मार्च-अप्रैल में इकतालीस दिनों तक प्रदर्शन करने के बाद तमिलनाडु के किसान एक बार फिर जंतर-मंतर पर जुट गए हैं। प्रदर्शन के अनोखे तरीके अपनाने वाले ये किसान इस बार बड़े स्तर पर आंदोलन की तैयारी के साथ आए हैं। इनका कहना है कि तमिलनाडु में पिछले 140 सालों का सबसे भयानक सूखा पड़ा है। पिछले चार महीनों में करीब चार सौ किसानों ने खुदकुशी कर ली। सूखा राहत के नाम पर सरकार ने तीन हजार रुपए दिए हैं। इतने में कैसे गुजारा हो सकता है? तमिलनाडु में तो ऐतिहासिक सूखा पड़ने से किसान बदहाल हैं लेकिन जिन सूबों में अच्छी बारिश और बंपर फसल हुई है वहां के किसानों की भी माली हालत ठीक नहीं है। यही कारण है कि कई राज्यों में किसानों की कर्जमाफी के लिए आंदोलन चल रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 1995 से लेकर 2016 तक पूरे देश में कर्ज, सूखा, गरीबी, भुखमरी के चलते तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
किसानों की माली हालत सुधारने के लिए विशेषज्ञ सुझाव देते रहते हैं कि कृषि संबंधी आधारभूत ढांचा सुदृढ़ बनाया जाए। इनमें प्रमुख है सिंचाई सुविधा का विस्तार, किसानों को समय पर रियायती दर पर बिजली, बीज-उर्वरक-रसायन की समय पर उपलब्धता, ग्रामीण इलाकों को पक्की सड़कों से जोड़ना, समर्थन मूल्य पर कृषि उपज की सरकारी खरीद, आदि। यहां सबसे अहम सवाल यह है कि क्या इन सुविधाओं की उपलब्धता पर किसानों की बदहाली दूर हो जाएगी? इस सवाल का उत्तर पाने के लिए खेती-किसानी संबंधी इन सुविधाओं की कसौटी पर देश के सबसे अग्रणी राज्य पंजाब को परखना श्रेयस्कर होगा। हरित क्रांति के अगुआ रहे पंजाब के समतल मैदान में उपजाऊ मिट््टी पाई जाती है और यहां के 98.5 फीसद खेतिहर रकबे को सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। अस्सी फीसद सिंचाई भूजल से होती है, जिसके लिए किसानों को लगभग मुफ्त में बिजली दी जाती है। राज्य में बारहमासी नहरों का सुदृढ़ जाल बिछा है। सभी गांव पक्की सड़कों से जुड़े हैं। पंजाब में अनाज की खरीद व्यवस्था देश में सबसे अच्छी है। राज्य में नब्बे फीसद अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाता है। बैंकिंग सुविधा का पर्याप्त विस्तार है।
कृषिगत आधारभूत ढांचे के बल पर पंजाब में शुरू में तो खेती-किसानी समृद्धि की बहार लेकर आई लेकिन जैसे-जैसे खेती के परंपरागत आधार छीजने लगे वैसे-वैसे खेती लगातार बदहाली की ओर बढ़ती चली गई। हरित क्रांति के शुरुआती वर्षों अर्थात 1972 से 1986 तक पंजाब में कृषि विकास दर 5.7 फीसद रही, जबकि इस दौरान कृषि विकास दर का राष्ट्रीय औसत महज 2.3 फीसद था। इसके बाद राज्य में हरित क्रांति की चमक फीकी पड़ने लगी। 1987 से 2005 के बीच राज्य में कृषि विकास दर घट कर तीन फीसद रह गई जो कि राष्ट्रीय औसत 2.9 फीसद से कुछ ही बेहतर थी। अगले एक दशक अर्थात 2006 से 2015 के बीच पंजाब में कृषि विकास दर घट कर 1.6 फीसद रह गई, जबकि इस दौरान राष्ट्रीय औसत पंजाब से दो गुने से ज्यादा (3.5 फीसद) रहा। चूंकि हरित क्रांति के दौर में स्थानीय फसल प्रणाली की उपेक्षा करके फसलें ऊपर से थोपी गई थीं इसलिए राज्य की मिट्टी की उर्वरता में ह्रास, भूजल स्तर नीचे जाने, कीटनाशकों के कारण प्रदूषण जैसी समस्याएं भी सामने आर्इं। खेती के घाटे का सौदा बनते ही किसानों की ऋणग्रस्तता में तेजी से इजाफा हुआ और कई मौकों पर यह ऋणग्रस्तता उन्हें फांसी के फंदे तक पहुंचाने लगी।
कृषि के उन्नत आधारभूत ढांचे की मौजूदगी के बावजूद पंजाब में जिस तरह खेती बदहाल होती जा रही है उससे हरित क्रांति पर सवाल उठना स्वाभाविक है। इसका जवाब तभी मिलेगा जब हम भुखमरी से मुक्ति दिलाने के तमगे से नवाजी गई हरित क्रांति का निर्मम विश्लेषण करें। कड़वी हकीकत यह है कि हरित क्रांति लोगों का पेट भरने के लिए नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अकूत मुनाफा कमाने का मौका देने के लिए शुरू हुई थी। इसकी शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध से होती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई जिससे दुनिया में आपसी टकरावों को बातचीत के जरिए हल करने की उम्मीद बंधी। दूसरे शब्दों में, सीधे युद्ध की स्थितियां खत्म हो गर्इं। इससे विकसित देशों की हथियार, गोला-बारूद, रसायन बनाने वाली कंपनियां बेरोजगार हो गर्इं। अपनी बेकारी दूर करने के लिए इन कंपनियों ने रसायन, कीटनाशक, उर्वरक आदि बनाना शुरू कर दिया। चूंकि विकसित देशों में इनकी बिक्री की सीमित संभावनाएं थीं, इसलिए उन्होंने तीसरी दुनिया के देशों में हरित क्रांति का शिगूफा छोड़ा। इनके दबाव में आकर संबंधित देशों की सरकारों ने तीसरी दुनिया के देशों के शासनाध्यक्षों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर, प्रतिबंध लगा कर और भुखमरी का हौवा दिखा कर हरित क्रांति की राह में आने वाली बाधाओं को दूर किया। इस प्रकार जो कीटनाशक व रसायन विकसित देशों में प्रतिबंधित थे उन्हें विकासशील देशों में डंप किया जाने लगा। इसका दुष्प्रभाव मिट्टी, पानी, पशुचारे व अनाज के माध्यम से मनुष्यों व पशुओं के शरीर में भी पहुंचा और वे तरह-तरह की बीमारियों के शिकार होने लगे। चूंकि ये बीमारियां अलग किस्म की थीं इसलिए इनके इलाज के लिए दवा खोजने-बेचने का दायित्व भी विकसित देशों की कंपनियों ने अपने कंधों पर ले लिया। अब इनका व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा। कभी जीवन के संध्याकाल में होने वाली कैंसर, मधुमेह, हृदय रोग जैसी बीमारियां आज सर्दी-जुकाम सरीखी हो गई हैं तो इसका कारण हरित क्रांति की विकृतियां ही हैं।
जाहिर है, दुनिया को अदृश्य कुपोषण और नाना प्रकार की बीमारियों के बाड़े में धकेलने का काम एग्रीबिजनेस कंपनियों ने हरित क्रांति के जरिए किया। अपनी कुटिल चाल को आगे बढ़ाने के लिए ये कंपनियां अब तीसरी दुनिया को दूसरी हरित क्रांति का सब्जबाग दिखा रही हैं। इन कंपनियों का कहना है कि हर रोज भोजन की लाइन में बढ़ने वाले 2,19,000 लोगों (अर्थात दुनिया की आबादी में हर साल जुड़ने वाले 8 करोड़ नए लोगों) का पेट भरने के लिए दूसरी हरित क्रांति को अपनाना ही होगा। लेकिन वे इस कड़वी हकीकत पर सन्नाटा खींचे हैं कि जब पहली हरित क्रांति के कारण आज दुनिया में 11 अरब लोगों के लिए पर्याप्त अनाज पैदा हो रहा है तो दूसरी हरित क्रांति की जरूरत ही क्या है? दूसरे, इतने अनाज उत्पादन के बावजूद आज तकरीबन 80 करोड़ लोग भूखे पेट सोने को क्यों मजबूर हैं?दूसरी हरित क्रांति की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने के क्रम में एग्रीबिजनेस कंपनियां खेती के मूल आधार (बीज) पर आधिपत्य जमाने की मुहिम छेड़े हुए हैं। आज भारत के गांवों में बिजली, पानी के दर्शन भले न हों- मोनसेंटो, सिन्जेटा, पायनियर जैसी कंपनियों के हाइब्रिड बीज जरूर मिल जाएंगे। यह नजारा तीसरी दुनिया के किसी भी देश में देखा जा सकता है। इस प्रक्रिया में देसी बीज तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं। ये कंपनियां अपने बीजों को लोकप्रिय बनाने के लिए तीसरी दुनिया के कृषि शोध केंद्रों व उनके वैज्ञानिकों को अनुदान देकर खरीद रही हैं। यही कारण है कि ये संस्थान व इनसे जुड़े वैज्ञानिक किसानों की जरूरतों के बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चिह्नित फसलों पर अनुसंधान कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि दूसरी हरित क्रांति एग्रीबिजनेस कंपनियों की कुटिल चाल है। इस प्रक्रिया में कृषि उत्पादन भले बढ़े लेकिन अनाज के ढेर के बगल में भुखमरी-कुपोषण के शिकार लोगों और नई-नवेली बीमारियों से ग्रस्त भीड़ में कमी नहीं आएगी।

