सिद्धायनी जैन
इसका अर्थ है कि काल के प्रत्येक खंड में कुछ भी हो जाए, लेकिन ये तीर्थ बने रहेंगे। झारखंड सरकार इस स्थान को पर्यटन क्षेत्र के तौर पर विकसित करना चाहती है। तीर्थ क्षेत्र और पर्यटन क्षेत्र में प्रोत्साहित की जाने वाली प्रवृत्तियों में अंतर है।
इस समय सारे भारत का जैन समाज क्षुब्ध है। उद्वेलन और आक्रोश तो जैन जीवन संहिताओं में धर्म-साधकों के लिए वर्जित है, मगर किसी पवित्र तीर्थ की मर्यादा को बचाए रखने की छटपटाहट संपूर्ण जैन समाज में देखी जा सकती है। यह अकुलाहट केवल भारत में नहीं है, विदेश में रहने वाले जैन मतावलंबियों ने भी प्रकट की है। इसमें अपनी सहभागिता खुलकर प्रकट की है।
स्थिति यह है कि जो दिगंबर मुनि संपूर्ण सांसारिक राग-द्वेष-कामनाओं को त्याग कर धर्मपथ पर अग्रसर हो जाते हैं, उनमें से भी एक सुयज्ञ सागर महाराज ने झारखंड सरकार के आदेश को वापस लेने की मांग के साथ अन्न-जल का त्याग कर दिया और अंतत: समाधिमरण का वरण कर लिया।
जैन समाज का यह उद्वेलन झारखंड सरकार द्वारा पिछले दिनों की गई एक घोषणा के कारण है। झारखंड के गिरीडीह में एक पर्वत है, जिसे सरकारी दस्तावेजों में पारसनाथ पर्वत और जैन समाज में सम्मेद शिखर कहा जाता है। पारसनाथ नाम भी जैन परंपराओं से जुड़ा हुआ है। जैन मान्यताओं के अनुसार पार्श्वनाथ (या पारसनाथ) तेईसवें तीर्थंकर थे, जिनका समय चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर से करीब ढाई सौ वर्ष पूर्व का माना जाता है।
जैन मान्यताओं के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों में से बीस तीर्थंकरों को सम्मेद शिखर से मोक्ष की उपलब्धि हुई है। केवल पहले तीर्थंकर ऋषभदेव कैलाश पर्वत से, तेरहवें तीर्थंकर वासुपूज्य चंपापुरी से, बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ गिरनार पर्वत से और अंतिम यानी चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर पावापुरी से मोक्ष को उपलब्ध हुए थे।
बीस तीर्थंकरों का मोक्षधाम होने के कारण यह स्थान सकल जैन समाज के लिए श्रद्धा का केंद्र है। जैन धर्मानुयायी इस पर्वत को तीर्थराज सम्मेद शिखर जी कहते हैं। सम्मेद शिखर यानी ध्यान और साधना का शिखर। हर वर्ष लाखों की संख्या में जैन मतावलंबी इस तीर्थस्थान पर अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त करने आते हैं। यहां आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या को देखकर ही जुलाई 2001 में एक विशेष रेल ‘पार्श्वनाथ एक्सप्रेस’ नाम से शुरू की गई।
भावनगर टर्मिनस से आसनसोल के बीच चलने वाली यह यात्री गाड़ी हर दिन बड़ी संख्या में गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के श्रद्धालुओं को लेकर पारसनाथ नामक रेलवे स्टेशन पर पहुंचती है। साल भर इस तीर्थ स्थान पर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यह झारखंड की सबसे ऊंची पर्वत चोटी है। पिछले दिनों झारखंड सरकार ने इस स्थान को पर्यटन स्थल घोषित करने संबंधी एक आदेश जारी किया और इसी आदेश ने पूरे भारत में जैन समाज को आंदोलित कर दिया है।
देश भर में जैन समाज अहिंसक तरीके से झारखंड सरकार के इस निर्णय के खिलाफ आंदोलन कर रहा है। चार जनवरी को मुंबई में जैन मतावलंबियों ने एक जुलूस निकाला, जिसमें लाखों लोगों ने भाग लिया। दिल्ली, जयपुर, कोलकत्ता, सूरत, कोटा सहित विविध शहरों में ऐसे जुलूस पहले ही निकल चुके हैं। दरअसल, पर्वत के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तीर्थंकरों और मुनियों के मोक्ष स्थल हैं।
जैन मतावलंबी इन स्थलों को कूट या टोंक कहते हैं। मान्यता है कि तीर्थंकरों के अलावा इस स्थान से लाखों मुनियों को भी मोक्ष प्राप्त हुआ। चौथे टोंक से एक अरब मुनि और पांचवें टोंक से छियानबे करोड़ मुनि मोक्ष को उपलब्ध हुए। जैन श्रद्धालु सभी टोंक पर जाकर अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं। सम्मेद शिखर नामक इस तीर्थ स्थान का जैन समाज के लिए कितना महत्त्व है, इसका अनुमान कुछ बातों से लगाया जा सकता है।
जैन समाज की प्रार्थनाओं में सम्मेद शिखर जी स्तवन का विशेष महत्त्व है। इस स्तवन में एक स्थान पर कहा गया है- ‘एक बार बंदे जो कोई/ ताहि नरक-पशु-गति नहीं होई।’ यानी जो भी मनुष्य एक बार इस तीर्थ की वंदना कर लेता है, उसे अगले जन्म में कम से कम नरक में नहीं जाना पड़ता और पशु के रूप में भी जन्म नहीं लेना पड़ता। जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार केवल अयोध्या और सम्मेद शिखर को ही शाश्वत तीर्थ माना गया है। इसका अर्थ है कि काल के प्रत्येक खंड में कुछ भी हो जाए, लेकिन ये तीर्थ बने रहेंगे।
झारखंड सरकार इस स्थान को पर्यटन क्षेत्र के तौर पर विकसित करना चाहती है। तीर्थ क्षेत्र और पर्यटन क्षेत्र में प्रोत्साहित की जाने वाली प्रवृत्तियों में अंतर है। तीर्थ ऐसे स्थान को कहते हैं, जिसकी यात्रा मनुष्य को संसार सागर से पार लगाती है या उसके अंदर संसार सागर से पार होने की चेतना जगाने में मदद करती है। दुनिया के सब धर्मों में इस तरह की यात्राओं की एक पुष्ट परंपरा है।
पहले तीर्थ यात्राओं में संयम पूर्वक जीवन जीने के अपने नियम होते थे। धीरे-धीरे सुविधाओं का विस्तार होता गया तो उन नियमों की अवहेलना भी होने लगी। पहले तीर्थ यात्राएं मनुष्य के आत्मबल और अपने आराध्य के प्रति उनके समर्पण की परीक्षा की तरह होती थीं, लेकिन अब तीर्थ यात्राएं धार्मिक पर्यटन और समृद्धि के प्रदर्शन का भी माध्यम हो गई हैं।
यह अवमूल्यन किसी एक धर्म के मतावलंबियों में नहीं हुआ, बल्कि सर्वत्र सहज दृष्टिग्रोचर होता है। ऊंचे पर्वतों पर स्थित मंदिरों तक हेलिकाप्टर से पहुंचना कुछ लोगों के लिए शारीरिक विवशता हो सकती है, लेकिन बहुत से लोगों के लिए यह स्टेटस सिंबल भी हो गया है। तीर्थक्षेत्रों में स्थित आरामदायक और महंगे होटलों या धर्मशालाओं में टहलना अब तीर्थयात्रा को आत्मबल के परीक्षण से कम जोड़ पाता है।
धार्मिक पर्यटन नामक एक प्रवृत्ति पिछले कुछ बरसों में तेजी से विकसित हुई है जो तीर्थ यात्रा को आध्यात्मिक उन्नयन की संभावनाओं की अपेक्षा सैर-सपाटे के आनंद से अधिक जोड़ता है। यही कारण है कि पहले लोग सांसारिक बंधनों से मुक्ति की संभावनाओं को तलाशने के लिए तीर्थयात्राएं करते थे, अब तीर्थ स्थानों की यात्राएं तो हो रही हैं, लेकिन उनके साथ छुट्टियों वाले सैर-सपाटे का आनंद अधिक जुड़ गया है।
तीर्थों के लिए की जाने वाली यात्राओं और पर्यटन के लिए की जाने वाली यात्राओं की प्रकृत्ति में यही अंतर होता है। सैर-सपाटे के लिए की जाने वाली यात्राओं में उन्मुक्तता के साथ उच्छृंखल प्रवृत्तियों की आहट भी सुनी जाती है। हालांकि सभी पर्यटक उन्मत्त हों, यह भी नहीं कहा जा सकता। मगर तीर्थयात्रा के लिए जिस संयम की आवश्यकता होती है, पर्यटन उस संयम की महत्ता को आवश्यक नहीं समझता। जैन समाज इसी बात से आशंकित है।
उल्लेखनीय है कि इस आदेश के पहले ही सम्मेद शिखर क्षेत्र में मांस के विक्रय की घटनाओं से देश भर का जैन समाज उद्वेलित हुआ था। अब और श्रद्धा भाव से इतर सैर-सपाटे या मौज-शौक के लिए इलाके में लोगों की आवाजाही बढ़ी, तो खानपान से लेकर जीवन-शैली और सुविधाओं में (जिनमें पर्यटकों को उपलब्ध कराए जाने वाले मांस-मद्य भी शामिल हो सकते हैं) उन प्रवृत्तियों का प्रवेश होगा, जिन्हें जैन समाज आम गृहस्थ के लिए भी वर्जित मानता है। यह स्थिति जैन समाज को स्वीकार्य नहीं है।
चूंकि जैन धर्म से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थानों पर अवांछनीय तत्त्वों द्वारा जैन मतावलंबियों को ही बेदखल किए जाने की कुछ घटनाएं पहले हो चुकी हैं, इसलिए सम्मेद शिखर की मर्यादा को लेकर जैन मतावलंबी ज्यादा संवेदित हैं। जैन समाज का सवाल है कि क्या दुनिया भर के जैन मतावलंबियों की आस्था को बनाए रखने के लिए झारखंड सरकार सम्मेद शिखर को पर्यटन क्षेत्र घोषित करने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार नहीं कर सकती।