश्व की अन्य बड़ी महाशक्तियों को भारत के प्रति आकर्षित करना होगा अन्यथा अर्थव्यवस्था के वर्तमान आर्थिक स्तर को तेजी से बढ़ाना मुश्किल होता जाएगा। इसे इस तरह से भी लिया जा सकता है कि अगर भारत को विश्व की बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनना है, तो उसे सबसे पहले चीन के साथ आर्थिक लड़ाई में आत्मनिर्भरता की तरफ मुड़ना पड़ेगा और इसके लिए जी-20 समूह के दूसरे बड़े राष्ट्रों को आकर्षित करना एक विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में पिछले काफी समय से आधारभूत संरचना के विकास पर तेजी से काम हुआ है, जिसमें राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण सबसे शीर्ष पर है। इसके अलावा आर्थिक नीतियों की मुख्य प्राथमिकताओं में रेलवे का विकास और टेलीकाम क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन, ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता तथा समुद्री क्षेत्र का आधुनिकीकरण है।

इंटरनेट प्रौद्योगिकी में भी महानगरों में 5जी की शुरुआत हो चुकी है, जिससे निश्चित रूप से आने वाले समय में व्यावसायिक गतिविधियों में बहुत तेजी देखने को मिलेगी। हालांकि इन सबके बीच लगातार बढ़ रही आर्थिक विषमता भारत के सामने एक ऐसी आर्थिक चुनौती है, जो गरीबी उन्मूलन के लिए बहुत बड़ा संकट है। इन सब चुनौतियों के निवारण हेतु जी-20 का नेतृत्व करते हुए भारत को अपने लिए कुछ आर्थिक उद्देश्य निश्चित करने चाहिए।

उनमें विभिन्न वैश्विक आर्थिक संस्थानों से बुनियादी ढांचे के लिए आर्थिक सहायता प्राप्त करना और आयात लागत को तुलनात्मक रूप से कम करने के लिए आर्थिक महाशक्तियों के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाना मुख्य उद्देश्य हों। अगर यह संभव हो पाता है, तो भारत अपना विदेशी मुद्रा भंडार सदा सुरक्षित रखने में सक्षम हो पाएगा। विश्व की नामी-गिरामी कंपनियों को ‘मेक इन इंडिया’ के तहत एशिया महाद्वीप में चीन के बजाय भारतीय प्राथमिकता दिलाना भी मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।