परमजीत सिंह वोहरा

अगले महीने यानी जुलाई में वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) अपनी पांचवी वर्षगांठ मनाने जा रहा है। इन पांच वर्षों में देश आर्थिक सुधारों के नए दौर से गुजरा है। वर्ष 2017 में भारत में इसे ‘एक देश एक कर’ की सोच के साथ लागू किया गया था।

यह एक बड़ा और क्रांतिकारी कदम इसलिए भी था क्योंकि तब देश की अर्थव्यवस्था उस मुकाम पर थी जहां उसे अगले आर्थिक सुधारों में राजस्व संग्रह में वृद्धि को प्राथमिकता में रखना था। तीन दशक पूर्व शुरू किए गए आर्थिक सुधारों का प्रभाव सुस्त पड़ने लगा था।

आर्थिक प्रगति के लिए विभिन्न क्षेत्रों जैसे बुनियादी ढांचे के विकास के लिए पूंजी की आवश्यकता भी थी। गरीब तबके के उत्थान के लिए नई सामाजिक योजनाएं भी शुरू करनी थीं और जो योजनाएं चल रही थी, उन्हें विस्तार देना था। तब यह महसूस किया जा रहा था कि अर्थव्यवस्था में विकास तभी संभव है जब अधिक राजस्व आए।

राजस्व संग्रहण के मुद्दे पर अरसे से आम सोच बनी हुई थी कि हमारी कर प्रणाली बहुत जटिल है। विभिन्न प्रकार के करों ने करदाताओं को अनावश्यक रूप से भयभीत कर रखा था। यही कारण था कि लोग जाने-अनजाने में कर चोरी करते थे और इसमें व्यापारी तबका भी शामिल था। इसलिए सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती थी कि इस कर व्यवस्था को बदला कैसे जाए?

जुलाई 2017 में जीएसटी व्यवस्था को अमलीजामा पहना दिया गया था। उस समय सरकार ने कुछ उद्देश्य रखे थे जिनमें अर्थव्यवस्था में राजस्व वृद्धि और विकास दर में तेजी लाना प्रमुख था। इस नई कर व्यवस्था से आमजन को भी दो फायदे होने की बात थी, जिसमें पहला महंगाई से राहत और दूसरा आयकर की दरों से।

हालांकि तब यह कहा जाता रहा कि सरकार ने जीएसटी व्यवस्था लागू करने में जल्दबाजी कर दी। यह भी कि इस अधिनियम से संबंधित बनाए गए विभिन्न समूहों को सुझाव, विचार-विमर्श के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया गया।

सत्तर फीसद छोटे व्यापारी कंप्यूटर या दूसरी तकनीक का उपयोग ही नहीं करते थे तो वे कैसे इस नई कर व्यवस्था में ढल पाएंगे? आम लोगों को भी जीएसटी के बारे में जागरूक नहीं बनाया था, जिससे यह लग रहा था कि इस कानून को लेकर लोगों में भ्रम फैलेगा और कानूनी विवाद तेजी से बढ़ेंगे। यानी जीएसटी लागू करते वक्त एक अनिश्चितता का माहौल बनता जा रहा था।

हालांकि तब सरकार की ओर से बार-बार यह भरोसा दिलाने की कोशिशें होती रहीं कि इससे ग्राहक को भी फायदा होगा और उत्पाद्रों व व्यापारियों को भी। इसीलिए यह सवाल भी उठते रहे कि जब सभी को फायदा होगा तो फिर नुकसान किसको होगा? आखिर ऐसा क्या है इस कानून में कि इसका बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है?

यह सवाल भी प्रमुखता से उठता रहा कि इस कानून के माध्यम से कर संबंधी अधिकार संसद से हट कर जीएसटी परिषद के पास चले जाएंगे। इस अधिनियम की छवि मुनाफाखोरी के विरुद्ध थी। इस कारण बड़े व्यापारियों व उद्योग धंधों को आंशका थी कि उनकी सामाजिक व कर्मचारियों के कल्याण संबंधी योजनाएं इससे प्रभावित होंगी। छोटे व्यापारी इस बात से सहमे हुए थे कि अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के पालन करने के चक्कर में उनकी लागत बढ़ेगी।

आज के परिदृश्य में अगर इस अधिनियम का विश्लेषण किया जाए तो शुरुआती स्तर पर रखे गए उद्देश्यों की पूर्ति ही उसका एक आधार बनता है। अधिनियम के जरिए करीब सत्रह तरह के अप्रत्यक्ष करों को हटा दिया गया और सनतानवे फीसद वस्तुओं पर कर की समान दर लागू कर दी गई। वह दर अठारह फीसद तक है, जबकि पहले तीस फीसद से ऊपर जा रही थी।

इन सबका प्रत्यक्ष फायदा यह हुआ कि करदाताओं की संख्या में वृद्धि हुई, क्योंकि एक तरफ जहां विभिन्न तरह के कर खत्म हो गए, वहीं दूसरी तरफ करों दरें भी तुलनात्मक रूप से कम हुईं। आंकड़ों के अनुसार पहले दो वर्षों में ही अस्सी फीसद नए करदाता भारतीय कर प्रणाली से जुड़े। राजस्व वृद्धि के लिहाज से देखें तो इस अधिनियम के लागू होने के साल के भीतर ही राजस्व में चौंसठ फीसद की बढ़ोतरी दर्ज हुई थी।

वर्ष 2019-20 में राजस्व संग्रह बारह लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का रहा था। हालांकि कोरोना महामारी के कारण 2020-21 में इसमें भारी गिरावट आई, जो स्वाभाविक भी थी। पूर्णबंदी और अन्य प्रतिबंधों के कारण उद्योग जगत बुरी तरह प्रभावित हुआ था और अर्थव्यवस्था शून्य से नीचे चली गई थी। पर वित्त वर्ष 2021-22 में तीस फीसद की वृद्धि दर्ज हुई।

जीएसटी संग्रह में बढ़ोतरी से यह तो स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था अब सुधार के रास्ते पर है। हालांकि संकट अभी भी कम नहीं हुए हैं। महंगाई दर और विकास दर संबंधी चुनौतियां कायम हैं। विश्लेषण में यह सोच भी निकल कर आती है कि जीएसटी से अभी तक आम आदमी को फायदा क्यों नहीं पहुंचा है?

इस तथ्य पर यह कहा जा सकता है कि पूर्व में विभिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष करों का अर्थव्यवस्था के जीडीपी में ग्यारह फीसद के आसपास का अंशदान था, जबकि जीएसटी द्वारा जीडीपी में पुरानी कर व्यवस्था के सात फीसद हिस्से को ही परिवर्तित किया गया है। पेट्रोल, डीजल व भूमि संबंधी सौदे इसमें शामिल नहीं हैं। इसलिए जनता को इससे फायदा मिलना अभी शुरू नहीं हुआ है।

यह सवाल आज भी अपनी जगह बना हुआ है कि क्यों सरकार पेट्रोल, डीजल आदि को जीएसटी के दायरे में नहीं ला रही? आम आदमी इस बात को लगातार महसूस कर रहा है कि सबसे जरूरी ईंधन पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस पर राज्य सरकारें भी कर वसूल रही हैं और केंद्र सरकार भी। इसी कारण ईंधन के दाम लगातार बढ़ रहे हैं।

जीएसटी कानून का बड़ा प्रत्यक्ष फायदा नगद व्यवहारों में कमी का रहा है। आज के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था में पैसे की कालाबाजारी को रोकना बहुत जरूरी है। बिना इसके गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को पाट पाना संभव नहीं है। यह कानून विक्रेताओं को विभिन्न प्रकार की इनपुट टैक्स क्रेडिट का फायदा देता है जो उनके लिए प्रोत्साहन है कि वह कर को वसूले।

इसलिए पिछले काफी समय से नगदी का कारोबार अर्थव्यवस्था में कम हुआ है। राजस्व संग्रहण के अंतर्गत ऐसी विभिन्न वस्तुओं को कर के दायरे में लाया गया जो पहले नहीं थीं। हालांकि शुरुआती दिनों में कुछ जन विरोध जरूर हुआ था। व्यापक तौर पर देखा जाए तो यह मान लेना अनुचित ही होगा कि इस नई कर व्यवस्था से असंगठित क्षेत्रों पर आर्थिक मार पड़ी है।

रही बात महंगाई की तो वर्ष 2005 में जब मूल्य वर्धित कर यानी वैट लागू किया गया था तो तकरीबन दो सौ वस्तुओं पर साढ़े बारह फीसद की कर की दर निर्धारित थी। तब भी यह चर्चा रहती होती थी कि महंगाई बढ़ेगी। लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था। हालांकि वर्ष 2008 की अमेरिका में आई मंदी ने जरूर महंगाई पर असर डाला था।

पांच वर्ष बीतने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि जीएसटी की दरों को आने वाले समय में कम किया जाए। इस संदर्भ में विश्व के दूसरे राष्ट्रों को भी देखा जाए, क्योंकि इससे हमारे उत्पादों की वैश्विक साख लागत के मुद्दे पर प्रभावित होती है। वहीं दूसरी तरफ अब जब राजस्व लगातार बढ़ रहा है तो उसका प्रत्यक्ष फायदा आयकर की दरों में कमी के जरिए आम आदमी को मिलना चाहिए।