ब्रह्मदीप अलूने
सत्ता औपचारिक, निश्चित और विशिष्ट होती है। लेकिन उसकी शक्ति को कभी भी निरंकुश, मनमाने व निरुद्देश्य तरीके से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी संवैधानिक रूप से सत्ता पर कुछ प्रतिबंध या सीमाएं हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। नेपाल की सर्वोच्च अदालत ने ओली की राजनीतिक सत्ता को कड़ा संदेश देते हुए और उनके व राष्ट्रपति द्वारा संसद भंग कर आम चुनाव करवाने की मंशा पर रोक लगाते हुए शेर बहादुर देउबा को सत्ता संभालने का अवसर दिया है। देउबा को दो सौ पचहत्तर सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में एक सौ उनचास सदस्यों का समर्थन हासिल है। उन्हें महीने भर में बहुमत साबित करना है। ओली की बिदाई और देउबा की ताजपोशी भारत की दृष्टि से सकारात्मक है, क्योंकि ओली जहां चीन के प्रभाव में थे, वहीं देउबा भारत से मजबूत संबंधों को तरजीह देते रहे हैं।

इन सबके बीच नेपाल का राजनीतिक तंत्र करीब तीन वर्षों से केपी शर्मा ओली की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं और साम्यवाद को मजबूत करने की सनक से बुरी तरह पस्त रहा है। ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल और प्रचंड की पार्टी सीपीएन-माओवादी सेंटर गठबंधन को 2018 में हुए आम चुनावों में एक सौ चौहत्तर सीटों पर जीत हासिल हुई थी। प्रधानमंत्री पद के लिए ओली का समर्थन यूसीपीएन-माओवादी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल और मधेसी राइट्स फोरम डेमोक्रेटिक के अलावा तेरह अन्य छोटी पार्टियों ने किया भी किया था।

प्रधानमंत्री बनते ही ओली ने वह सब कुछ किया जिसकी इस धार्मिक और सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले देश में कल्पना भी नहीं की गई थी। अपनी कम्युनिस्ट पहचान मजबूत करने और चीन के साथ खड़े दिखने को लेकर ओली के भीतर उतावलापन इतना ज्यादा था कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए ईश्वर का नाम लेने से इंकार कर दिया था। बुद्ध और विष्णु की भूमि के लिए यह बेहद अप्रत्याशित घटना थी। इसके बाद भारत के प्रधानमंत्री जब नेपाल गए तो उन्होंने जनकपुर में पूजा की, लेकिन ओली ने नहीं की। ओली यहीं नही रुके, उन्होंने चीन के इशारे पर नेपाल का नया नक्शा जारी कर भारतीय क्षेत्रों कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख को शामिल कर इन्हें अपने देश का इलाका बता दिया।

इतना ही नहीं, ओली ने राम जन्मभूमि को नेपाल में ही बताया और चीन के लिए अपने देश के दरवाजे खोल दिए। भारत नेपाल संबंधों की अहमियत जानते हुए भी ओली ने सत्ता पर पकड़ बनाने के लिए राष्ट्रवाद का दांव खेला। नेपाल की युवा पीढ़ी में उच्च आकांक्षाओं को जगाने और सामने लाने के लिए ओली ने राष्ट्रवाद का सहारा लेकर भारत से सीमा विवाद को बढ़ाया और इसे राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ दिया। नेपाली प्रधानमंत्री का यह कदम बेहद अप्रत्याशित था। ऐसा कर उन्होंने न केवल नेपाल के भविष्य को दांव पर लगा दिया, बल्कि भारत से लगती लगभग अठारह सौ किलोमीटर की सीमा की शांति भंग कर एक नई चुनौती पेश कर दी।

कई शताब्दियों तक राजशाही को स्वीकार करने वाले इस देश में 2007 में अंतरिम संविधान बनने के बाद राजतंत्र को खत्म तो कर दिया गया था, लेकिन वामपंथ के उभार से लोकतंत्र स्थापित करने के सपने चकनाचूर होते चले गए। साम्यवाद धर्म को नहीं मानता और बुद्ध के विचारों में सनातन धर्म की समानता निहित है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेता नेपाल को चीन जैसा बना देना चाहते हैं, जबकि नेपाल के सांस्कृतिक इतिहास और परंपराओं में सनातन धर्म और बुद्ध की मान्यताओं के चलते उसकी भारत से निकटता खत्म नहीं हो सकती। ओली की चीन परस्ती अंतत: उनके गले की ही हड्डी बन गई और कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ही उनके खिलाफ मुखर और लामबंद हो गए।

एक समय चीन की ओर देखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल ह्यप्रचंडह्ण भारत का समर्थन करने लगे हैं। वहीं नेपाल के माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई को भी नेपाल के सांस्कृतिक इतिहास को चोट पहुंचाने की ओली की कोशिशें रास नहीं आईं। इससे नेपाल में राजनीतिक गतिरोध बढ़ता गया और कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल फूट की ओर बढ़ती गई। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी का एक धड़ा देश में लोकतंत्र और समाजवाद को पसंद करता है, जबकि ओली की विचारधारा नेपाल की धार्मिक प्रतिबद्धताओं को खत्म कर साम्यवाद की तानाशाही संस्कृति को अपनाती दिख रही थी। इससे चीन को नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का अवसर भी मिल गया था।

ओली के कई कदमों को उनकी अपनी ही पार्टी ने संदेह की दृष्टि से देखा। कभी चीन के समर्थक रहे वामपंथी नेता प्रचंड ने ओली की नीतियों को आत्मघाती बताया, तो दूसरी ओर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के उप-प्रमुख बिष्णु रिजल ने ओली के राम जन्मभूमि नेपाल में होने के दावे की कड़ी आलोचना करते हुए इसे दुर्भाग्यपूर्ण और उकसावे का कृत्य बताया था। माओवादी सभासद के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने अपने देश के वामपंथी प्रधानमंत्री ओली के राम जन्मस्थान के नेपाल में होने के दावे की तीखी आलोचना करते हुए यह कहने से गुरेज नहीं किया था कि यह प्रधानमंत्री का असंगत और राष्ट्रहित के विपरीत आचरण है और उन्हें पद से विदा करना ही होगा।

अंतत: ओली के विचार ही उनकी सत्ता से बिदाई का कारण बने। लेकिन उन्होंने राष्ट्रपति से मिल कर मध्यावधि चुनाव का दांव खेल दिया। उनकी सलाह पर पिछले साल बीस दिसंबर को राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने संसद भंग कर दी थी। लेकिन फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इसे बहाल कर दिया था। एक बार फिर देश की बागडोर ओली के हाथ में आ गई, लेकिन राजनीतिक अंतर्विरोधों के कारण संसद में उनका बहुमत साबित करना उनके लिए मुमकिन नहीं था। इस साल मई में वे बहुमत साबित नहीं कर पाए। दूसरी तरफ नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने अपने लिए प्रधानमंत्री पद का दावा किया था और कहा था कि उनके पास एक सौ उनचास सांसदों का समर्थन है। लेकिन राष्ट्रपति भंडारी ने संसद भंग कर इस साल नवंबर में मध्यावधि चुनावों की घोषणा कर दी थी। नेपाली कांग्रेस ने राष्ट्रपति के फैसले को अवैधानिक ठहराते हुए इसे अदालत में चुनौती दी थी और अंतत: अदालत ने नेपाली कांग्रेस के दावे को वैध माना।

अदालत के ताजा फैसले से नेपाल में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्ति और नियंत्रण के संतुलन पर नई बहस छिड़ गई है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है। नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत का आशय यह है कि सरकार के विभिन्न अंग एक दूसरे की शक्ति पर इस प्रकार से नियंत्रण स्थापित करें कि सभी के बीच शक्ति संतुलन बना रहे और कोई भी एक स्तंभ निरंकुश शक्तियों का प्रयोग न कर सके। नेपाली संविधान के अनुच्छेद 76(5) में कहा गया है कि राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदस्य को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त कर सकते हैं, अगर उन्हें इस बात पर विश्वास हो कि वह संसद में विश्वासमत हासिल कर सकने की स्थिति में है। देउबा की मजबूत स्थिति के बाद भी राष्ट्रपति द्वारा ओली का समर्थन कर देश को मध्यावधि चुनाव की कगार पर धकेलना अदालत को भी रास नहीं आया।

नेपाल में राजनीतिक परिवर्तन के बाद चीन देउबा के साथ अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने की कोशिश तो करेगा, लेकिन साथ ही यह आशंका भी है कि देउबा के भारत के साथ मजबूत संबंधों के चलते उन्हें अस्थिर करने की कोशिशें भी हो सकती हैं। नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है, नेपाल में अब राजनीतिक अस्थिरता का अर्थ होगा देश में माओवाद का पुन: सिर उठाना। इस स्थिति से नेपाल को बचना होगा।