राजू पांडेय
भारत के लोग दुनिया के और देशों के लोगों के मुकाबले कितने खुश हैं, इसका जवाब हमें वैश्विक खुशहाली सूचकांक से मिलता है। जवाब यह है कि दुनिया के एक सौ दस देश हमसे ज्यादा खुशहाल हैं। इतना ही नहीं, खुशी के इस पैमाने पर हम लगातार नीचे आते जा रहे हैं। हाल में वैश्विक खुशहाली सूचकांक से पता चला है कि भारत वर्ष 2014 में एक सौ छप्पन देशों में एक सौ तैंतीसवें स्थान पर रहा। वर्ष 2017 में एक सौ बाइसवें पायदान पर था और 2016 में एक सौ अठारहवें पर। हैरान करने वाली बात तो यह है कि भारत विकसित देशों से पीछे तो रहा ही, सार्क देशों में भी उसका स्थान पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका से पीछे रहा। सिर्फ अफगानिस्तान से हम आगे रहे। खुशहाली के सूचकांक में चीन छियासीवें स्थान पर है। पाकिस्तान की स्थिति बेहतर हुई है। पाकिस्तानी विशेषज्ञों का एक समूह इसके लिए आय वृद्धि और बेहतर सुरक्षा को उत्तरदायी मान रहा है, जबकि दूसरा समूह जनता से पूछ रहा है कि क्या वह सचमुच उतनी खुश है जितनी कि रिपोर्ट दर्शाती है? विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि वैश्विक खुशहाली सूचकांक के कई पैमानों में भारत पाकिस्तान से अभी भी आगे है, लेकिन इनमें सुधार की हमारी गति पाकिस्तान से धीमी है। संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास समाधान नेटवर्क की इस रिपोर्ट की वैज्ञानिकता और विश्वसनीयता पर सवाल भी उठते रहे हैं। हालांकि यह रिपोर्ट विख्यात गैलप वर्ल्ड पोल के सर्वेक्षणों पर आधारित होती है जो सर्वेक्षण के लिए चयनित पंद्रह साल से अधिक आयु के वयस्कों के साक्षात्कार का प्रयोग करते हैं। विकसित देशों में आधे घंटे का दूरभाषिक साक्षात्कार लिया जाता है, जबकि विकासशील देशों में एक घंटे का व्यक्तिगत भेंट आधारित साक्षात्कार लिया जाता है। अपने आकलन के लिए यह रिपोर्ट जिन पैमानों का सहारा लेती है, उनमें जीडीपी, सामाजिक सहयोग, उदारता, सामाजिक स्वातंत्र्य और स्वास्थ्य सम्मिलित हैं। दरअसल, जीडीपी और आर्थिक बेहतरी के संकीर्ण पैमानों से लोगों की खुशी का आकलन कई बार गलत होने की सीमा तक अधूरा पाया गया। इस कारण से इसके विकल्प तलाशने की कवायद तेज हुई।
भूटान नरेश जिग्मे सिंग्ये वांगचुक के पाश्चात्य भौतिकवादी विचारों के नकार से सकल राष्ट्रीय खुशहाली सूचकांक (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस इंडेक्स) की अवधारणा ने जन्म लिया। इसमें सामाजिक-आर्थिक विकास के अलावा सांस्कृतिक उत्थान, पर्यावरण संरक्षण और सुशासन का समावेश था। यह अवधारणा भूटान की सीमाओं से बाहर निकल कर परिष्कृत और चर्चित हुई। वर्ष 2007 में यूरोपियन कमीशन, यूरोपियन पार्लियामेंट, क्लब ऑफ रोम, ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डवलपमेंट और वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की ओर से आयोजित ‘बियांड जीडीपी सम्मेलन’ भी एक ऐसा ही प्रयास था, जो जीवन स्तर और व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास के आकलन में जीडीपी की सीमाओं को स्वीकार कर कुछ नई मापन विधियों की खोज से संबंधित था। विश्व बैंक का मानवीय विकास सूचकांक (ह्यूमन डवलपमेंट इंडेक्स) और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) का बेहतर जीवन सूचकांक (बैटर लाइफ इंडेक्स) भी संपूर्ण विकास की संकल्पना पर आधारित है। खुशहाली सूचकांक की आकलन विधियों में रोचकता और रचनात्मकता तो है, लेकिन इनका काल्पनिक और अमूर्त स्वरूप इन्हें अविश्वसनीय भी बनाता है। रिपोर्ट लेखक हमें एक सीढ़ी की कल्पना करने को कहते हैं जिसके सबसे निचले चरण को शून्य और उच्चतम चरण को दस अंक दिए गए हैं। सीढ़ी का सर्वोच्च चरण सर्वोत्कृष्ट जीवन स्तर का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि निचला चरण निम्नतम जीवन स्तर को दर्शाता है। आपको यह आकलन करना है कि आप वर्तमान में सीढ़ी के किस चरण में हैं? भौतिक समृद्धि में खुशियां तलाशने वालों की सीढ़ी कभी ग्यारह चरणों में खत्म नहीं होती। उनके लिए तो अनंत चरण भी अपर्याप्त हैं। यहां वह दार्शनिक प्रश्न भी सामने आता है कि प्रसन्नता व्यक्ति सापेक्ष होती है और देश या समाज की प्रसन्नता के आकलन का कोई वस्तुनिष्ठ तरीका ढूंढ़ना संभव नहीं है। यह भी गौर करने लायक है कि विश्व के सर्वाधिक खुशहाल देशों की सूची के पहले बीस नाम संपन्न देशों के ही हैं।
इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि संपन्नता और प्रसन्नता समानुपाती होती हैं, बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि रिपोर्ट प्रसन्नता का आकलन करते-करते संपन्नता में उलझ जाती है। कुछ विद्वान यह ध्यानाकर्षण करते हैं कि इस सूचकांक में पहले बीस स्थान पाने वाले कई देशों में आत्महत्या की दर सर्वाधिक है, यदि यह माना जाए कि आत्महत्या वे ही लोग कर रहे हैं जो इन देशों में अपने जीवन से अप्रसन्न हैं तो यह देश सूची में बहुत पीछे खिसक जाएंगे। भारत में अप्रसन्नता के बढ़ते स्तर में सरकार और समाज दोनों के लिए चेतावनी छिपी हुई है। पिछले तीन-चार साल में भारत का प्रदर्शन समग्र जीवनस्तर का आकलन करने वाले प्राय: सभी सर्वेक्षणों में निराशाजनक रहा है। सरकार का अर्थशास्त्र विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने को ही अपना लक्ष्य बना बैठा है। इन संस्थाओं को प्रसन्न करने के लिए उठाए गए नोटबंदी जैसे कदमों से अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा है उसके असर को चौपट उद्योग धंधों और बढ़ती बेरोजगारी के रूप में देखा जा सकता है। इन संस्थाओं की प्रतिबद्धता विकसित पूंजीवादी देशों और इन देशों को संचालित करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रति रही है और ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां नव उपनिवेशवादी रणनीति को वैधानिकता प्रदान करने का उपकरण बनी हुई हैं। देश की जिस आर्थिक प्रगति का ढिंढोरा पीटा जा रहा है उसका लाभ समाज के मुट्ठी भर लोगों को मिल रहा है। अमीर-गरीब के बीच की खाई तेजी से बढ़ रही है। आर्थिक विकास के केंद्र में मुनाफा है, मनुष्य नहीं। जिस विकास को लेकर सरकार अपनी पीठ ठोक रही है उसकी बहुत बड़ी कीमत हम चुका रहे हैं। पर्यावरण दूषित और नष्ट हुआ है। प्राकृतिक आपदाओं ने भयानक रूप धर लिया है। अपराध और हिंसा बढ़ी है। आर्थिक समृद्धि के लिए यह दीवानापन कुछ ऐसा है कि मनुष्य अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की अनदेखी कर रहा है। अन्नदाता किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कृषि को उपेक्षित किया जा रहा है। अंधाधुंध औद्योगीकरण ने भूजल स्तर को गिराया है। हम दूषित जल और दूषित वायु का सेवन करने को विवश हैं। चिकित्सा, शिक्षा,परिवहन, आवास, बैंकिंग आदि बुनियादी क्षेत्रों को किसी न किसी बहाने से निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। बुनियादी सुविधाएं महंगी हुई हैं।
सरकार आम लोगों से त्याग और राष्ट्र भक्ति की अपेक्षा कर रही है, किंतु शीर्षस्थ स्तर पर भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के उदाहरण इतने आम हैं कि यह सामान्य धारणा बन गई है कि सत्तासीन, शक्ति सम्पन्न और धनाढ्य लोगों की दुनिया के कानून आम लोगों की अंधेरी दुनिया से एकदम जुदा हैं। जनता कर देने को तैयार है, लेकिन इस राशि का जनकल्याणकारी कार्यों में ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ उपयोग होता नहीं दिखता। राजनीतिक दल धार्मिक और जातीय विद्वेष फैलाकर सत्ता पाने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। बड़ी उम्मीद के साथ चुनी गई सरकार के वादों को जुमलों में बदलते देखना जनता को जितना हताश कर रहा है, उससे कहीं ज्यादा चिंतित वह उपयुक्त विकल्प के अभाव की अनुभूति के कारण है। ऐसी दशा में एक प्रसन्न जनमानस की कल्पना कैसे की जा सकती है? एक बुनियादी सबक आम लोगों के लिए भी है। जब तक आम लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति द्वारा छोटी-छोटी खुशियों की प्राप्ति में लगे रहेंगे तब तक शोषण, दमन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं हो पाएगा और एक खुशहाल समाज की स्थापना का सपना, सपना ही बना रहेगा।

