नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने पिछले साल नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर पद के दूसरे कार्यकाल के लिए अपनी दावेदारी यह कहते हुए वापस ले ली थी कि भारत सरकार उन्हें इस पद पर नहीं देखना चाहती और वे उसकी इच्छा का ‘सम्मान’ करते हैं। तब न सरकार ने उनके इस ‘सम्मान’ पर झेंप महसूस की थी, न उसके पीछे छिपे अमर्त्य सेन के क्षोभ को समझा था और न ही यह कहने की उदारता प्रदर्शित की थी कि चूंकि उसके बारे में उनकी राय सही नहीं है, इसलिए उन्हें उसे बदलना और अपने पद पर बने रहना चाहिए। उलटे उसने उन्हें चुपचाप हट जाने दिया और विश्वविद्यालय के गवर्निंग बोर्ड से भी हटा दिया। उनका ‘कसूर’ कुल मिलाकर इतना ही था कि वे नरेंद्र मोदी सरकार की रीति-नीति के मुखर आलोचक थे और सरकार को अधीनता स्वीकार कराए बगैर विश्वविद्यालय के हित में उनकी सेवाएं लेना गवारा नहीं था।

उनके हटने के बाद भी वर्तमान सरकार नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में प्राचीन भारत के सबसे बड़े ज्ञान केंद्र की पुनर्स्थापना की कोशिशों को वांछित दिशा में रहने देना गवारा कर लेती, तो गनीमत थी। लेकिन उसने विश्वविद्यालय की स्वायत्तता से छेड़छाड़ करते हुए ऐसी स्थितियां पैदा कर दीं, जिनसे क्षुब्ध होकर अब विश्वविद्यालय के नए चांसलर जार्ज यो को भी इस्तीफा दे देना पड़ा है। कैंब्रिज और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों के डिग्रीधारी जार्ज यो ने ही, जो सिंगापुर के विदेशमंत्री रह चुके हैं, 2006 में अपनी ओर से नालंदा महाविहार के पुनरुद्धार का आधिकारिक प्रस्ताव भारत सरकार को दिया था और वे अपने इस सपने को साकार करने को लेकर बेहद उत्साहित थे। लेकिन बीते इक्कीस नवंबर को उन्हें यह देख कर बहुत दुख हुआ कि विश्वविद्यालय के चौदह सदस्यों के पुनर्गठित गवर्निंग बोर्ड में न अमर्त्य सेन को शामिल किया गया, न हॉवर्ड के पूर्व प्रोफेसर और टीएमसी सांसद सुगत बोस और यूके के अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई को ही जगह दी गई। इसके विपरीत भाजपा सदस्य और पूर्व राजस्व सचिव एनके सिंह उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हैं।

जार्ज यो की मानें तो जुलाई 2015 में उन्हें चांसलर नियुक्त किया गया, तो कहा गया था कि एक संशोधित कानून के तहत गवर्निंग बोर्ड गठित किया जाएगा। इस पर विदेश मंत्रालय की ओर से उनसे राय भी मांगी गई थी। संशोधित कानून आने पर वर्तमान प्रक्रिया की कई कमियों को दूर किया जा सकता था, लेकिन अब अज्ञात कारणों से सरकार ने बिना कानून में संशोधन किए तत्काल प्रभाव से नए बोर्ड के गठन का फैसला कर लिया है। वे कहते हैं कि उन्हें इसका कारण समझ में नहीं आ रहा।  यो ने अपने इस्तीफे में लिखा है कि निसंदेह यह भारत सरकार का विशेषाधिकार है, लेकिन विश्वविद्यालय में जिस तरह अचानक नेतृत्व बदला गया, वह परेशान करने वाला है और विश्वविद्यालय के विकास को नुकसान पहुंचा सकता है। यह बात मुझे परेशान कर रही है कि एक चांसलर के रूप में मुझे इसका नोटिस भी नहीं दिया गया। पिछले साल मुझे अमर्त्य सेन से जिम्मेदारी लेने को बुलाया गया, तो बार-बार भरोसा दिलाया गया था कि विश्वविद्यालय की स्वायत्तता कायम रखी जाएगी। लेकिन अब ऐसा नहीं लगता।

अभी यह साफ नहीं है कि सरकार उन्हें वैसे ही चले जाने देगी, जैसे पिछले साल अमर्त्य सेन को चले जाने दिया था या किसी तरह स्थिति को संभाल कर उन्हें बनाए रखने का प्रयास करेगी। लेकिन जिस तरह नए बोर्ड के गठन पर उनकी आपत्ति और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा उन्हें समर्थन दिए जाने को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है, उससे बात को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। सरकार के समर्थक कह रहे हैं कि यो द्वारा गवर्निंग बोर्ड के पुनर्गठन के ‘राष्ट्रपति के फैसले’ की इस तरह आलोचना करना सही नहीं है, लेकिन उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि अमर्त्य सेन हों या जार्ज यो, सरकार उनकी विश्वस्तरीय शैक्षणिक और अकादमिक उपलब्धियों का अपने इतिहास की एक ध्वस्त शैक्षणिक धरोहर को पुनर्जीवित करने में लाभ उठाने में सफल क्यों नहीं हो पा रही, जबकि वह उसका अकेले का प्रोजेक्ट नहीं है। इसके लिए उसे सत्रह देशों का समर्थन हासिल है। इस बाबत किसे संदेह हो सकता है कि राष्ट्रपति के नाम पर विश्वविद्यालय के गवर्निंग बोर्ड का उसकी स्वायत्तता को नकारने वाला यह अप्रत्याशित पुनर्गठन वर्तमान केंद्र सरकार का किया-धरा है और उसमें अपनों को उपकृत करने का उसका खेल साफ नजर आता है।

क्या ऐसा इसीलिए नहीं है कि क्षुद्र राजनीतिक लाभ ही लक्ष्य बन जाएं, तो बड़े लक्ष्य इसी तरह धराशायी होने को अभिशप्त होते हैं? एक अखबार ने ठीक ही लिखा है कि नालंदा जैसा विश्वस्तरीय ज्ञान केंद्र स्थापित करना हंसी-खेल नहीं होता। इसके लिए दुनिया के कोने-कोने से अनेक संबद्ध व्यक्तियों का सहयोग और सदिच्छा हासिल करनी पड़ती है, जिसके लिए पहली जरूरत उदारता और विनम्रता की होती है, जिसकी मौजूदा सरकार में सबसे ज्यादा कमी है। यह सरकार ज्ञानकेंद्रों में अनावश्यक दखलंदाजियां तो करती रहती है, लेकिन सद्गुणों के सामने झुकना भी उसे अपनी हेठी लगती है। असहमतियों को तुच्छ समझने और दबाने का उसका अभ्यास तो वैसे भी अब पुराना हो चला है। उसकी ओर से भारतीय संस्कृति का छिछला गुणगान करने वाले किसी समय भारत के विश्वगुरु होने के दंभ से भरे रहते और दावा करते हैं कि अपने शासन में वे उसे फिर से विश्वगुरु बनाने की ओर ले जा रहे हैं। बेहतर हो कि उनसे पूछा जाए कि क्या देश को विश्वगुरु बनाने का रास्ता कभी ऐसी क्षुद्रताओं के बीच से गुजर सकता है? जिस देश में शिक्षा और ज्ञान की राहें ऐसी क्षुद्रताओं से भरी जा रही हों और नाना प्रकार के गैरबराबरी जनित आर्थिक वर्गीकरण कदम-कदम पर उन्हें अवरुद्ध करते रहते हों, उसके विश्वगुरु बनने का सपना कैसे साकार हो सकता है?

यकीनन, भारत में ज्ञानार्जन की परंपरा की ख्याति नालंदा के कारण खूब प्रसारित हुई है। मगर आज नालंदा समेत देश के तमाम उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता के साथ जैसा खिलवाड़ किया जा रहा है और जिस तरह उन्हें राजनीतिक दांव-पेंचों का अखाड़ा बना दिया गया है, उसके मद्देनजर यह सवाल लगातार बड़ा होता जा रहा है कि वे अपना अस्तित्व कब तक बचाए रह सकेंगे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बात-बात पर पिछले सत्तर सालों के दोष गिनाने लग जाते हंै। किसी को तो उन्हें समझाना चाहिए कि सारे दोषों के बावजूद उन सत्तर सालों में देश में कई श्रेष्ठ उच्चशिक्षा संस्थान जन्मे, पले और खड़े हुए। तब शायद वे खुद से पूछने की जहमत उठा सकें कि उनके महज ढाई साल के शासन में इन संस्थानों में सरकारी दखलंदाजियों ने इन संस्थानों में इतने विवाद क्यों पैदा कर दिए, जितने सत्तर साल में भी नहीं पैदा हुए? चेन्नई से लेकर दिल्ली और मुंबई से लेकर कोलकाता तक अनेक संस्थानों में पिछले दिनों हुई विवादों की दुखदायी घटनाएं अभी ताजा हैं और नालंदा के पुनरुद्धार के सपने के साथ एक के बाद एक छल इनसे जुड़े अंदेशों को और बढ़ा रहे हैं। काश, प्रधानमंत्री समझते कि इस स्थिति के पार जाने का रास्ता उनके द्वारा पाली-पोसी जा रही क्षुद्रताओं के पार है, उनके बीच नहीं।