अगर भारत के दस प्रमुख अखबारों का पाठकीयता के लिहाज से नाम लिया जाए तो उनमें शीर्ष पर हिंदी अखबारों के नाम आते हैं। दस की सूची में पांच हिंदी अखबारों के नाम हैं। इसी तरह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को देखें तो वहां भी दर्शक संख्या के लिहाज से हिंदी चैनल ही छाए हुए हैं। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में भी अपूर्व वृद्धि हुई है। इसका दूसरा पक्ष भी है। हिंदी मीडिया ने अपने प्रसार-प्रचार के क्षेत्र में जितना काम किया है, उतना आलोचनात्मक पाठक वर्ग पैदा करने के लिए नहीं किया है। इसका कारण मीडिया के अपने चरित्र में है। समाज के वर्चस्वशाली तबके के साथ मिलकर चलना और यथास्थितिवाद को बनाए रखना मीडिया का अंतर्निहित पक्ष है। समाज में अगर हाशिए के लोगों की चिंता नहीं है तो मीडिया में भी उसका चित्रण नहीं होगा। मीडिया अंतत: सामाजिक संरचना की ही अभिव्यक्ति है। वह सामाजिक शक्ति-केंद्रों के साथ मिलकर चलता है। उन्हें छेड़ना मीडिया की प्रकृति में नहीं। आज स्थिति यह है कि मीडिया में वैज्ञानिक चेतना के लिए जगह कम है, बेकार के मुद््दों के लिए ज्यादा है। एक विवेकहीन काम के लिए मजमा जुटाना आसान है, लेकिन किसी गंभीर मुद्दे पर लोगों को इकट्ठा करना मुश्किल होता है।

इसके लिए केवल मीडिया दायी है, यह कहना गलत होगा। वैज्ञानिक चेतना और विवेक-बुद्धि के लिए समाज के अन्य संरचनात्मक ढांचों में कितनी जगह है, यह देखना भी जरूरी है। वैज्ञानिक चेतना के निर्माण में शिक्षा एक जरूरी तंत्र है। अगर शिक्षा का विकास इस आधार पर कर पाएं तो मीडिया में भी उसकी छवि दिखाई देगी। क्योंकि मीडिया में जो लोग आ रहे हैं वे इसी तंत्र से आ रहे हैं।

अभी स्थिति यह है कि अंधविश्वासों पर कॉलम खोज-खोज कर लगाए जाते हैं। राशिफल के कॉलम छापने का दबाव हर अखबार पर है, चैनल भी इसका अनुकरण करते हैं। राशिफल बताने का केवल एक ढर्रा नहीं, विभिन्न अंधविश्वास पैदा करने वाले समूहों के नजरिए से राशिफल बताए जाते हैं। जबकि इस शास्त्र के विद्वान जानते हैं कि भविष्यकथन का फलित पक्ष कितना मिथ्या और अंधविश्वासपूर्ण है।

जब तक इन सबसे लड़ेंगे नहीं, हाशिए के लोगों की बात कैसे करेंगे। अवैज्ञानिक चेतना और अंधविश्वासों की मार को सबसे ज्यादा यही वर्ग झेलता है। कर्मफल, पुनर्जन्म और अंधविश्वास- ये तीन ऐसे मजबूत आधार हैं जो हाशिए के लोगों को कभी केंद्र में नहीं आने देंगे। हाशिए के लोगों में से जिन हिस्सों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी मिली हुई है, उनके अंदर भी इनसे छुटकारा नहीं मिला है। और किसी भी प्रकार की मुक्ति मिल जाए लेकिन पितृसत्ता और वर्णवादी मानसिकता से तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक कि कर्मफल, पुनर्जन्म और अंधविश्वास से मुक्ति नहीं मिलती। जब तक ऐसा नहीं होता हाशिए के लोगों की मुक्ति भी संभव नहीं।

हिंदी प्रेस का इतिहास अंधविश्वास और रूढ़ियों के खिलाफ जनमत पैदा करने और वैज्ञानिक विचारों के पक्ष में अलख जगाने का रहा है। आरंभ के लगभग सभी हिंदी पत्रों के इंट्रो और उद््देश्य में यह घोषणा हुआ करती थी। इन पत्रों को निकालने वालों की निष्ठा और अपने देश और जनता के प्रति सेवा और प्यार में कहीं कमी नहीं थी। पर वे समाज के कोढ़ को पहचानते थे। आरंभ के पत्र ऐसा कर सके क्योंकि उन्होंने पहलकदमी की। सचेत पहलकदमी के बिना यह संभव नहीं था। क्या यह सामान्य बात है कि होली के अवसर पर ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ में प्रकाशित कविता में भारतेंदु अंधविश्वासों और कुरीतियों की होली जला कर विद्या, विवेक और गुण की प्रतिष्ठा करते हैं। ‘कवि वचन सुधा’ में ‘नारी नर सम होंहि’ का लक्ष्य रखते हैं- ‘अब विद्या रंग रंगोचित में, गुण गुलाल प्रगटो री। अनल अबीर कुरीति कुंकुमा देहु भूमि में कोरी।। निडरता उफ धुधकोरी।। भारत में मची है होरी।’

दिलचस्प होगा यह देखना कि भारत में आज जितने अखबार और चैनल हैं उनकी तुलना में कूपमंडूकता घटी नहीं है, बढ़ी है। यहां तक कि नेट का कोई भी पेज खोलते हैं तो वहां सबसे पहले राशिफल और वास्तु का विज्ञापन दिखाई देता है। जब नेट पर जाते हैं तो जिन चीजों में दिलचस्पी दिखाते हैं, इसका गुपचुप डाटा विज्ञापन कंपनियों के पास चला जाता है और वहां से इस तरह की चीजें जब अगली बार नेट सर्फ करते हैं तो अपने आप आती रहती हैं। अर्थात सामाजिक आदतों में जो अंधविश्वास और अज्ञानता का दर्जा है, उसे ही मीडिया संतुष्ट करता है। इसे खत्म करने में मीडिया और मीडिया में काम करने वाले लोगों की कोई पहलकदमी नहीं दिखती।

हमारे यहां मीडिया बहुसंख्यक विचारधारा के साथ संबद्ध दिखाई देता है। वैचारिक और सामाजिक संकट के समय यह संबद्धता और भी गहरी हो जाती है। हिंदी मीडिया का सांप्रदायिक विचारों के साथ दोस्ती का रिश्ता रहा है। यह कई बार प्रकट हुआ है। आश्चर्य है कि आज भी मध्यकालीन चेतना के निर्माण के उपकरण, आधुनिक चेतना के निर्माण के उपकरणों को अपदस्थ किए हुए हैं। बिना आधुनिक चेतना के परिप्रेक्ष्य को निर्मित किए हम हाशिए के लोगों की बात नहीं कर सकते।

हाशिए के लोगों में वे सब लोग शामिल हैं जो समाज में जाति, लिंग, धर्म, शारीरिक विशेषता के कारण उपेक्षित हैं। इनमें दलित, पिछड़े, स्त्रियां, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि, शारीरिक और मानसिक रूप से भिन्न क्षमता वाले लोग, अशक्त और वृद्ध, बच्चे सभी शामिल हैं। हाशिए के लोगों पर बात करते हुए विशेष तौर पर दलितों-पिछड़ों और स्त्रियों की बात की जाती है, क्योंकि हाशिए के लोगों में ये बड़ा वृत्त बनाते हैं।
जहां तक मीडिया में हाशिए के वर्ग की उपस्थिति का सवाल है तो यह सभी प्रकार के शोध और सर्वेक्षणों से जाहिर है कि इनकी जनसंख्या के हिसाब से मीडिया में इनकी उपस्थिति न के बराबर है। रॉबिन जेफ्री ने केरल मॉडल को आधार बना कर लिखी गई ‘मीडिया एंड मॉडर्निटी’ पुस्तक में इस बात का जिक्र विस्तार से किया है कि मीडिया में दलित वर्ग के नुमाइंदे नहीं हैं। जो कुछ लोग रहे हैं वे अपनी जातिगत पहचान छिपाते हुए। समय-समय पर किए गए सर्वेक्षण बताते हैं कि स्त्रियां मीडिया संस्थानों में ऊंचे पदों पर न्यूनतम संख्या में हैं। सवाल है कि आजादी के इतने साल बाद जबकि दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा और स्त्री वर्ग में अच्छा-खासा मध्यवर्ग पैदा हो चुका है, मीडिया की खबरों से और मीडिया की अंतर-संरचना से वे क्यों गायब हैं? यह जो नया मध्यवर्ग आया है सक्षम है, पढ़ा-लिखा है, पर इसके लिए रोजगार नहीं हैं। हमारे यहां शिक्षा आदमी को रोजगार से नहीं जोड़ती बल्कि शिक्षा का ढांचा इस प्रकार का है कि उसमें व्यक्ति कौशल के ज्ञान से भी हाथ धो बैठता है। पढ़ा-लिखा आदमी पेशेवर नहीं बनता, वह केवल रोजगार खोजता है।

इसका कारण है पेशेवराना दृष्टिकोण, सृजनक्षमता और पहलकदमी का अभाव। दलितों, स्त्रियों अल्पसंख्यकों की खबरें अगर संगत तरीके से मीडिया में नहीं आ रहीं तो इनके अपने मध्यवर्ग की पहलकदमी कितनी है, यह देखना चाहिए। आज यह नहीं कह सकते कि अखबार या चैनल हमारी खबरें नहीं दे रहे तो हमारी खबरें लोगों तक पहुंचेंगी नहीं। आज सोशल मीडिया बड़ा प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है और एक बार खबर जब वहां ट्रेंड करने लगती है तो अन्य मीडिया दबाव में आ जाता है। लेकिन देखना होगा कि समाज को बदलने की इच्छा रखने वाले लोगों में विषय की जानकारी, उससे लगाव और अभिव्यक्ति के लिए कितनी पहलकदमी है। बड़ी संख्या में स्त्रियां और हाशिए के लोग सोशल मीडिया में सक्रिय हैं, पर वे अपने तबके के सरोकारों के बारे में कुछ भी गंभीर अभिव्यक्त नहीं करते।

माध्यमों में काम करने वाले लोग उसके चरित्र को नहीं बनाते, उनमें लगा पैसा उनके चरित्र को बनाता है। अगर एक मीडिया हाउस में सभी हाशिए के लोग काम करने लगें तब भी इसकी गारंटी नहीं की जा सकती कि मीडिया का चरित्र क्रांतिकारी हो जाएगा। यह देखना चाहिए कि मीडिया का स्वामित्व किसके हाथ में है और उसके हित क्या हैं। अमेरिका में अमेरिकन सोसाइटी आॅफ न्यूजपेपर एडिटर्स (एएसएनई) ने 1970 में लक्ष्य तय किया कि सन 2000 तक अमेरिकी मीडिया में जनसंख्या के अनुपात में हाशिए के लोगों को जगह दी जाएगी। लेकिन इससे क्या समाचार की गुणवत्ता पर कोई फर्क पड़ा? मीडिया के चरित्र पर कोई फर्क पड़ा? जब तक दृष्टिकोण और चेतना में परिवर्तन नहीं होता कोई बड़ा परिवर्तन होना असंभव है।
हमारे यहां मीडिया न्यूनतम संसाधनों से काम चलाता है। मालिक किसी तरह पत्रकारों के वेतन पर खर्च करता है, इससे अधिक उसका सरोकार नहीं। वह हाशिए के लोगों की खबरों के लिए अलग से संवाददाता नहीं रखता, उसे घटनास्थल तक जाने देने के साधन मुहैया नहीं कराता। समाचारों का चरित्र सिकुड़ कर शहर-केंद्रित और गपबाजी का बन गया है। कुछ सूचना संग्रह केंद्रों से फोन पर खबर लेकर रिपोर्ट बना दी जाती है। इससे खबर भरोसा पैदा नहीं करती। आज ही वह दौर है जब मीडिया को सबसे ज्यादा घोषणा करनी पड़ रही है कि वह तथ्य और सत्य पेश कर रहा है! अलग-अलग बीट के अच्छे पत्रकार नहीं, संवाददाता नहीं; अब विशेषज्ञों को बुला कर एंकरिंग कर कार्यक्रम तैयार हो रहे हैं! मीडिया पारंपरिक पेशा नहीं है, यह पेशेवराना रवैये की मांग करता है। पेशेवर रवैया पेशेवर जिम्मेदारी को भी तय करता है।