धर्मेंद्र प्रताप सिंह

सोलहवीं सदी की औद्योगिक क्रांति और ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन के साथ ही भारत में उपनिवेशवाद का उदय हुआ और ब्रिटेन का आधिपत्य पूरी दुनिया ने स्वीकार किया। समय के साथ जब ‘उपनिवेशवाद’ कमजोर पड़ा तो इसका स्थान ‘नव उपनिवेशवाद’ ने ग्रहण कर लिया, जिसे विकसित राष्ट्रों ने ‘भूमंडलीकरण’ के रूप में प्रचारित किया। विश्व की शक्ति ब्रिटेन से स्थानांतरित होकर अमेरिका के हाथों में चली गई और अमेरिका ने एशियाई व अफ्रीकी देशों पर दबाव बनाए रखने के लिए नीतियां तैयार कीं। सन 1945 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) विश्व बैंक नामक संस्थाओं का गठन इन्हीं नीतियों का विस्तार मात्र था। इन संगठनों के दबाव में भारत ने 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाई और साथ ही संचार माध्यमों का तेजी से विकास हुआ। संचार क्रांति ने भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में तीव्रता लाते हुए तीसरी दुनिया के देशों को ‘वैश्विक गांव’ का सपना दिखाया, जिसका असली रूप आज हम सभी के सामने है। वस्तुत: भूमंडलीकरण यूरोपीय देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में व्यापार को बढ़ावा देने के लिए विकसित नीति है। राष्ट्र की सुख-समृद्धि के लिए इसकी राजनीति को समझना बहुत आवश्यक है।

आज भूमंडलीकरण का दायरा दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। भूमंडलीकृत समाज में अमीर और ज्यादा धनपति व गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं। मौजूदा दौर भूमंडलीकरण का न होकर नव उपनिवेशीकरण का है। यह सोलहवीं सदी के उपनिवेशवाद का ही विस्तार है जिसने तीसरी दुनिया के देशों को बाजार के माध्यम से पुन: गुलाम बनाना प्रारंभ कर दिया है। एक समय था जब मनुष्य की आवश्यकतानुसार वस्तुओं का निर्माण किया जाता था। लेकिन नव उपनिवेशवादी युग में बाजार के अनुसार मनुष्य को ढाला जा रहा है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बाजार का दखल बढ़ता जा रहा है। अंग्रेजी शासनकाल में नील की खेती के लिए भारतीय किसानों पर दबाव बनाया गया और उन्हें अन्न का उत्पादन करने से रोकने का मुख्य कारण व्यापार में मुनाफा कमाना था। इसके परिणामस्वरूप किसानों के भूखे मरने की नौबत आ गई थी।

विकासशील व्यवस्थाओं के शोषण के लिए ‘नव उपनिवेशवाद’ विकसित व्यवस्थाओं द्वारा प्रस्तुत वह राजनीति है जिसमें उपनिवेशवादी राष्ट्र विकासशील देशों पर अपना सीधा राजनीतिक प्रभुत्व नहीं स्थापित करते, लेकिन उन पर विकास के नाम पर वित्तीय, आर्थिक, प्रौद्योगिक सहायता प्रदान करने की आड़ में दबाव बनाए रखते हुए उनका शोषण करते रहते हैं। इनके पास अपने औद्योगिक विकास के लिए पर्याप्त पूंजी और प्रौद्योगिकी है जिसके सहारे वे अपने इस कुचक्र में सफल हो रहे हैं।

नव उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ‘नव उपनिवेशवाद’ शब्द विकासशील देशों में विकसित देशों की भागीदारी के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। द्वितीय महायुद्ध के बाद नव उपनिवेशवाद की प्रक्रिया गतिमान हुई और अस्सी के दशक तक आते-आते यह तीव्र होती गई। उपनिवेशवाद और नव उपनिवेशवाद दोनों के केंद्र में बाजार है। अंतर सिर्फ यह है कि उपनिवेशवाद में शक्तिशाली राष्ट्र प्रत्यक्ष रूप से देश की सीमा के भीतर जाकर राजनीतिक हस्तक्षेप करते हुए व्यापार करते थे, जबकि नव उपनिवेशवाद के अंतर्गत नवीन संचार माध्यमों जैसे- रेडियो, समाचार पत्र, टेलीविजन, मोबाइल, कंप्यूटर आदि के माध्यम से बिना किसी देश की सीमा में प्रवेश किए ही उत्पादित सामग्री का क्रय-विक्रय किया जा रहा है। आॅनलाइन कारोबार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां अत्याधुनिक बाजार के नव विकसित रूप हैं।

भूमंडलीकरण एक ऐसे व्यापक संजाल तंत्र का नाम है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि सभी तत्त्व एक विराट उत्स के साथ विद्यमान हैं। इसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक एकीकरण है। भूमंडलीकरण के लिए एक ऐसी प्रधान आर्थिक शक्ति की आवश्यकता पड़ती है जिसकी राष्ट्रीय मुद्रा को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में मान्यता मिल चुकी हो। वर्तमान परिवेश में ये सभी तत्त्व अमेरिका में परिलक्षित होते हैं। प्रारंभिक दौर में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का बहुत बड़ा भाग उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के बीच व्यापार के रूप मेंं होता था। इसमें कृषि उत्पादों के बदले कारखाने में बने माल का आदान-प्रदान किया जाता था। बाद में उद्योगों के बीच व्यापार होने लगा। भूमंडलीकरण के युग में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का अधिक से अधिक भाग सीमाओं के आर-पार, लेकिन एक ही फर्म की दो शाखाओं या कंपनियों के मध्य विनिमय के रूप में हो रहा है। इसने भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों पर अत्यधिक प्रभाव डाला है।

अठारहवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति ने विश्व के समाज, राजनीति, अर्थ, संस्कृति आदि पर गहरा प्रभाव डाला। ज्ञान-विज्ञान के नए युग में साहित्य और विचारधारा भी इससे अछूते नहीं रहे। इसी से नवीन विचारधाराओं- आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता, मार्क्सवाद, नव-मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषणवाद, संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद आदि का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें से अधिकांश का उद्गम यूरोप ही रहा। यूरोप से होते हुए ये एशियाई और तीसरी दुनिया के देशों तक फैले और वहां के साहित्य, समाज एवं संस्कृति को प्रभावित करना शुरू कर दिया। आज नव उपनिवेशीकरण के समय में मानव जीवन में मशीनों के हस्तक्षेप से संवेदना का निरंतर ह्रास हो रहा है और मानव की जीवन शैली यंत्रवत होती जा रही है। इसका दुष्परिणाम समाज में बिखराव के रूप में सामने अया है। हमारे परंपरागत रीति-रिवाज, तीज-त्योहार, खान-पान, वेश-भूषा आदि सभी को नव उपनिवेशवादी शक्तियां पिछड़ा हुआ और त्याज्य बता कर बाजार के माध्यम से अपनी संस्कृति हम पर थोपना चाहती हैं।

आज का दौर भले ही भूमंडलीकरण का हो, लेकिन भूमंडलीकरण का जो रूप दिखाई पड़ रहा है वह उनके लिए है जो विश्व बाजार के अंग हैं। आज हमारी संस्कृति से ‘समाज’ नाम का पद समाप्त होता जा रहा है और मनुष्य एकाकी जीवन यापन में विश्वास करने लगा है। विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों में सरकारें, कंपनियां, संस्थाएं, माफिया आदि ही बचे हैं और निर्धन व आम आदमी हाशिये पर चला गया है।

बाजार मानव सभ्यता के विकास से ही मनुष्य के केंद्र में रहा है जहां जन समुदाय एकत्रित होकर अपनी जरूरतों को पूरा करते हुए एक-दूसरे की हाल-खबर लेते थे। ये रोजगार के केंद्र भी हुआ करते थे। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही इसके रूप में भी परिवर्तन हुआ और यह पूंजीपतियों के हाथ में चला गया। सोलहवीं सदी में उपनिवेशवाद और आज भूमंडलीकरण बाजार के निरंतर बदलते रूप का ही प्रतिफलन है। विकास के चरण में एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब बाजार का लक्ष्य मनुष्य की जरूरतों से हट कर मुनाफा कमाना हुआ तो इसकी आड़ में राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति, कला, साहित्य आदि सभी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और मानवता को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसे आज भूमंडलीकरण की पड़ताल कर समझा जा सकता है। आज हमें भूमंडलीकरण के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन-चिंतन कर भविष्य को ध्यान में रख कर कोई निर्णय लेना चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि हमारी मुद्रा दिनोंदिन कमजोर हो रही है जिसका मुख्य कारण देश में आई बाजार की नई नीति के माध्यम से आयात में बढ़ोत्तरी है। इसके कारण हमारा निर्यात भी गिरता जा रहा है।

ऐसा नहीं कि भूमंडलीकरण ने हमें सकारात्मक रूप में कुछ भी नहीं दिया। आज हमारे जीवन स्तर, यातायात, संचार, चिकित्सा, तकनीक आदि में सुधार तो हुआ है, लेकिन अनियंत्रित विकास प्राणहंता बन रहा है। हमें अपनी आवश्यकताओं पर नियंत्रण रखते हुए भविष्य के लिए सोचना होगा। आने वाले समय में हमें जल-जंगल-जमीन, तेल, र्इंधन, औद्योगिक कचरा, पर्यावरण, शहरीकरण, जनसंख्या, शिक्षा, कृषि, गरीबी आदि न जाने कितनी चुनौतियों से जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए जो भूमंडलीकरण के प्रतिफल बाजार और उसकी आड़ में फलित नई सभ्यता की देन है। सही शिक्षा और ईमानदार प्रयास ही हम ऐसी समस्याओं से बच सकते हैं।