कुछ समय से सोशल मीडिया पर डाले जाने वाले फेक न्यूज (झूठे समाचार या सूचनाएं), हेट स्पीच (नफरत फैलाने वाली बातें), फेक फोटो (जाली फोटो) ने भारत के सामाजिक ताने-बाने को खासा नुकसान पहुंचाया है। बंगाल का बशीरहाट इसका ताजा उदाहरण है। बशीरहाट में हुई हिंसा के बाद एक बार फिर सोशल मीडिया के गुण-दोषपर बहस हो रही है। हिंसा की शुरुआत फेसबुक पर डाली गई एक तस्वीर से हुई। इस तस्वीर से एक विशेष धर्म के लोग नाराज हो गए। उसके बाद एक राजनीतिक दल से जुड़े कुछ लोगों ने सोशल साइटों पर तनाव फैलाने वाली कुछ और तस्वीरें डालीं। बंगाल की घटना से पहले, कश्मीर में अलगाववादी भारी भीड़ को इकट्ठा करने के लिए वाट्सएप का इस्तेमाल कर रहे थे। पिछले एक साल में कई जगह फैले सामाजिक और धार्मिक तनाव के बाद, स्वाभाविक ही इस पर बहस हो रही है कि क्या अभिव्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता का मंच अब हेट स्पीच, फेक न्यूज और सामाजिक तनाव फैलाने का मंच हो गया है?

इस समय देश में लाखों की संख्या में वेबसाइटों का संचालन हो रहा है। इनमें से काफी वेबसाइटें विभिन्न राजनीतिक दलों व धार्मिक संगठनों द्वारा प्रायोजित हैं। इनका काम फर्जी खबरें डालना, फर्जी फोटो डालना और नफरत फैलाना रह गया है। इन वेबसाइटों पर अलग-अलग धर्मों, जातियों और राजनीतिक दलों के खिलाफ आग उगली जा रही है। एक का गुणगान और दूसरे को गाली-गलौज का मंच सोशल साइटें बन गई हैं। निश्चित तौर पर दुनिया भर की साइबर कंपनियों के लिए यह चिंता का विषय है। क्योंकि जिस तरह जर्मनी ने हाल ही में नया कानून बना कर साइबर कंपनियों पर नकेल डाली है, वैसा दुनिया के दूसरे देश भी कर सकते हैं। तकनीकी और दूरसंचार क्रांति के बाद दुनिया में सोशल मीडिया का जब आगाज हुआ तो लोगों को लगा था कि अभिव्यक्ति का एक नया मंच लोगों को मिला है। लोगों को उम्मीद थी कि अभिव्यक्ति के इन नए मंचों से कॉरपोरेट नियंत्रण वाले प्रिंट मीडिया और टीवी चैनलों तथा सूचना के अन्य माध्यमों को खासी चुनौती मिलेगी। क्योंकि अभिव्यक्ति के माध्यमों पर कॉरपोरेट नियंत्रण ने जनहित से जुड़े मुद््दों को प्रिंट मीडिया और टीवी से गायब कर दिया है। हालांकि जनहित के मुद््दों को निश्चित तौर पर सोशल मीडिया ने स्थान दिया; लाखों लोग सोशल साइटों के कारण ‘पत्रकार’ के रूप में सामने आ गए। लेकिन धीरे-धीरे सोशल मीडिया की दूसरी तस्वीर भी सामने आने लगी। हालांकि शुरुआती दौर में दुनिया भर की खुफिया एजेंसियों ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने हित में किया। उनका आकलन था कि दुनिया भर के आतंकी नेटवर्क पर फेसबुक, वाट्सएप और ट्विटर के माध्यम से नजर रखना आसान होगा। इसमें खुफिया एजेंसियों को सफलता भी मिली। उन्होंने कई आतंकी नेटवर्क से जुड़े आतंकियों का सोशल साइटों के माध्यम से पीछा किया, उन्हें पकड़ा। 2008 में हुए मुंबई हमले के पीछे दिमाग लगाने वाले लश्कर के कुछ ‘कमांडरों’ का ब्रिटिश खुफिया एजेंसी ने लंबे समय तक आॅनलाइन पीछा किया था।

लेकिन समय के साथ ही खुफिया एजेंसियों को आतंकी गुटों ने सोशल साइटों के इस्तेमाल में मात देनी शुरू कर दी। आतंकी गुट सोशल मीडिया के इस्तेमाल में खुफिया एजेंसियों से आगे निकल गए। आतंकी संगठनों ने फेसबुक, ट्विटर और टेलीग्राम का इस्तेमाल कर दुनिया भर में आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया। आतंकी हमलों के दौरान आतंकियों ने वाट्सएप का इस्तेमाल मौके पर कर अपने आकाओं से निर्देश लिये। ब्रिटेन इसका उदाहरण है, जहां पर हाल ही में हुए दो आतंकी हमलों में आतंकियों ने वाट्सएप का इस्तेमाल किया। दूसरी तरफ खुफिया एजेंसियां हाथ पर हाथ धरे बैठी रह गर्इं। इससे नाराज ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने फेसबुक, यूट्यूब, वाट्सएप, ट्विटर आदि को कड़ी चेतावनी दी। उन्होंने साइबर कंपनियों पर कड़ी कार्रवाई के संकेत भी दिए हैं। साइबर कंपनियां ने स्वीकार किया है कि उनके मंच का इस्तेमाल हेट स्पीच, फेक न्यूज और आतंक फैलाने के लिए हो रहा है। ब्रिटेन में फेसबुक, टेलीग्राम, वाट्सएप, ट्विटर के जरिए इस्लामिक स्टेट (आइएस) ने घुसपैठ की। आइएस ने फेसबुक के जरिए पूरी दुनिया में आॅनलाइन जेहादी तैयार किए। वहीं अपनी आॅनलाइन पत्रिका के जरिए दुनिया भर में अपने कारनामों का गुणगान किया। आॅनलाइन प्रचार-युद्ध में आइएस ने दुनिया की कई खुफिया एजेंसियों को परेशान कर दिया। इन खतरों को देखते हुए साइबर कंपनियां कुछ वैसी तकनीक विकसित करने की कोशिश कर रही हैं जिससे फेक न्यूज, हेट स्पीच, फेक फोटो, फेक वीडियो का नोटिफिकेशन होते ही, सोशल साइट से खुद ही हट जाए। लेकिन इसमें अभी समय लगेगा।

भारत में सोशल साइटों का इस्तेमाल हेट स्पीच, फेक न्यूज, सांप्रदायिक तनाव और अलगाववादी आंदोलन को फैलाने के लिए भी किया जा रहा है। एक-दो आतंकी घटनाओं में भी वाट्सएप का इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण भारत में मिले। सवाअरब से ज्यादा की आबादी वाले इस देश में सामाजिक तनाव फैलाने में सोशल साइटों के हो रहे इस्तेमाल के कारण सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां परेशान हैं। क्योंकि तनाव मिनटों में फैलता है। पुलिस के मौके पर पहुंचने से पहले दंगाइयों की भारी भीड़ इकट्ठा हो जाती है। दूसरी तरफ उस इलाके के थाने में महज मुट्ठी भर सिपाही होते हैं। थाने पर भीड़ हमला कर पुलिस को पंगु बना देती है। कुछ घंटों बाद दूर कहीं मौजूद अर्धसैनिक बल के जवान जब मौके पर पहुंचते हैं, तब तक खासा नुकसान हो चुका रहता है। खुद खुफिया एजेंसियां मान रही हैं कि भविष्य में सोशल साइटों के कारण होने वाले फसाद और दंगों को रोकने के लिए सरकारों को अपने बजट में खासी वृद्धि करनी होगी। क्योंकि कश्मीर में अगर अलगाववादी घाटी में इस्तेमाल हो रहे आठ लाख एंड्रायड फोन से वाट्सएप के जरिए भीड़ इकट्ठा कर रहे हैं, तो बंगाल में फेसबुक पर फेक न्यूज और फेक वीडियो, फेक फोटो डाल कर दंगा भड़काने की कोशिश होती है। और भी चिंता की बात है कि इस खेल में कई सामाजिक संगठन और कुछ राजनीतिक भी शामिल दिखते हैं। बशीरघाट की हिंसा के लिए वे भी कम जिम्मेवार नहीं हैं।

सोशल साइटों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मजबूती प्रदान की है। लेकिन जहां आपराधिक कानून की शुरुआत होती है, वहीं पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अंत हो जाता है। जिम्मेवार भारतीय नागरिकों को सोचना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मंच का गलत इस्तेमाल न हो। बहस यह भी हो रही है कि जर्मनी की तरह भारत में भी सोशल साइटों को लेकर सख्त कानून बनाया जाए। जर्मनी में हाल ही में सोशल साइटों पर चलने वाली हेट स्पीच और फेक न्यूज को लेकर सख्त कानून बनाया गया है। नए कानून के मुताबिक, अगर हेट स्पीच से संबंधित वीडियो, फेक न्यूज आदि को नोटिफिकेशन या शिकायत के चौबीस घंटों के अंदर सोशल साइट से नहीं हटाया गया तो कंपनी पर पांच करोड़ यूरो तक का जुर्माना लग सकता है। कोई भी वैसी आक्रामक सामग्री, जिससे सामाजिक तनाव फैल सकता है, उसे भी सात दिन के अंदर हटाने के निर्देश नए कानून में हैं। पिछले कुछ समय से जर्मनी में फेसबुक, वाट्सएप, यूट्यूब और ट्विटर के माध्यम से सामाजिक तनाव फैलाया जा रहा था। नतीजतन, हिंसा बढ़ गई। फिर उसे रोकने के लिए कानून बनाना पड़ा। जर्मन सरकार का दावा था कि पिछले दो साल में सोशल साइटों पर चलने वाली हेट स्पीच के कारण देश में आपराधिक घटनाओं में तीन सौ प्रतिशत तक वृद्धि हुई। भारत को भी जर्मनी जैसे उपाय के बारे में सोचना होगा।