अतुल कनक
इस बार के केंद्रीय बजट में केन-बेतवा जोड़ परियोजना के लिए एक हजार चार सौ करोड़ रुपए देने की घोषणा की है। देश में नदियों को जोड़ कर विविध हिस्सों में जल संकट की समस्या का समाधान करने की दृष्टि से तैयार की गई नीति के तहत केन-बेतवा परियोजना सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस परियोजना के लिए पिछले साल मार्च में केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय का उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सरकारों से एक करार हुआ था। इस परियोजना पर करीब चवालीस हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे।
गौरतलब है कि केन और बेतवा दोनों ही यमुना की सहायक नदियां हैं। केन नदी मध्यप्रदेश की कैमूर की पहाड़ियों से निकल कर चार सौ सत्ताईस किलोमीटर की यात्रा तय करने के बाद उत्तर प्रदेश में बांदा के पास यमुना नदी में मिल जाती है, जबकि बेतवा नदी मध्यप्रदेश के रायसेन से निकल कर पांच सौ छिहत्तर किलोमीटर का प्रवाह क्षेत्र तय करके उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में यमुना नदी में मिल जाती है। इस परियोजना के तहत दोनों नदियों को परस्पर जोड़ने के लिए दो सौ इक्कीस किलोमीटर लंबी लाइन नहर बनेगी, जिससे अधिक जल राशि वाली केन नदी का पानी बेतवा नदी में स्थानांतरित किया जा सकेगा।
बेतवा नदी का अपना एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है, क्योंकि सांची और विदिशा जैसे सांस्कृतिक नगर इसके किनारे बसे हुए हैं। उधर, केन नदी अनेक रोचक प्रसंगों से जुड़ी है। महाभारत में केन नामक कन्या का उल्लेख है। केन नदी का इसलिए भी विशिष्ट है कि इसमें अपनी तरह का अनूठा शजर नामक पत्थर पाया जाता है जो ईरान में ऊंचे दामों पर बिकता है। जानकारों का कहना है कि सारी दुनिया में यह पत्थर केवल इसी नदी में पाया जाता है। उम्मीद है कि केन और बेतवा नदी को जोड़े जाने के बाद उस बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की समस्या का समाधान हो सकेगा, जो प्राय: हर गर्मी में अकाल का सामना करता है।
नदियों को परस्पर जोड़ने की परिकल्पना आजादी से भी पहले सन 1858 में सर आर्थर थामस काटन नाम एक ब्रिटिश सिंचाई इंजीनियर ने की थी। सन 1971-72 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने गंगा और कावेरी को जोड़ने का सुझाव दिया था। लेकिन इस कार्य की व्यावहारिक दिक्कतों और उपयोगिता पर लगे प्रश्नचिह्न ने इस बात को आगे नहीं बढ़ने दिया। नब्बे के दशक में नदियों को आपस में जोड़ने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने की संभावनाओं और देश-समाज पर पड़ने वाले उसके असर के अध्ययन के लिए एक आयोग का गठन भी हुआ था।
13 अक्तूबर 2002 को भारत सरकार ने अमृत क्रांति के रूप में नदी संपर्क योजना का प्रारूप पारित किया जिसमें तीन दर्जन से अधिक नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव था। इस योजना में नदियों के बीच बांध और जल भंडारण के लिए जलाशय बनाने जैसे प्रस्ताव भी शामिल थे। फिर एक जनहित याचिकार पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह नदियों को जोड़ने की योजना को तैयार कर सन 2015 तक उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करे।
लेकिन नदियों को जोड़ने की दिशा में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हो पाई है। इसके कई कारण हैं। विभिन्न राज्यों के बीच नदियों के जल बंटवारे को लेकर होने वाले विवादों ने भी इस अनिर्णय की स्थिति को बनाए रखने में कम भूमिका नहीं निभाई है। जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय की पहल पर ‘अंतर प्रवाह क्षेत्र जल अंतरण’ विषय पर एक रिपोर्ट तैयार हुई थी।
इसके अनुसार तीस नहरें, तीन हजार जलाशयों और चौंतीस हजार मेगावाट क्षमता वाली जल विद्युत परियोजनाऐं तैयार होनी थीं। सन 2002 में इस संपूर्ण परियोजना की लागत बारह करोड़ तीस लाख डालर आंकी गई थी। यह लागत इतने वर्षों बाद निश्चित रूप से कई गुना बढ़ गई है। भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए किसी एक परियोजना पर इतना व्यय वहन कर पाना आसान नहीं है।
सन 2022-23 का बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री ने केन-बेतवा परियोजना के लिए एक हजार चार सौ करोड़ रुपए देने के साथ ही पांच नदियों को परस्पर जोड़ने का प्रस्ताव भी रखा। इनमें तीन प्रस्तावित योजनाएं दक्षिण भारतीय नदियों से संबंधित हैं। बजट प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि इन परियोजनाओं के लिए उन राज्यों की सहमति आवश्यक होगी, जिन राज्यों में कोई नदी विशेष प्रवाहित होती है। लेकिन दक्षिण भारत में अभी से इसके विरोध के स्वर उठने शुरू हो चुके हैं।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने केंद्र की घोषणा के औचित्य पर सवाल उठाते हुए कहा है कि नदियों से जुड़े राज्यों के बीच पंचाटों के फैसले के जरिए पानी का बंटवारा होता है। ऐसे में नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव नए विवाद खड़े करेगा। आंध्रप्रदेश और कर्नाटक से भी प्रस्ताव के विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए हैं।
उधर, पर्यावरणवादियों का कहना है कि नदियों को परस्पर जोड़ने से उनके पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर पड़ेगा, क्योंकि हर नदी का अपना विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र होता है और नदियों को जोड़ने से किसी नदी विशेष के जल में रहने वाले जीवों के सामने अस्तित्व का संकट भी पैदा हो सकता है। नदियों को जोड़ने की नीति का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि सरकार को नदियों को आपस में जोड़ने से ज्यादा ध्यान लोगों को नदियों से जोड़ने पर देना चाहिए, ताकि लोग नदियों से जुड़ाव महसूस कर सकें। इससे नदियों की उपेक्षा का सिलसिला समाप्त होगा और उन्हें बचाने में मदद मिलेगी।
इसके अलावा धरती की सतह पर गिरे वर्षा जल जो नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंच जाता है, के संरक्षण के लिए भी नए जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिए। देश के एक बड़े हिस्से में जल संकट का एक कारण यह है कि भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। जब तक उन इलाकों में भूजल स्तर को बढ़ाने के प्रयास नहीं होंगे, जल उपलब्धता की दिशा में पनपे संकट का सटीक समाधान नहीं किया जा सकेगा।
यह महत्त्वपूर्ण है कि देश में सतह पर मौजूद करीब सात करोड़ क्यूबिक मीटर जल में से केवल पैंसठ प्रतिशत जल का ही उपयोग हो पाता है, शेष जल समुद्र में चला जाता है। समुद्र में जाने वाले जल का मानव हित में उपयोग आवश्यक है। नदियों को यदि आपस में जोड़ा जाता है, तो उसके कुछ फायदे हो सकते हैं। निर्धारित तरीके से पानी का स्थानांतरण संभव हो सकता है और सूखे व बाढ़ से राहत मिलेगी, सिंचाई योग्य जमीन में पंद्रह प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है, जल परिवहन को प्रोत्साहन मिलेगा और नए पर्यटन केंद्र भी विकसित हो सकते हैं। लेकिन नदियों को जोड़ने के बाद जल व्यवस्थापन के लिए बनाए गए बांधों से भूमि दलदली होगी और उससे खाद्यान्न उत्पादन में भी कमी होगी।
शायद इसीलिये एक पर्यावरणविद का कहना है कि ‘नदियों को जोड़ने से होने वाले आर्थिक लाभों का मूल्यांकन करते हुए उसे प्राकृतिक संसाधनों की पूंजी के नुकसान के मुकाबले तोलना चाहिए और उसके बाद ही नदियों को जोड़ने की नई परियोजनाओं पर काम शुरू करना चाहिए।’ नदियों को जोड़ना उपयोगी कदम हो सकता है, लेकिन उसके पहले विशेषज्ञों और नीति नियंताओं को इस बात का ध्यान रखना होगा कि नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचे, वरना विकास की राह में नए अवरोध भी खड़े होते देर नहीं लगेगी।