हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने केरल राज्य सड़क परिवहन निगम को एक सड़क हादसे में पीड़िता को इस आधार पर मुआवजा देने से इनकार करने पर फटकार लगाई कि पीड़िता गृहिणी है। वह कोई पैसा नहीं कमाती, इस वजह से वह दिव्यांगता और अन्य सुविधाओं के लिए मिलने वाले मुआवजे की सुपात्र नहीं है। न्यायालय ने इस तर्क को अपमानजनक और समझ से परे बताया।
न्यायालय ने कहा कि हादसे के लिए मुआवजा एक गृहिणी और कामकाजी महिला के लिए समान होना चाहिए। गृहिणी भी अपने परिवार को पूरा समय देती है। इस मामले में अदालत ने गृहिणी की भूमिका को राष्ट्र निर्माता बताते हुए बेहतर मुआवजा देने का आदेश दिया। दरअसल, घरेलू मोर्चे पर सब कुछ संभालने के बावजूद महिलाओं को कुछ न करने वाली भूमिका में देखा जाना हमारे यहां आम बात है। घर की जिम्मेदारियां संभालने वाली इन महिलाओं की आय को मौद्रिक रूप में न आंके जाने के कारण उनकी आपाधापी और योगदान को जरा कम करके ही देखा जाता है।
सामाजिक-पारिवारिक बर्ताव से लेकर महिलाओं के लिए बनने वाली नीतियों और योजनाओं की रूपरेखा तक पर, उन्हें कमतर समझने की इस सोच का असर साफ दिखता है। तभी तो गृहिणियों के लिए कहीं कोई विशेष प्रावधान नजर नहीं आता। जबकि गृहिणियां अपने से ज्यादा प्राथमिकता अपनों और अपने से जुड़े संबंधों को देती हैं। ऐसे में गृहिणी की भूमिका पर न्यायाधीश का यह कहना कि ‘एक मां और पत्नी के रूप में उनका योगदान अमूल्य है’, वाकई विचारणीय है। इसका सीधा संदेश यही है कि महिलाओं की आम-सी लगने वाली इस भूमिका को खास नजरिए से समझा जाना आवश्यक है।
गौरतलब है कि 2020 में मुंबई हाईकोर्ट ने भी एक महत्त्वपूर्ण आदेश में एक महिला की सड़क दुर्घटना में हुई मौत के मामले में उसके परिजनों को मुआवजा देने का आदेश दिया था। अदालत ने वाहन दुर्घटना पंचाट के उस आदेश को खारिज कर दिया था, जिसमें महिला के परिजनों को उसके गृहिणी होने की वजह से मुआवजा देने से इनकार किया गया था। तब भी न्यायालय ने बेहद संवेदनशील टिप्पणी की थी कि ‘गृहिणी के रूप में एक महिला की भूमिका एक परिवार में सबसे महत्त्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण होती है।
वास्तव में वह भावनात्मक रूप से परिवार को एक साथ रखती है। वह घर में पति का सहयोग करने वाला एक स्तंभ, अपने बच्चों के लिए एक मार्गदर्शक और परिवार के बुजुर्गों के लिए आश्रय की तरह होती है। वह एक दिन की भी छुट्टी लिए बिना दिन-रात काम करती है, भले वह कामकाजी महिला हो या न हो।
हालांकि, वह जो काम करती है, उसकी कोई सराहना नहीं होती और उसे नौकरी नहीं माना जाता है। एक महिला द्वारा घर में दी जाने वाली सेवाओं को मौद्रिक दृष्टि से गिनना एक असंभव कार्य है, जो सैकड़ों घटकों से मिलकर बने होते है।’ कोरोना काल में गृहिणियों द्वारा न केवल अपनों, बल्कि आस-पड़ोस के लोगों तक भी मदद पहुंचाने के कई उदाहरण सामने आए थे। घर तक सिमटी जिंदगी के तकलीफदेह दौर में भी घरेलू महिलाओं ने हर आपाधापी से जूझते हुए अपनों को संभाला था।
दरअसल, न्यायिक मामलों में आई ये टिप्पणियां कहीं न कहीं समाज और परिवार को भी सजग करने वाली हैं। घरेलू महिलाओं की भागीदारी को लेकर सही मायने में जागरूक करती है। यकीनन, श्रम की अनदेखी और उपेक्षापूर्ण बर्ताव के मोर्चे पर समग्र समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता जरूरी है। यों भी विभिन्न संस्थानों और संगठनों से लेकर घरेलू स्त्रियों के सगे-संबंधियों तक, सभी को उनकी इस सिमटी-सी दिखने वाली भूमिका के विस्तृत दायित्वों को समझने का प्रयास करना ही चाहिए।
गौरतलब है कि पिछले साल ऐसे ही एक मामले में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘गृहिणियां काम नहीं करतीं या वे घर में आर्थिक योगदान नहीं देतीं, यह धारणा ही समस्यापूर्ण है। कई वर्षों से ऐसी समझ कायम है और इसे दूर किया जाना चाहिए।’ समझना मुश्किल नहीं कि एक गृहिणी की बहुआयामी भूमिका को सही ढंग से समझे बिना उनके हिस्से सहयोग और सम्मान भी नहीं आ सकता। ऐसे में उपेक्षापूर्ण व्यवहार-विचार से उपजी अनदेखी उनके मान और मनोबल को ठेस पहुंचाती है।
बावजूद इसके, अपनों-परायों का यह रुख कमोबेश दुनिया के हर भूभाग की गृहिणियों के हिस्से आता है, जबकि सच तो यह है कि उनके अवैतनिक कार्यों का मोल आंकना लगभग नामुमकिन है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि विश्व में महिलाएं अवैतनिक घरेलू कार्यों के लिए कुल घंटों का छिहत्तर फीसद समय देती हैं। एशियाई देशों में यह आंकड़ा अस्सी फीसद से भी ज्यादा है।
हमारे देश में ऐसी महिलाओं की आबादी करीब बीस करोड़ है। हर महीने उनके अवैतनिक घरेलू कार्यों का मौद्रिक आकलन औसतन चालीस हजार करोड़ रुपए तक पहुंचता है। वहीं आक्सफैम की ‘टाइम टू केयर’ की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में आधी आबादी साल भर में करीब दस हजार अरब डालर के अवैतनिक घरेलू कार्य करती है। ऐसे में उनकी इस भागीदारी का मोल समझना और स्वीकार करना आवश्यक है। यह स्वीकार्यता और समझ अपने ही आंगन में उनके काम को मान दिलाने की पहली शर्त है।
यह कड़वा सच है कि गृहिणियों को दूसरों पर निर्भर व्यक्तित्व के रूप में ही देखा जाता है। जबकि आर्थिक रूप से सक्षम और कामकाजी मोर्चों पर व्यस्त परिजनों के जीवन की संभाल उनके ही हिस्से होती है। अपनी जिम्मेदारियां उठाने की व्यस्तता कामकाजी क्षेत्र में उनकी उत्पादकता को ही घटाएगी। ऐसे में परोक्ष रूप से हर गृहिणी अर्थोपार्जन की गतिविधियों में भागीदार होती है। हालांकि इसे समझने का भाव आज भी नदारद है। यही वजह है कि अब दुनिया के हर हिस्से में घरेलू मोर्चे पर डटी महिलाओं की भूमिका का आर्थिक मूल्यांकन करने की बात उठ रही है।
बीते साल चीन में तलाक के मामले में आया एक फैसला काफी चर्चित हुआ था। उसमें न्यायालय ने कहा था कि शादी के बाद महिला ने पति के घर में पांच साल काम किया, इसलिए उसे पांच लाख रुपए का मुआवजा मिलना चाहिए। वह आदेश ऐतिहासिक माना गया। उसके बाद वहां घर के कामों के मेहनताने को लेकर बहस भी शुरू हुई। यह दुनिया के हर देश, हर समाज और हर परिवार से जुड़ा संवेदनशील विषय है।
दरअसल, अनगिनत जिम्मेदारियां निभाने वाली गृहिणी की पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक भागीदारी की अनदेखी कई मोर्चों पर तकलीफदेह है। इस उपेक्षा के चलते गृहिणियों में अवसाद और आत्महत्या के आंकड़े भी बढ़ रहे हैं। उनके श्रम और सहभागिता को मान न मिलना अपराधबोध को भी जन्म देता है।
नतीजतन, बहुत-सी शारीरिक, मानसिक व्याधियां भी उन्हें घेर लेती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में सर्वाधिक खुदकुशी करने वालों में दिहाड़ी मजदूरों के बाद गृहिणियों के आंकड़े ही रहे। ऐसे में उनके जीवन की सहजता के लिए समग्र समाज का इस भेदभावपूर्ण मानसिकता से बाहर आना आवश्यक है। उनके श्रमशील व्यक्तित्व की आपाधापी को समझना जरूरी है।
घर तक सिमटी जिंदगी जी रही महिलाओं की मन:स्थिति समझने का परिवेश बनाने की दरकार है। सबके मन को समझने वाली महिलाओं के लिए भी समाज और परिवार का संबल आवश्यक है। यही वजह है कि ऐसे न्यायिक निर्णय समाज के लिए अहम संदेश लिए होते हैं। नए विमर्श को जन्म देते हैं।