सुरेश सेठ

हम अपनी जरूरी वस्तुओं के लिए अभी भी आयात आधारित अर्थव्यवस्था हैं। डालर क्षेत्र में हमारे रुपए का मूल्य निरंतर गिरता गया है। ऐसी हालत में कच्चे माल का आयात हमें बहुत महंगा पड़ता है। इसके कारण महंगाई का एक दुश्चक्र शुरू हो जाता है।

देश के आर्थिक हालात पर जो नई सूचनाएं आ रही हैं, वे आशापूर्ण हैं। ये सूचनाएं देश के भविष्य ही नहीं, वर्तमान के उजला होते जाने का संकेत भी देती हैं। कुछ बातें स्पष्ट हैं। पहली यह कि अन्य बाहुबली परमाणु शक्तियों के मुकाबले में हमारा देश भी किसी से कम नहीं रहा। इस समय वह दुनिया की पांचवीं बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया है, जबकि भविष्यवक्ता यही कहते हैं कि यह जल्दी ही तीसरी बड़ी शक्ति बन जाएगा।

यह भी कहा जा रहा है कि देश ने महंगाई पर विजय प्राप्त कर ली है। आंकड़ों की उठा-पटक से साबित करने की कोशिश की जाती है। लगातार एक साल महंगाई की ऊंची लहर ङोलने के बाद सरकार ने अपनी मौद्रिक नीति से महंगाई पर विजय प्राप्त करने की घोषणा कर दी है, क्योंकि कीमत सूचकांकों में थोक कीमत शून्य को छूने लगी, लेकिन खुदरा महंगाई की दर भी रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित छह प्रतिशत से नीचे आकर 4.7 प्रतिशत हो गई। एक और दावा यह हो रहा है कि भारत की विकास दर इस समय सात फीसद हो गई है। अगले आर्थिक वर्ष में दुनिया भर में महामंदी के कुप्रभावों से होने वाली उथल-पुथल से दुनियाभर के देश कांप रहे हैं। लेकिन भारत की आर्थिक विकास दर 2022-23 में इससे अछूता रह सकता है।

भारत की विकास दर को 6.5 फीसदी रहने का अंदाजा लगाया गया है और वर्तमान महंगाई में बचत बढ़ने और कजरे के पटने की उम्मीद रखना जायज है। लेकिन वास्तविकता की धरातल पर देखें, तो अब जो नए हालात पैदा हो रहे हैं, उसमें सबसे बड़ी बात यह है कि चाहे कोरोना काल के विकट दिनों में आम और खास ने व्यापार निस्पंदता की अवस्था झेली, लाखों लोग बेरोजगार हुए, भारत विभाजन के दिनों से भी बड़ा आम लोगों का महाभिनिष्क्रमण गांवों की ओर हो गया।

देश बेशक यह घोषणा कर रहा है कि हम न केवल कोरोना के टीकों को जरूरतमंद देशों को निर्यात कर रहे हैं, बल्कि अपनी आबादी को भी कोरोना की लहरों से बचाकर ले गए हैं। सुनने में अच्छा लगता है। यह भी कहा जा रहा है कि हमने अपने निर्यात बढ़ाने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। हमारा लक्ष्य अब देश को आयात आधारित अर्थव्यवस्था से निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बना देना है।

लेकिन अगर यही सब अच्छा होता तो रिजर्व बैंक के गवर्नर का नया वक्तव्य भी क्यों इसी तेवर से भरपूर न होता। उन्होंने कहा कि अप्रैल 2023 में देश की मौद्रिक नीति में रेपो दर को 6.5 प्रतिशत पर यथावत रखा गया, जबकि इससे पहले मई 2022 से रेपो रेट में लगातार वृद्धि 2.5 फीसदी तक हो गई थी।

अब मुद्रा मंडियों में यह शोर भी फैल गया कि चूंकि सरकार ने महंगाई पर नियंत्रण की घोषणा कर दी है, इसलिए अपनी द्विमासिक मौद्रिक नीति घोषणा में वह संभवत: रेपो रेट घटा देगी और ब्याज दरों में कमी आएगी। लेकिन आरबीआइ गवर्नर ने इस प्रकार का कोई भी आश्वासन देने से मना कर दिया और कहा कि रेपो दरों पर बदलाव का फैसला बाजारी ताकतों के संतुलन के आधार पर होगा। उन्होंने यह भी कहा कि मैं कोई विश्वास नहीं दिला सकता कि महंगाई निरंतर कम होती चली जाएगी और ब्याज दरों में भी कमी आएगी।

निश्चय ही यह वक्तव्य यथार्थ की धरातल पर दिया गया है। अभी तक महंगाई में जो नरमी दिखाई दे रही है, वह खाद्य पदार्थों की कीमतों में कमी के कारण नजर आई है। आम लोगों को यह शिकायत है कि महंगाई दर की यह कमी उन तक तो पहुंचती नहीं। बीच के लोग यानी कालाबाजारी या कमी की आशंका पैदा करने वाले व्यापारी इसे ले उड़ते हैं। यही कारण है कि अगले दिनों में महंगाई निश्चय ही कम हो जाएगी, इसके बारे में कोई पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकता।

इसका पहला कारण है पेट्रोल और डीजल की कीमतों में ओपेक देशों का नया फैसला कि वे अपना तेल उत्पादन घटा सकते हैं। देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कमी आने की अभी बहुत संभावना नहीं है। कुछ राज्य सरकारों ने तो अपने खाली खजाने को भरने के लिए इस पर ‘सेस’ भी लगा दिया, जैसे हिमाचल प्रदेश और पंजाब।

फिर यूरोपीय देशों ने शिकायत की है कि भारत रूस से कच्चा तेल भारी मात्रा में आयात करके उसका विनिर्माण करते हुए दोबारा हमें बेच देता है, यह गलत है। चाहे इसमें गलती कुछ नहीं, क्योंकि अन्य वस्तुओं में भी कच्चे माल से विनिर्मित वस्तुएं बनाकर ही भारत अपने निर्यात को बढ़ावा दे रहा है। हमने कितनी ही स्वावलंबी हो जाने की घोषणाएं की हैं, लेकिन दवा उद्योग में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल की अभी भी कमी है।

हम चीनी उत्पादों का बहिष्कार करने की बातें कहते हैं। जहां तक दवाओं के कच्चे माल का संबंध है, हम आंशिक रूप से अभी तक उस पर निर्भर करते हैं। नए आंकड़े बता रहे हैं कि इस वर्ष हमारे निर्यात में वह अपेक्षित तरक्की नहीं हुई जो होनी चाहिए थी। हम अपनी जरूरी वस्तुओं के लिए अभी भी आयात आधारित अर्थव्यवस्था हैं। डालर क्षेत्र में हमारे रुपए का मूल्य निरंतर गिरता गया है। ऐसी हालत में कच्चे माल का आयात हमें बहुत महंगा पड़ता है। इसके कारण महंगाई का एक दुश्चक्र शुरू हो जाता है। ऐसी स्थिति में रिजर्व बैंक के गवर्नर कैसे यह दिलासा दे दें कि खुदरा महंगाई पर स्वत: नियंत्रण हो जाएगा?

जहां तक रूस और यूक्रेन, चीन और ताइवान की तनातनी का संबंध है, इसने भी सभी आपूर्ति चैनल गड़बड़ा दिए हैं। इसी कारण मूलभूत जरूरतों की कीमतों में आकस्मिक उछाल होती रहती है। रिजर्व बैंक के गवर्नर खुद मानते हैं कि जलवायु में असाधारण परिवर्तनों ने और पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में संपन्न देश अपना योगदान देने में कोताही कर रहे हैं। इसीलिए दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग से लेकर बेमौसमी बरसात तक पहुंच जाती है। इससे कोई बच नहीं पाता।

हमारे देश में तो इस बारिश ने और ही रूप ले लिया। वह इस असाधारण जलवायु के वातावरण में धरती से उठते हुए ताप वाष्पों के कारण बादल फटने की घटनाओं में तब्दील हो जाती है, जिससे देश के जन-धन की हानि होती है। कृषि तो पहले ही मौसम का जुआ थी, अब वह इस पर्यावरण प्रदूषण का भी जुआ बन गई। जब तक आपूर्ति चैनलों को दुरुस्त नहीं किया जाता, जब तक कच्चे तेल के बारे में एक तर्कपूर्ण नीति नहीं अपनाई जाती, तब तक भला हम कीमतों के स्थायी रूप से घटने में कैसे विश्वास कर सकते हैं?

आज भी हालत यह है कि चाहे भारत के बारे में दावा किया जाता है कि वह महामंदी का शिकार नहीं होगा, लेकिन बाजारों में नए उत्पादन के लिए मांग सिर नहीं उठा रही और विशेष रूप से जिन नवाचार या स्टार्टअप उद्योगों के लिए हम नई मांग को पैदा करने का प्रयास करने की घोषणा करते हैं, वह नहीं होती।

मध्यवर्ग की हालत यह है कि उसका लगभग सारा पैसा मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में ही खत्म हो जाता है और देश में मांग का बाजार व्यावसायिक रूप से आंदोलित होने के स्थान पर जीवन निर्वाह वस्तुओं के लिए मांग का बोझ होता हुआ नजर आता है। ऐसी हालत में आने वाले दिनों में महंगाई कैसे कम होगी? यही वे कारण हैं जिनके चलते देश के आर्थिक विशेषज्ञ भी आने वाले दिनों में कीमतों के कम हो जाने की कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं करते।