अब जबकि खुद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सहिष्णुता की अपील की है, तो यह सवाल नए सिरे से उठने लगा कि क्या प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी तोड़ेंगे? फिर प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी। पर उसमें वह बात कहां थी, जो सरकार के मुखिया की प्रतिक्रिया में होनी चाहिए? उन्होंने बस एकता और धार्मिक सौहार्द का एक उपदेशनुमा बयान दे दिया। जबकि एकता और सौहार्द को जो लोग छिन्न-भिन्न करने में जुटे हैं, उनके लिए सख्त चेतावनी और ऐसी घटनाओं की कड़ी निंदा प्रधानमंत्री के बयान में होनी चाहिए थी।
राजधानी से महज तीस किलोमीटर दूर बिसाहड़ा नामक गांव में अल्पसंख्यक समुदाय के एक व्यक्ति की हत्या के चलते पूरे देश के इंसाफपसंद तबकों में चिंता का माहौल है। दो साल के अंदर तीन तर्कशील विचारकों, वामपंथी कार्यकर्ताओं की हुई हत्या के कारण पहले से उद्वेलित प्रबुद्ध समाज के कई अग्रणी हस्ताक्षरों ने देश की बहुलतावादी संस्कृति पर आसन्न खतरों के चलते उन्हें प्राप्त प्रतिष्ठित सम्मान वापस कर दिए हैं। और यह सवाल अब जोर-शोर से उठ रहा है कि डिजिटल इंडिया के नारों के बीच क्या डेमोक्रेटिक इंडिया तिरोहित हो जाएगा?
वैसे इस बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है कि किस तरह गांव के मंदिर से बाकायदा एलान करके भीड़ को अखलाक के घर पर हमले के लिए उकसाया गया। यह अफवाह फैलाई गई कि वह बीफ अर्थात गोमांस खाता है, उसने गोकशी की है, आदि। और कई पुश्तों से उस गांव में रह रहे एक परिवार के उस सदस्य यानी अखलाक को वहीं पीट-पीट कर मार डाला गया और उसके बेटे को बुरी तरह जख्मी किया गया। उग्र भीड़ में शामिल लोगों ने परिवार की महिला सदस्यों से भी बदसलूकी की और घर का कुछ सामान भी उठा कर ले गए। यह बात भी सामने आ रही है कि किस तरह कई ‘सेनाओं’ के निर्माण के जरिए तीन महीने से पूरे इलाके में तनाव का माहौल बनाया जा रहा था।
दादरी-कांड ने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के गांव कोट राधा किशन में पिछले साल हुई एक घटना की याद ताजा कर दी है, जब ईंट भट्ठे पर मजदूरी करने वाले शहजाद मसीह और उसकी गर्भवती पत्नी को ईशनिंदा के आरोप में उनके ही गांव की भीड़ ने ईंटों से पीट-पीट कर मार डाला था। शहजाद और उसकी पत्नी को न केवल र्इंटों से मारा गया बल्कि उन्मादी भीड़ उन्हें ट्रैक्टर के पीछे बांध कर घसीटते हुए ले गई; उनकी लाशें जला दी गर्इं और पास के र्इंट भट्ठे में फेंक दी गर्इं। 4 नवंबर 2014 को हुई स्तब्ध कर देने वाली इस घटना का गवाह गांव कोट राधा किशन लाहौर से बमुश्किल साठ किलोमीटर दूर है।
दोनों ही मामलों में कई समानताएं हैं। न गोकशी की अफवाह को जांचने का प्रयास किया गया और न ही ईशनिंदा के आरोपों की पुष्टि करने की जरूरत हुजूम में शामिल किसी ने महसूस की। अगर बिसाहड़ा, दादरी में मंदिर से एलान किया गया था और ‘गाय की रक्षा अर्थात धर्म की और राष्ट्र की रक्षा’ के लिए घरों से निकल पड़ने का आह्वान किया गया था तो उधर कोट राधा किशन में गांव की मस्जिद से एलान किया गया था कि गांव में ईशनिंदा की घटना हुई है और ‘मजहब की हिफाजत’ के लिए ललकारा गया था। दादरी में उकसाने के लिए बहुसंख्यकवाद की राजनीति में मुब्तिला लोग/संगठन जिम्मेदार थे, तो शाहजाद मसीह की हत्या के लिए र्इंट भटटे के मालिक ने उकसाया था, जहां पति-पत्नी दोनों मजदूरी करते थे। दोनों ने यही ‘अपराध’ किया था कि अपनी मजदूरी मांगी थी, जिसके एवज में उन्हें मौत मिली।
अपने आलेख ‘काउ फ्रेंजी ऐंड द दादरी किलिंग्ज’ में फराज अहमद लिखते हैं किस तरह पाकिस्तान में इतना ही काफी है कि किसी पर ईशनिंदा का आरोप लगे, फिर उसके बाद उस आरोप को प्रमाणित करने की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि अगर अदालत पूछेगी कि ईशनिंदा कैसे हुई है तो उन शब्दों का उच्चारण भी एक तरह से फिर ईशनिंदा करना माना जाता है। आरोप लगाने वाले इसी बात का सहारा लेकर बेदाग घूमते हैं और जिन पर यह आरोप लगाया जाता है वे जेल में सड़ते रहते हैं, या अगर किसी उदार न्यायाधीश के चलते छूट गए तो बाहर आने पर अतिवादी समूहों द्वारा मार दिए जाते हैं।
पाकिस्तान के चर्चित उपन्यासकार मोहम्मद हनीफ ने इस मसले पर ‘गार्डियन’ अखबार में लिखे अपने आलेख में उन प्रसंगों की चर्चा की थी कि किस तरह आप ईशनिंदक करार दिए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी प्लास्टिक बैग में राख लेकर कूड़ेदान की तरफ जाना, जैसा कि रिमा मसीह नामक एक छोटी बच्ची के मामले में हुआ था। पानी भरने की सार्वजनिक जगहपर वैवाहिक अधिकारों को लेकर समान धर्म के किसी पड़ोसी से बात करना, जैसा कि चकवल के एक स्कूल-शिक्षक के साथ हुआ कि पड़ोसी से बातचीत बहस में तब्दील हो गई और वह अभी जेल में है। अपनी स्पेलिंग पर ध्यान न देना; इम्तिहान के परचे की जांच करते हुए अध्यापक ने उत्तरपुस्तिकाओं में ईशनिंदक सामग्री होने की बात कही और पुलिस बुला ली, बाद में पता चला कि स्पेलिंग की गड़बड़ी थी। विजिटिंग कार्ड जमीन पर फेंक देना; एक डॉक्टर ने दवा कंपनी के सेल्समैन के प्रति गुस्से का इजहार करते हुए उसका कार्ड फेंक दिया था, जिस पर उसका नाम मोहम्मद लिखा था। उसने पुलिस में ईशनिंदा की शिकायत की। किसी भी सभ्य व्यक्ति को हास्यास्पद लगने वाले ऐसे कई अन्य प्रसंगों की भी चर्चा मोहम्मद हनीफ ने की है।
ईशनिंदा के प्रसंगों के चलते पाकिस्तान ने अपने दो अग्रणी नेताओं- पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर और कैबिनेट मंत्री शाहबाज भट्टी- को खो दिया; दोनोंइस कानून का विरोध करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वैसा ही मसला भारत के संदर्भ में गाय को लेकर उपस्थित है। महज यह अफवाह कि कहीं गोहत्या हुई है, सामान्य दिखने वाली भीड़ को उन्मादी भीड़ में तब्दील करने के लिए काफी है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक ऐसे तमाम उदाहरण हैं कि भीड़ ने वाहन रोका, गोमांस ले जाने का आरोप लगाया और आरोपी को वहीं पीट-पीट कर मार डाला या चालक को मरने के लिए छोड़ दिया।
याद करें अक्तूबर 2002 का दुलीना अर्थात झज्जर कांड, जब मरी हुई गायों को ले जा रहे पांच दलितों को संगठित भीड़ ने दुलीना पुलिस स्टेशन के सामने पीट-पीट कर मार डाला था। किसी ने यह अफवाह उड़ाई थी कि गायों को मारने के लिए ले जाया जा रहा है। गाय को लेकर संवेदनशीलता का यह आलम था कि पुलिस ने मारे गए लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और वहां मिले गोमांस को जांच के लिए भेज दिया। और इस घटना पर विश्व हिंदू परिषद के गिरिराज किशोर का बयान था कि ‘पुराणों में मनुष्य से ज्यादा गाय को अहमियत दी गई है।’ दुलीना कांड की हमलावर भीड़ में शामिल रहे लोगों की गिरफ्तारियां शुरू हुर्इं तो वे एक हीरो की तरह थाने पहुंचते थे और उनका साथ देने के लिए सैकड़ों लोग मौजूद रहते थे।
इसी तरह का महिमामंडन ईशनिंदा के मामलों में भी होता है। सलमान तासीर की सुरक्षा में तैनात मलिक कादरी ने खुद गोलियां चला कर उनकी हत्या कर दी, क्योंकि उसके हिसाब से ‘ईशनिंदा’ में शामिल आसियाबी की हिमायत करके उन्होंने भी ईशनिंदा की थी और इसलिए वे मरने के काबिल थे! मलिक कादरी को जब अदालत में पेश किया गया था, तो वकीलों और अन्य लोगों ने उस हत्यारे पर गुलाब के फूल बरसाए थे। सभी जानते हैं कि धर्म को राष्ट्रीयता का आधार बना कर वजूद में आए पाकिस्तान में पिछले तीन दशकों से इस्लामीकरण ने सिलसिले ने जोर पकड़ा है।
‘डेली टाइम्स’ के अपने आलेख में कुछ समय पहले मशहूर पत्रकार बाबर अयाज ने मूनीस अहमद की किताब ‘कॉनफ्लिक्ट मैनेजमेंट ऐंड विजन फॉर ए सेक्युलर पाकिस्तान’ की समीक्षा के बहाने इस मसले पर विस्तृत रोशनी डाली थी। मूनीस के मुताबिक वजूद में आने के बाद पाकिस्तान के सामने तीन तरह की चुनौती थी। सांस्कृतिक, धार्मिक और नस्लीय आधार पर विविधताओं से बने पाकिस्तान की जनता को एक पहचान प्रदान करने के लिए उचित परिस्थिति का निर्माण करना, जिस रास्ते में नवोदित राष्ट्र के लिए चुनौतियां इस वजह से अधिक थीं कि भाषा, संस्कृति और संप्रदाय के आधार पर लोग बंटे थे। इस्लाम को वरीयता दें- जो पाकिस्तान आंदोलन के कर्णधारों का प्रमुख आग्रह था, या मुल्क की नस्लीय और धार्मिक विविधता को? यह मसला अनसुलझा ही रहा।
जैसा कि बाद के अनुभवों से जाहिर है कि इस स्थिति का पाकिस्तान में इस्लामी पहचान पर जोर देने वालों ने खूब फायदा उठाया और संविधान-निर्माण को प्रभावित किया। आजादी के बाद भारत ने सेक्युलर आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकल्प लिया और धर्म तथा राजनीति का मिश्रण करने वाली ताकतों को हाशिये पर रखने की कोशिश की। पर कई दशकों बाद आज परिदृश्य बदल गया है।
मशहूर पाकिस्तानी कवयित्री फहमीदा रियाज की एक कविता इस पृष्ठभूमि पर बहुत मौजूं जान पड़ती है: तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई?/ वह मूरखता, वह घामड़पन, जिसमें हमने सदी गंवाई/ आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई…
(सुभाष गाताडे)
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