पश्चिमी आधुनिकता के अंधानुकरण के साथ पिछले एक-डेढ़ दशक से हमारे देश में विकास का यह सपना देखा जा रहा है कि हम जल्द ही ऐसा कुछ करें जिससे न्यूयॉर्क, शंघाई और तोक्यो जैसे महानगरों को मात दें और दुनिया को दिखाएं कि आधुनिकता में हमारा कोई सानी नहीं है। विकास की इस होड़ का नतीजा है शहरों में कम जगह में ऊंची इमारतों का अधिक संख्या में बनना और उन्हें ठंडा, जगमगाता और साफ-सुथरा रखने के लिए बिजली का अंधाधुंध इस्तेमाल। ऐसी गगनचुंबी इमारतें पहले सिर्फ मुंबई में थीं, लेकिन अब दिल्ली-एनसीआर समेत सभी महानगरों में ऊंची इमारतों को बढ़ती आवास समस्या के हल के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन ऐसा बहुमंजिला विकास बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है, यह बात हाल के दो संदर्भों में स्पष्ट हुई है।

हाल में दिल्ली में बिजली की मांग ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। पहली बार यहां एक ही दिन में छह हजार मेगावॉट से अधिक बिजली घरों और दफ्तरों की जरूरतें पूरी करने में खप गई। कहा जा रहा है कि इस मांग में और बढ़ोतरी हो सकती है और यह साढ़े छह हजार मेगावॉट को पार कर सकती है। यह जरूरत कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा रहा है कि इसके लिए उत्तराखंड के विशालकाय टिहरी पॉवर प्लांट जैसे छह से अधिक बिजलीघरों की जरूरत है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि आखिर ये शहर हमारे लिए कैसी समस्याएं निकट भविष्य में सामने रखने वाले हैं।

यह शहरीकरण जो समस्याएं पैदा कर रहा है, उसका दूसरा संदर्भ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और यूएन-हैबिटेट द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन की रिपोर्ट से मिलता है। शहरों की इमारतों और घरों को रौशन करने, एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर और वॉटर कूलर आदि के इस्तेमाल और कारों के प्रयोग की वजह से शहरी इलाकों के औसत तापमान में एक से तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है। रिपोर्ट में इस बदलाव को ‘अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट’ की संज्ञा दी गई है। कारों में जलने वाला तेल धुएं के रूप में सिर्फ कार्बन डाई-आॅक्साइड वातावरण में नहीं झोंकता, बल्कि आसपास के तापमान में कुछ और इजाफा करता है। इसी तरह फ्रिज, एसी, वॉटर कूलर का इस्तेमाल करने वालों को ठंडी हवा और पानी तो अवश्य मिल जाता है, लेकिन ये उपकरण अपने आसपास के माहौल में बेतहाशा गरमी झोंकते हैं, जो मई-जून जैसे गर्म महीनों में शहरों को और ज्यादा गरम कर देते हैं।

मौसमी बदलाव के कारण प्राकृतिक गरमी से मुकाबले के लिए जो साधन और उपाय आजमाए जा रहे हैं, उनमें कमी लाना कोई नीतिगत बदलाव लाए बगैर संभव नहीं हो सकता है। अभी हमारे योजनाकार देश की आबादी की बढ़ती जरूरतों और गांवों से पलायन कर शहरों की ओर आती आबादी के मद्देनजर आवास समस्या का ही जो उपाय सुझा रहे हैं, उनमें शहरों की आबोहवा बिगाड़ने वाली नीति ही ज्यादा नजर आती है। जैसे, एक उपाय यह है कि अब शहरों में ऊंची इमारतें बनाने को प्राथमिकता दी जाए। इसी नीति के तहत पिछले साल केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने दिल्ली विकास प्राधिकरण के लैंड पूलिंग संबंधी एक प्रस्ताव को सहमति दी थी, जिसमें एफएआर (फ्लोर एरिया रेश्यो) बढ़ा कर महानगर में पंद्रह से बीस मंजिला इमारतें बनाने की इजाजत दी गई। दावा किया गया कि इस संधोधन से राजधानी में चौबीस लाख नए मकान (फ्लैट) उपलब्ध हो जाएंगे, जो शहरी आबादी की आवास समस्या को कुछ हद तक हल करेगा।

गौरतलब है कि दो साल पहले दिल्ली के मास्टर प्लान-2021 में एडवाइजरी कमेटी ने प्रस्ताव दिया था कि दिल्ली के ज्यादातर इलाकों में बहुमंजिला इमारतों के निर्माण की इजाजत दी जाए। सिफारिश की गई थी कि रिहाइशी इलाकों में बनाई जाने वाली इमारतों की ऊंचाई मौजूदा पंद्रह मीटर से बढ़ा कर साढ़े सत्रह मीटर तक कर दी जाए। कहा गया कि ऐसी छूट देने से लोग भूतल पर कार पार्किंग बनाने को प्रेरित होंगे और अपनी कारें अवैध रूप से सड़कों-गलियों में नहीं खड़ी करेंगे। निश्चय ही ऐसे प्रस्तावों का मकसद देश में बढ़ती आबादी को आवास के नए और सस्ते विकल्प मुहैया कराना है।

कहा जा रहा है कि मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर, अमदाबाद, चंडीगढ़, लुधियाना, देहरादून आदि देश के बड़े शहरों में ऊंची इमारतें बनाने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है, जिससे रिहाइशी जरूरतें पूरी करने के साथ-साथ शहरी नियोजन के काम को भी थोड़ा व्यवस्थित किया जा सके। लेकिन अतीत में दिल्ली की बसाहट में योजनाकारों ने इस बात का ध्यान रखा था कि यहां इमारतें ज्यादा ऊंची न हों। यही वजह है कि जहां मुंबई में एक हजार की आबादी पर सिर्फ 0.03 एकड़ खुली जगह लोगों को हासिल है, वहीं दिल्ली में हाल तक यह तीन एकड़ तक रहा है। कुछ बरस पहले तक खुद दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) भी चार मंजिल से ज्यादा ऊंचे भवन नहीं बनाता था, पर अब यह नियम टूट रहा है।

पर क्या यह सही नजरिया है? कुछ वर्ष पहले दिल्ली में औद्योगिक चैंबर- एसोचैम द्वारा आयोजित गोष्ठी- ‘दिल्ली: कल, आज और कल’ में पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित समेत कई अन्य विचारकों ने कहा था कि ऊंची इमारतों से शहर की बुनियादी सहूलियतों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है और महानगर की संरचना खराब होती है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कंक्रीट की ऊंची इमारतें सिर्फ आबोहवा पर नहीं, हमारी सामाजिक संरचना पर भी असर डालती हैं और एक ऐसे समाज का निर्माण करती हैं, जो व्यवहार में आक्रामक होता है। कई शहरी योजनाकार और विशेषज्ञ इस किस्म के ‘लंबवत विकास’ को समाज के लिए घातक मानते हैं। 2007 में, दिल्ली में इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर ट्रेडिशनल बिल्डिंग, आर्किटेक्ट ऐंड अर्बनिज्म (आईएनटीबीएयू) की कॉन्फें्रस में भाग लेने आए आर्किटेक्टों और योजनाकारों ने ऊंची इमारतों के रूप में ग्लास टॉवरों और स्काईस्कै्रपरों के विश्वव्यापी चलन को ‘राक्षसी और अमानवीय’ तक कह डाला था।

शहरी-नियोजन से जुड़े मशहूर विचारक लियॉन के्रअर ने कहा था कि एक दिन दुनिया में ऐसा आना है, जब न तो बिजली पैदा करने के लिए हमारे पास यूरेनियम और कोयला होगा और न वाहनों के लिए तेल, तो ऐसे में ऊंची इमारतों की लिफ्टें बंद हो जाएंगी। इमारतों की ऊंचाई बढ़ने के साथ ही शहरों के सीवरेज सिस्टम, कचरा निष्पादन, बिजली और पानी के इंतजाम आदि पर भारी दबाव पड़ेगा। अभी दिल्ली में बयालीस करोड़ लीटर पानी की जरूरत है, जिसमें प्रतिदिन दस करोड़ लीटर की कमी है। दिल्ली की सीवर लाइनें ब्रिटिश काल में बिछाई गई थीं, जो अब तक नहीं बदली गई हैं। तीन-चार साल पहले दिल्ली से हर रोज साढ़े छह हजार टन कचरा निकलता था, जो फिलहाल दस हजार टन है। इमारतों की ऊंचाई बढ़ते ही कचरे की मात्रा भी बढ़ेगी। इन इमारतों में रहने वाले लोग जब अपनी कारों और सार्वजनिक परिवहन से सड़कों पर आएंगे, तो ट्रैफिक जाम की समस्या के अलावा वातावरण में गरमी और प्रदूषण में इजाफा होगा।

सिर्फ यही नहीं, बहुमंजिला इमारतों में रहने के कारण सामाजिकता और सामुदायिकता की अवधारणा को गहरा आघात लगने की आशंका रहती है। विचारक लियॉन के्रअर कहते हैं कि तीन मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें न तो सुविधाजनक कही जा सकती हैं और न ही वे समाज के निर्माण में सहायक हो सकती हैं। आर्किटेक्ट एजीके मेनन ने इस बारे में एक दफा कहा था कि अच्छा होगा कि हम भावी शहरों के निर्माण के मामले में विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी मुल्कों की नकल न करें और अपनी परंपराओं को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनाएं।

जरा-सी दूरी के लिए कार का इस्तेमाल और शरीर और गला तर रखने के लिए फ्रिज-एसी की शरण में जाने वाली आबादी में जैसे-जैसे बढ़ोतरी होगी, शहरों का वातावरण और गरम होता जाएगा। इन गरमी, सर्दी, बरसात की जरा-सी बेरुखी सहन न करने की बेसब्री उन्हें ज्यादा मुश्किल में डाल रही है, जो अपनी उम्र के कारण ज्यादा गरमी या सर्दी बर्दाश्त नहीं कर सकते। बच्चे और बूढ़े दोनों आयु वर्ग के लोगों को शहरी आबोहवा में घुलती अतिरिक्त गरमी ज्यादा परेशान करती है, क्योंकि इनका शारीरिक प्रतिरक्षा तंत्र युवाओं जितना मजबूत नहीं होता। इसके बाद समस्या खुद पृथ्वी के लिए है, क्योंकि कारों से निकली कार्बन डाई-आॅक्साइड, फ्रिज-एसी की ग्रीनहाउस गैसें और गरमी अंतत: ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी समस्या के लिए भी जिम्मेदार हैं।

इन समस्याओं का हल नीतियों में बदलाव और एक इंसान की आम सहनशक्ति में छिपा है, जिसका दर्शन शहरों में कम ही होता है। थोड़ी गरमी बर्दाश्त कर लेना, एसी की जगह कूलर से काम चलाना, फ्रिज या वॉटर कूलर के बजाय घड़े-सुराही की शरण में जाना पिछड़ेपन की निशानी नहीं, बल्कि इससे हम खुद को अपने आसपास के वातावरण का खयाल रखने वाले आधुनिक सोच का इंसान साबित कर सकते हैं। नीतियों में बदलाव के कुछ उदाहरण कनाडा के टोरंटो, अमेरिका के लॉस एंजिलिस और फ्रांस के पेरिस ने पेश किए हैं। टोरंटो दुनिया का पहला शहर है, जिसने एक खास ऊंचाई वाली सभी इमारतों में हरित छतों (ग्रीन रूफ) का निर्माण अनिवार्य कर दिया है। लॉस एंजिलिस में सभी बिल्डिंगों की छतों की हल्के रंगों में पुताई-रंगाई जरूरी कर दी गई है, ताकि वे गरमी न सोखें। इसी तरह पेरिस ने एक कानून पारित कर हरित छतों के साथ-साथ इमारतों पर सोलर पैनल लगाना अनिवार्य कर दिया है। ये सबक भारत के शहरों को भी लेने चाहिए।