दर्शनी प्रिय

आधुनिक शिक्षा परिवर्तनगामी समय की मांग है। समस्त विश्व समावेशी शिक्षा को प्रोत्साहित कर रहा है। भारत को भी इस मोर्चे पर अग्रसर होने की तत्काल आवश्यकता है। शिक्षा नीति के बदले कलेवर को इसी समग्रता में देखा जाना चाहिए। शिक्षा के आधुनिक मॉडल से देश के नौनिहालों का सर्वांगीण विकास और ढहती शिक्षा-व्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सकता है। भारतीय शिक्षा पद्धति आज भी कई मायनों में असमीचीन प्रतीत होती है।

तकनीकी सुगमता से दूर पारंपरिक पठन-पाठन छात्रों की प्रगति को लगातार बाधित कर रही है। इस दिशा में संभावनाओं की तलाश 1986 के बाद के वर्षों में शिक्षा नीति के रूप में आंशिक ही सही, लेकिन फलीभूत हो पाई, हांलाकि परिणाम औसत रहे। मौजूदा समय में शिक्षा की आधुनिक अवधारणा पुन: रेखांकित हुई है। वैश्विक महामारी के चलते उपजे संकट ने ई-पाठ्यक्रम और डिजिटल शिक्षा के महत्त्व को बढ़ाया है।

एक आंकड़े के अनुसार देश में लगभग डेढ़ लाख सरकारी और निजी स्कूल हैं, जिनमें तकरीबन सात लाख कक्षाएं हैं। वहीं कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर दो लाख कक्षाएं हैं। इस प्रकार देश में कुल नौ लाख कक्षाएं हैं। लेकिन ज्यादातर कक्षाओं में ब्लैकबोर्ड, फर्नीचर, पंखे और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं का घोर आभाव है। देश में करीब साठ साल पहले चलाए गए ब्लैकबोर्ड अभियान अब तक लक्ष्य नहीं हासिल कर सका है। यह न केवल चिंतनीय, बल्कि सरकारी व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करती है। ऐसे में समग्र डिजिटलीकरण कार्यक्रम की कामयाबी पर शक पैदा होता है।

दूर-दराज के स्कूलों को इंटरनेट से तभी जोड़ा जा सकेगा, जब वहां बिजली मुकम्मल रूप में पहुंच सके। तभी स्मार्ट क्लास की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि देश के अनेक राज्यों के सरकारी स्कूलों में अभी बिजली नहीं पहुंची है। मार्च, 2017 तक देश के सैंतीस फीसद से अधिक सरकारी स्कूल बिजली कनेक्शन से दूर थे। देश के अधिकतर स्कूलों में स्वच्छ पानी, शौचालय और सतत बिजली आपूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी है।

कई स्कूल तो ऐसे हैं, जहां बच्चों के बैठने के लिए टाट, पढ़ने के लिए ब्लैकबोर्ड और अध्यापकों के लिए कुर्सी-मेज तक नहीं हैं। ऐसे में बच्चों को कंप्यूटर शिक्षा देने की संभावना और स्कूलों को स्मार्ट क्लास की राह पर आगे बढ़ाने की बात बेमानी लगती है।गैर-सरकारी संस्था चाइल्ड रिलीफ ऐंड यू (क्राई) के एक सर्वे ‘लर्निंग ब्लॉक्स’ के मुताबिक भारत के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल किसी शिक्षण संस्थान की बुनियादी आवश्यकता भी पूरी नहीं कर पाते। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वैकल्पिक साधनों की तैयारी सुनिश्चित करने हेतु प्राथमिक और उच्च शिक्षण संस्थानों में ई-शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए डिजिटल अवसंरचना, डिजिटल कंटेंट और क्षमता निर्माण हेतु एक समर्पित इकाई की जरूरत है।

विडंबना है कि भव्य परिसर, बेहतर संसाधन और स्कूलों की संख्या बढ़ाने के नाम पर हर साल एक बड़ी धनराशि आंबटित की जाती है, पर परिणाम अब तक शून्य है। दूसरी ओर विभिन्न राज्यों में बड़ी तादाद में सरकारी स्कूलों का बंद होना भी चिंता की बात है। सुदूर इलाकों के कई ऐसे स्कूल हैं, जो वित्त पोषण और संसाधनहीनता के चलते बंद होने के कगार पर हैं। दुर्गम इलाकों में बसे इन स्कूलों की सुध लेने वाला कोई नहीं।

वहां शिक्षकों की लगातार घटती अनुपस्थिति चिंता पैदा करती है। दिसंबर, 2008 में देश के सभी छह से चौदह वर्ष की आयुवर्ग के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया था, लेकिन सरकारी आंकड़ों के हवाले से यह बात छिपी नहीं है कि ऐसे बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं। बड़ी तादाद में बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं।

जाहिर है, सिर्फ बड़े-बड़े मसौदों से बात नहीं बनने वाली। स्कूलों में बुनियादी स्तर पर द्र्रुत गति से कार्य करने की आवश्यकता है। इसके लिए स्कूलों के बुनियादी ढांचे को सुधारना और उन्हें जरूरी सुविधाएं भी मुहैया करानी होगी। दुर्गम इलाकों के स्कूलों में बिजली पहुंचाने को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि समग्र डिजिटलीकरण की रफ्तार तेज हो सके। विजुअल क्लास की मदद से बच्चों को रोचक ढंग से पढ़ाने की व्यवस्था की जाए, ताकि उनमें पढ़ाई के प्रति रुचि जगाई जा सके।

पढ़ाई छोड़ने की दर को कम करने के लिए शिक्षण संस्थानों में शाम की कक्षा पर विचार किया जा सकता है। व्यावसायिक शिक्षा को सभी शैक्षिक संस्थानों के साथ एकीकृत किया जाए, तो इच्छित परिणाम हासिल किए जा सकेंगे। एक अच्छी शिक्षा-व्यवस्था नए भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को साकार करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। अन्य देशों की तुलना में भारत में शिक्षण संस्थान शुरू करने की सबसे कठिन शर्तें हैं। हालांकि यह काफी हद तक संसाधन और निवेश जुटाने, भूमि मानदंड और अन्य शर्तों से संबंधित है। समूची शिक्षा-व्यवस्था के लिए एक अनुरूप विनियामक व्यवस्था होनी चाहिए, जो स्कूलों के अलगाव और एकाकीपन को खत्म करेगा।

इन तमाम चुनौतियों से निपटने के अलावा शैक्षणिक संस्थानों में रिक्त पड़े पदों को शीघ्रातिशीघ्र भरना होगा और विश्वस्तरीय संस्थागत सुविधाएं मुहैया कराने के प्रयास भी सुनिश्चत करने होंगे, ताकि छात्रों को अध्ययन और विकास का उचित माहौल मिल सके। समुचित वातावरण, उन्नत संसाधनों तथा योग्य प्राध्यापकों की उपस्थिति में ही छात्रों का चहुंमुखी विकास संभव है। भारत को अगर शिक्षा के क्षेत्र में अपना दबदबा कायम करना है, तो शिक्षण संस्थानों के प्रति छात्रों के आकर्षण को बनाए रखना होगा, साथ ही शिक्षा के लब्धप्रतिष्ठित और मानक संस्थानों को पुनर्जीवित कर उन्हें नया रंग देना होगा।

देश का प्रत्येक छात्र समेकित शिक्षा से जुड़ सके, इसके लिए महती प्रयास जरूरी होंगे। इसके तहत पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान पद्धति को शामिल करना, राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन और निजी स्कूलों की मनमानी से रोकने पर समग्रता से कार्य करना होगा। साथ ही शिक्षकों के प्रशिक्षण में व्यापक सुधार के लिए शिक्षक प्रशिक्षण और सभी शिक्षा कार्यक्रमों को सभी स्कूलों से जोड़ने की कोशिश करनी होगी। पुरानी शिक्षा प्रणाली में बदलाव करते हुए उच्च गुणवत्ता और व्यापक शिक्षा तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करना जरूरी है। पंरपराओं, संस्कृतियों और भाषाओं की विविधता को ध्यान में रखते हुए तेजी से बदलते समाज की जरूरतों के आधार पर पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।

शिक्षा की बदहाली का आलम यह है कि स्कूली पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से सिर्फ एक कॉलेज तक पहुंच पाता है। भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब तैंतालीस हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं। हमारे यहां मौलिक शोध पर बहुत कम खर्च होता है और तमाम शैक्षिक संस्थान भ्रष्टाचार से जूझ रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि इतनी भारी-भरकम रकम खर्च के बाद भी चौदह वर्ष तक की उम्र के महज 12.4 प्रतिशत विद्यार्थी यूनिवर्सिटी में प्रवेश पा रहे हैं। संसाधन, रोजगारपरक शिक्षा का आभाव आज भी इस तंत्र को झेलना पड़ता है। आधुनिक शिक्षा में तेजी लाने के लिए एक मजबूत निग

रानी तंत्र की भी दरकार है, ताकि काम निर्बाध गति से हों। साथ ही कुशल और प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति से ई-लर्निंग कार्यक्रम को सुगमता से आगे बढ़ाया जा सकेगा। इसके लिए जमीनी स्तर पर एक व्यापक, दूरदर्शी और प्रभावी खाका तैयार करना होगा, जिससे डिजिटलीकरण की राह को सूदूर इलाकों में आसन बनाया जा सके। इस मुहिम को एक आंदोलन का रूप दिए बगैर स्कूलों को स्मार्ट स्कूल की दिशा में आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा।