बिभा त्रिपाठी
क्या समय के साथ यह भी महसूस किया गया है कि कुछ नए मानवाधिकारों को भी मान्यता देने की आवश्यकता है? क्या कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जो अब तक अनछुए हैं? क्या मानवाधिकारों की इस लंबी विकास यात्रा में कुछ ऐसे भी पड़ाव हैं, जहां विभिन्न मानवाधिकारों के बीच ही एक संघर्ष की स्थिति बन गई है?
मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र के अस्तित्व में आने के तिहत्तरवें वर्ष में भी भारतीय संदर्भों में इसकी विवेचना उतनी ही प्रासंगिक है, जितना आरंभिक वर्षों और दशकों में महसूस होती थी। इसकी वजह यह नहीं कि यहां मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, बल्कि यह कि जब भी मौका आता है कोई विशेष राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने का, तब वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवसर होता है मूल्यांकन का, विमर्श और वैचारिकता का। ताकि जान सकें कि हमने अभी तक क्या प्राप्त किया है? और ऐसा क्या है, जिसे अब भी प्राप्त किया जाना बाकी है?
आज से कई वर्ष पहले भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष केजी बालकृष्णन ने मानवाधिकार दिवस के मौके पर कहा था कि लगातार राज्य सरकार और उसके प्रवर्तन तंत्र द्वारा निरंतर ऐसे प्रगतिशील प्रयास किए जा रहे हैं, जो मानवाधिकारों का संरक्षण कर रहे हैं और विभिन्न कार्य विधियों का निरीक्षण हो रहा है। ऐसी सामाजिक कुरीतियां और प्रथाएं चलन से बाहर हो रही हैं, जिन्हें मानवीय गरिमा का विरोधी पाया जाता रहा है। फिर भी बहुत कुछ ऐसा है, जिसे किया और पाया जाना अभी बाकी है।
मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा-पत्र जहां मानव परिवार के समस्त सदस्यों की अंतर्निहित गरिमा तथा उनके सम्मान और अधिकारों की मान्यता, विश्व में स्वतंत्रता, न्याय और शांति का आधार बना, वहीं बाद में यह अनुभव किया गया कि इसमें उल्लिखित एक से तीस अनुच्छेदों में जिन अधिकारों को संरक्षित और संवर्धित करने की बात कही गई है, उन सबके लिए क्रमश: विशिष्ट घोषणा-पत्र अभिसमय, प्रसंविदाएं, ऐच्छिक संदेशाचार, यमावलियां और मार्गदर्शिकाएं, भी बनाई गर्इं ताकि उनको विशिष्ट रूप से हस्ताक्षरित और अंगीकृत करने वाले राज्य पक्षकारों को इस बात के लिए बाध्य किया जा सके कि वह अपने राज्य में इस बाबत विधियां बनाएं और सभी मनुष्यों के मानवाधिकारों को संरक्षित करने के लिए यथोचित प्रयास करें।
पर जब भी राज्य विशेष के संदर्भ में मानवाधिकारों की बात की जाती है तो प्रश्न उठता है राज्य के विभिन्न अभिकरणों का, जिसे मूल रूप से प्रवर्तन तंत्र कहा जाता है, उनके द्वारा मानवाधिकारों का संरक्षण किस प्रकार किया जा रहा है? क्या खामियां हैं? क्या सीमाएं हैं? क्या परेशानियां हैं? और किस प्रकार उन्हें दूर किया जा सकता है? और क्या समय के साथ यह भी महसूस किया गया है कि कुछ नए मानवाधिकारों को भी मान्यता देने की आवश्यकता है? क्या कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जो अब तक अनछुए हैं? क्या मानवाधिकारों की इस लंबी विकास यात्रा में कुछ ऐसे भी पड़ाव हैं, जहां विभिन्न मानवाधिकारों के बीच ही एक संघर्ष की स्थिति बन गई है?
जिम्मेदारी और जवाबदेही मात्र शब्द नहीं, बल्कि वह बोध है, जिसका अभाव होने पर हर मानव अमानव है और हर संस्था अमानवीय।विश्वास से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है विश्वास पर खरे उतरने का सच्चा प्रयास। न्याय की संकल्पना को यथार्थवादी धरातल पर पहुंचाने के लिए समग्र प्रयास और समेकित पहल की आवश्यकता है। इसकी पुरजोर वकालत वर्तमान प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण ने संविधान दिवस के मौके पर की थी। उन्होंने न्याय प्रादाताओं पर होने वाले हालिया आक्रमणों पर भी चिंता जाहिर की। अब तक जहां केवल मीडिया, खासकर सोशल मीडिया, आक्रामक रहता था, वहीं अब न्यायाधीशों पर होने वाले शारीरिक हमले गंभीर विवेचना का विषय बन गए हैं।
ऐसी महिलाएं, जिन पर माओवादियों के साथ होने का आरोप लगा कर गिरफ्तार किया जाता है, उनको पुलिस हिरासत में विभिन्न प्रकार की यातनाएं दी जाती हैं, उनका यौन शोषण होता है और कई वर्षों बाद उन्हें सभी आरोपों से बरी भी कर दिया जाता है। उनके मानवाधिकारों का क्या हासिल है? यह एक गंभीर प्रश्न है।
बात जब विभिन्न जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों या दोष सिद्ध कैदियों की होती है और जहां एक तरफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह पहल कि विधि के छात्रों के बीच सार्वजनिक सेवा की भावना को बढ़ावा देकर विधिक सहायता प्रणाली के माध्यम से दिल्ली में कैदियों को न्याय तक पहुंच में सुधार करने के लिए प्रारंभ की गई प्रायोगिक परियोजना एक राहत भरी खबर बनती है, वहीं जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों या दूसरे कैदियों के मानवाधिकारों से इतर कुछ और गंभीर प्रश्न उठते हैं। मसलन, उन पर निर्भर रहने वाले बच्चों के मानवाधिकार का प्रश्न, जो बिना किसी गलती के अपने आरोपित माता-पिता के कैद में जाने मात्र से महरूम हो गए हैं अपने मौलिक और स्वाभाविक मानवाधिकारों से। कैसे हो उनका संरक्षण? कौन-सी नीति बने उनके लिए? यह प्रश्न गंभीर है और विचारणीय भी।
देश की विभिन्न जेल आचार संहिताएं जहां इस बात की व्यवस्था करती हैं कि किसी महिला के बंदी होने की स्थिति में उसके बच्चे छह वर्ष की उम्र तक उसके साथ रह सकते हैं, वह प्रावधान एक मानवाधिकार का संरक्षण है, तो अन्य मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन भी है। कानून सात वर्ष से ऊपर के बालकों के अभियोजन, विचारण और निरुद्धि के लिए विशेष प्रावधान करते हुए यह सुनिश्चित करती है कि किशोरवय के किसी बालक को वयस्क अपराधियों की संगति में न रखा जाए। वहीं इस बात के पुख्ता प्रमाण होने के बाद भी कि बच्चों की सीखने की क्षमता का सर्वाधिक विकास उनके गर्भ में आने की अवधि से एक हजार दिनों तक होता है, छह वर्ष तक महिला जेल में अपनी मां और अन्य महिला कैदियों की संगति में रखना कितना प्रासंगिक है?
यहां इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अट्ठाईसवें स्थापना दिवस समारोह में प्रधानमंत्री ने चेतावनी दी थी कि मानवाधिकारों की चयनात्मक विवेचना न की जाए और यह कहना कि मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन तब होता है जब उन्हें राजनीति और राजनीतिक लाभ-हानि के चश्मे से देखा जाता है। महत्त्वपूर्ण है।
इसी मौके पर मानव अधिकार आयोग के हवाले से यह जानकारी दी जाती है कि 1993 में स्थापित आयोग अपनी स्थापना के अट्ठाईस वर्ष पूरे होने तक बीस लाख से अधिक मामलों का निपटारा कर चुका है और 205 करोड़ से अधिक का भुगतान मौद्रिक राहत के रूप में किया जा चुका है। पर अपने योगदान पर गर्व करते आयोग का खुद को एक दंत विहीन शेर की संज्ञा देना भी गंभीर प्रश्न खड़ा करता है।
मानवाधिकार आयोग के वर्तमान अध्यक्ष द्वारा मानवाधिकार के जो मुद्दे उठाए गए, उनमें से कुछ का जिक्र प्रासंगिक है। जैसे, लोगों को सस्ती कीमत पर त्वरित न्याय के लिए प्रभावी और दीर्घकालिक नीतियां, पुलिस जांच प्रणाली को मजबूत करना, गरीबों को सस्ती कीमतों पर जीवन रक्षक दवाएं उपलब्ध कराना और यह सुनिश्चित करना कि ऐसी दवाओं और टीकों के पेटेंट धारकों के अधिकारों के बजाय जीवन के अधिकार को महत्त्व दिया जाए।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा इस वर्ष मानवाधिकारों के विभिन्न मुद्दों पर छह अध्ययन कराए जाने हैं, जिसमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की खाद्य सुरक्षा, बच्चों के साइबर शोषण का विस्तार और कार्यबल में महिलाओं की गिरती भागीदारी तथा एलजीबीटी समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य और मादक द्रव्यों के सेवन का विषय प्रमुखता से लिया गया है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि मानव अधिकारों की इस लंबी यात्रा में कुछ मिला है और कुछ बाकी है यानी थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है। सभी के और समस्त मानवाधिकारों के बीच संतुलन, संवर्धन और संरक्षण के प्रति हमारी प्रतिबद्धता मजबूत रहनी चाहिए।