अरुण माहेश्वरी
इस नौ मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के बाद ममता बनर्जी ने एक संवाददाता सम्मेलन में सिर्फ इतना कहा कि प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल सरकार की आर्थिक पहलकदमियों की प्रशंसा की है। उन्होंने पश्चिम बंगाल को किसी प्रकार की अतिरिक्त सुविधा देने के लिए कोई आश्वासन दिया है या नहीं, इसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया। दरअसल, वित्त आयोग की सिफारिशों से ऊपरी तौर पर तो लगेगा कि केंद्र ने पहले की तुलना में अपने कर राजस्व का बड़ा हिस्सा राज्यों को सौंप दिया है। लेकिन वास्तव में इससे राज्यों की वित्तीय स्थिति पर क्या असर पड़ने वाला है, इसका किसी को कोई साफ अनुमान नहीं है। चौदहवें वित्त आयोग ने देश के दूसरे वित्तीय संकट में पड़े हुए पूर्वी राज्य बिहार को भी तेरहवें आयोग की सिफारिश की तुलना में लगभग 11,500 करोड़ रुपए अतिरिक्त देने की सिफारिश की है। लेकिन पिछड़े हुए क्षेत्र को मिलने वाले अनुदान के खत्म होने और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा न दिए जाने की स्थिति में बिहार पर इसका कुल मिला कर क्या असर पड़ेगा, यह विचार का विषय है।
चौदहवें वित्त आयोग की इस रिपोर्ट पर आयोग के एक सदस्य प्रोफेसर अभिजीत सेन ने अपनी असहमति दर्ज कराई है। असहमति के अपने नोट में उन्होंने बताया है कि इस आयोग ने अतीत की रिपोर्टों की तुलना में पांच मामलों में एक भिन्न रास्ता अपनाया है। पहला यह कि केंद्र के कर राजस्व के आबंटन की राशि में काफी वृद्धि की गई है। दूसरा, राज्यों के घाटे के लिए दिए जाने वाले अनुदान को कूतने में योजनाबद्ध राजस्व खर्च को शामिल किया गया है। तीसरा, राज्यों के बीच ‘विशेष दर्जा प्राप्त’ और ‘अन्य’ के फर्क को खत्म कर दिया है।
चौथा, राज्यों को दिए जाने वाले अनुदानों के साथ अक्सर जिस प्रकार की अनेक शर्तें जुड़ी होती थीं उस परिपाटी को खत्म किया गया है। और पांचवां, एक प्रकार के ‘सहकारी संघवाद’ को हासिल करने और वित्तीय नियमों की बेहतर ढंग से निगरानी के लिए कुछ सांस्थानिक व्यवस्थाओं की सिफारिशें की गई हैं। इससे राज्यों को पहले की तुलना में बिना किसी शर्त के ज्यादा कोष उपलब्ध हो पाएगा।
अभिजीत सेन का कहना है कि इन प्रस्तावों से केंद्र द्वारा राज्यों को योजना के मद में मिलने वाले अनुदान पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। केंद्र को अपनी कई कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करनी पड़ेगी। पिछड़े हुए क्षेत्रों को मिलने वाले अनुदान में भी कटौती हो सकती है, जिसका सीधा असर बिहार पर भी पड़ेगा। अभिजीत सेन ने कहा है कि चूंकि राज्यों की यह धारणा होती है कि वित्त आयोग की सिफारिशों से केंद्रीय योजना के मद में आने वाले पैसों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, इसीलिए इस बात की आशंका है कि आने वाले समय में सभी राज्यों को अचानक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।
दरअसल, भारत में राज्यों के बीच केंद्रीय कर राजस्व के वितरण की अब तक दो प्रमुख एजेंसियां काम करती रही हैं- योजना आयोग और वित्त आयोग। केंद्रीय कर राजस्व का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा योजना आयोग के जरिए ही राज्यों के पास पहुंचता था। अब इस आयोग के स्थान पर नीति आयोग का गठन किया गया है। नीति आयोग केंद्र के कर राजस्व के आबंटन में कोई भूमिका अदा करेगा या नहीं; अगर करेगा तो किस प्रकार करेगा, ये सारी बातें अभी स्पष्ट नहीं हैं। ऊपर से, चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार राज्यों को गैर-योजना मद में बयालीस प्रतिशत तक की राशि दिए जाने के कारण योजना के मद में अनुदानों के मामले में केंद्र सरकार दिक्कत में है।
इसका असर 2015-16 के केंद्रीय बजट में भी दिखाई दिया है, जिसमें कई ग्रामीण विकास योजनाओं की लागत कम की गई है। सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों पर भी एक अध्याय है। उसमें साफ कहा गया है कि ‘वित्तीय संसाधन जुटाना, उनकी भागीदारी और उपयोग सरकार की बहुस्तरीय व्यवस्था में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और अगर इसे आपसी समझदारी और मेल-मिलाप की भावना से न सुलझाया गया तो इससे अंत:सरकारी संबंधों की कठिन समस्या पैदा हो जाती है।’ सरकारिया आयोग ने इस बात को नोट किया था कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच करों, उधार लेने और परिव्यय के संबंध में समवर्ती शक्तियां हैं। इसी में प्राय: गंभीर आर्थिक और प्रशासनिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं जिन्हें मुश्किल बातचीत, समझौतों के माध्यम से निपटाना होता है, अन्यथा न्यायपालिका का सहारा लेना पड़ता है।
वर्ष 1983 में गठित इस आयोग की रिपोर्ट 1988 में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद के इन सत्ताईस सालों में दुनिया काफी बदल गई है। 1991 के बाद के उदारतावादी दौर में, जब क्रमश: यह साफ होने लगा कि विकास के कामों में सरकार प्रत्यक्ष रूप में ज्यादा शामिल नहीं होगी और निजी क्षेत्र के जरिये ही निवेश को हासिल करना होगा, देश के सभी राज्यों के बीच निजी निवेश को लुभाने के लिए करों में नाना प्रकार की छूट देने की होड़ शुरू हो गई। राज्यों के बीच इस कर-युद्ध के चलते उनकी आय में क्रमश: अपेक्षाकृत गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ और राज्य सरकारें अपने खर्च चलाने के लिए ज्यादा से ज्यादा उधार पर आश्रित होने लगीं। निवेश को लुभाने के लिए न जाने कितना रुपया बर्बाद हो गया, लेकिन अंत में देखा यह गया कि जिन राज्यों में पहले से ही इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित था, उन्हीं में ज्यादा से ज्यादा निजी निवेश भी हुआ और उन्हीं राज्यों को बहु-स्तरीय सरकारी सहायता भी सबसे ज्यादा मिली।
सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के शुरू में ही भारत में संघ और राज्य की द्वि-स्तरीय सरकार की व्यवस्था का जिक्र करते हुए कहा गया था कि वास्तविकता में हमारे यहां संविधान का स्थायी स्वरूप नहीं है। वह बदलते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश से प्रभावित होता है और उसी में लगातार एकता और विविधता के बीच संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है। यह शासन प्रणाली इतनी गतिशील है कि इसमें तमाम नियंत्रणों और संतुलनों के बावजूद केंद्र और राज्यों के बीच अनेक समस्याएं और मतभेद उत्पन्न होते हैं। राष्ट्र की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाती है। इसीलिए ‘यह जरूरी होता है कि केंद्र-राज्य संबंधों की समय-समय पर समीक्षा की जाए ताकि सहयोगी प्रयास की भावना से प्रेरित समाज कल्याण के लक्ष्य को बेहतर ढंग से पूरा किया जा सके।’
इन तमाम कारणों से केंद्र और राज्यों के बीच पैदा होने वाले वित्तीय असंतुलनों को दूर करने में वित्त आयोग से भी कहीं ज्यादा योजना आयोग की भूमिका हुआ करती थी। वह अनुदानों की राशि को तय करने में राज्यों की आबादी, क्षेत्रफल, प्रतिव्यक्ति आय और वित्तीय अनुशासन, इन सब पहलुओं को ध्यान में रखता था, जबकि वित्त आयोग सिर्फ क्षेत्रफल का संज्ञान लेता है। आज हमारे राजनीतिक क्षेत्र में इस विषय पर जो धुंधलका दिखाई दे रहा है, उसके मूल में यही है कि योजना के मद में होने वाले खर्च में कटौती का राज्यों की वित्तीय सेहत पर क्या असर पड़ेगा, इसका अभी कोई भी सही-सही अनुमान नहीं लगा पा रहा है।
इतिहास का व्यंग्य देखिए कि एक समय में सरकारिया आयोग ने यह नोट किया था कि योजनाबद्ध विकास की अवधारणा ने राज्यों की तुलना में केंद्र के पक्ष में संतुलन को बिगाड़ा है। और आज चिंता इस बात की की जा रही है कि योजना के मद में कमी से भारत के संतुलित और समान विकास का मार्ग बाधित होगा।
लोगों ने योजना के साथ जुड़े लाइसेंस-परमिट राज की बुराई को देखा था। अब लोग निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए कर-युद्ध के दुष्परिणामों को भोग रहे हैं; संतुलित राष्ट्रीय विकास के लिए केंद्रीय योजना-मद में खर्च में कमी घातक दिखाई दे रही है। यह स्थिति तब और भी चिंताजनक हो जाती है जब नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया वित्त आयोग की सिफारिशों को मान लेने के लिए प्रधानमंत्री की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, लेकिन योजना-खर्च में कटौती को लेकर जरा भी विचलित नहीं हैं। जो सोचते हैं कि नीति आयोग कमोबेश वही काम करेगा जो योजना आयोग किया करता था, उनका भ्रम बहुत जल्द दूर हो जाएगा।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वित्त आयोग की सिफारिशों के पीछे के रहस्य को बिल्कुल सही पकड़ा है। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इसका कड़ा विरोध किया है और साफ कहा है कि केंद्रीय कर राजस्व के बंटवारे में राज्यों के पक्ष में दस प्रतिशत की वृद्धि दिखावटी है और इससे बिहार को लाभ नहीं होगा, हानि होगी।
बिहार के विभाजन के बाद पिछड़े हुए क्षेत्र और गाडगिल-मुखर्जी सूत्र के अनुसार उसे जो अतिरिक्त लाभ मिल रहे थे, उन्हें इसकी आड़ में खत्म कर दिया गया है। सचाई यह है कि तेरहवें वित्त आयोग की तुलना में केंद्रीय कर राजस्व में बिहार का हिस्सा 1.3 प्रतिशत कम हो गया है। इस मामले में पश्चिम बंगाल और झारखंड के हिस्से में बहुत मामूली क्रमश: .078 और .337 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन योजना-मद में होने वाली कटौती के नुकसान को देखते हुए यह नहीं के बराबर ही है।
नरेंद्र मोदी अपने चुनाव अभियान के दौरान पूर्वांचल के सभी प्रदेशों में दहाड़ते हुए यह वादा कर रहे थे कि वे विकास के मामले में भारत के पूरबी और पश्चिमी हिस्से के बीच के फर्क को खत्म कर देंगे। लेकिन उनकी सरकार के कदमों में तो उनके इस वादे की कोई छाप नहीं दिखाई देती है। पूर्वांचल की वंचना के इतिहास को उलटने का कोई संकेत नहीं है। इस मामले में मोदी सरकार का रुख वैसा ही है जिसके बारे में सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में यह कटूक्ति की गई थी कि ‘राष्ट्रीय स्तर पर जो लोग सत्ता में होते हैं उन्हें राज्य स्तर की शक्तियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए ऐसी विरोधी नीतियों और उक्तियों को विवश होकर अपनाना पड़ता है जो सदैव राष्ट्र के दीर्घकालिक हितों के प्रतिकूल होती हैं।’ जाहिरा तौर पर अगर केंद्र का यही रुख जारी रहा तो आने वाले समय में फिर एक बार राष्ट्र की एकता और अखंडता के हित में नए सिरे से केंद्र-राज्य संबंधों की गहराई से समीक्षा की जरूरत पड़ेगी।
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