बढ़ती जनसंख्या, क्रय शक्ति में इजाफा, शहरीकरण, बदलती जीवन शैली आदि के कारण दूध और दूध से बने उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ रही है। मांग के अनुरूप दुग्ध उत्पाद की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के मकसद से अनेक कंपनियां और संगठन इस दिशा में काम कर रहे हैं। सरकारें भी डेयरी उद्योग को प्रोत्साहित कर रही हैं। मगर इसके दूसरी ओर स्थिति यह है कि पशु चारे की कमी पशुपालन के लिए गंभीर समस्या का रूप लेती जा रही है।
दरअसल, खाद्यान्न की मांग में निरंतर वृद्धि से पशु चारे के लिए खेती का रकबा सिकुड़ता जा रहा है। शहरों का विस्तार और सड़क जैसी पक्की संरचनाओं के निर्माण में आई तेजी से भी घास वाले मैदानों या गोचर भूमि का अतिक्रमण हो रहा है। भूजल के लगातार नीचे जाने से कुदरती रूप से उगने वाली घास अब लगभग समाप्त होती जा रही है। इसके अलावा नकदी फसलों की खेती की तरफ बढ़ते रुझान के चलते भी पशु चारे की किल्लत बढ़ती गई है। रही-सही कसर किसानों द्वारा कंबाइंड हार्वेस्टर मशीन से गेहूं आदि की कटाई ने पूरी कर दी।

गौरतलब है कि कंबाइन हार्वेस्टर से गेहूं की फसल के महज ऊपरी हिस्से की कटाई होती है। बाकी हिस्सा खेत में पड़ा रह जाता है, जिसे बाद में जला दिया जाता है। इससे न सिर्फ खेतों में उगने वाली घास भी नष्ट हो जाती है, फसलों का डंठल बेकार जाने से पशु चारे का संकट पैदा होता है, बल्कि पर्यावरण प्रदूषण में भी बढ़ोतरी होती है। पिछले दिनों जब गेहूं की फसल की कटाई के बाद पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि में किसानों ने बड़े पैमाने पर खेतों में फसलों के डंठल जलाना शुरू किया और वायु प्रदूषण में वृद्धि के आंकड़े दर्ज हुए तो प्रधानमंत्री को भी इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की अपील करनी पड़ी। मोटे अनाजों, दलहनी और तिलहनी फसलों की खेती में आ रही कमी से भी पशुचारे का संकट गहराया है। इसके अलावा कृषि अपशिष्टों की गत्ता मिलों और मशरूम उद्योगों को ऊंचे दामों पर बिक्री की प्रवृत्ति ने भी पशुचारे का संकट बढ़ाने में आग में घी का काम किया है।

आजादी के बाद से ही वन, स्थायी चरागाह, परती भूमि, घास के मैदान लगातार सिकुड़ गए हैं। इसी का नतीजा है कि जहां 1947 में देश में सात करोड़ हेक्टेयर में घास क्षेत्र थे वहीं अब यह आंकड़ा घट कर 3.8 करोड़ हेक्टेयर रह गया है। यही कारण है कि आज देश में पशुचारे का गंभीर संकट खड़ा हो गया है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हरे और सूखे चारे के बारे में कोई विश्वसनीय आंकड़ा भी नहीं है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत 35.6 फीसद हरे चारे और 10.9 फीसद सूखे चारे की कमी झेल रहा है। कुदरती आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ आदि की दशा में यह संकट विकराल रूप धारण कर लेता है। पशु चारे के अलावा दुधारू पशुओं के लिए मोटे अनाज, खली और अन्य पौष्टिक तत्त्वों की भारी कमी है। पौष्टिक पशु चारे में काम आने वाले मोटे अनाज दूध के भाव मिल रहे हैं, जिसका सीधा नतीजा दुधारू पशुओं के स्वास्थ्य में गिरावट के रूप में सामने आ रहा है।

एक बड़ी समस्या यह है कि पशु चारे में हरी घास और हरे चारे की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है। जिन राज्यों में चरागाह हैं वहां दुग्ध विकास की परियोजनाएं संचालित ही नहीं की जा रही हैं जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्य। यहां दुधारू पशुओं के बजाय अन्य उद्देश्यों के लिए पशुपालन होता है।संसद में प्रस्तुत कृषि संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी पशु चारे की कमी पर गंभीर चिंता जताई गई है। रिपोर्ट के मुताबिक चरागाहों की जगहों को खेतों में तब्दील कर उन पर खाद्यान्न, तिलहन और दालें उगाई जा रही हैं। इसीलिए चारे वाली फसलों की खेती पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इतना ही नहीं, फसलों के अन्य उत्पादों के विविध उपयोग के कारण भी चारे की मांग और आपूर्ति में अंतर बढ़ता जा रहा है। विशेषज्ञों के मुताबिक भारतीय पशुओं की कम उत्पादकता के लिए चारा और पशु आहार की कमी जिम्मेदार है। देश में जितना ध्यान पशुओं के नस्ल सुधार पर दिया जाता है उसका दसवां हिस्सा भी पशुओं की पोषण क्षमता बढ़ाने पर नहीं दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि नस्ल सुधार और प्रभावी पशुधन जैसे लक्ष्य तब तक हासिल नहीं होंगे जब तक कि मवेशियों के लिए पर्याप्त भोजन की व्यवस्था न की जाए।

इसी को देखते हुए कई राज्य सरकारों ने एक भारतीय चारा निगम की स्थापना करने, तिलहन खली के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने और डंठल बर्बाद करने वाली कंबाइंड हार्वेस्टर मशीन से गेहूं आदि की कटाई पर रोक लगाने का सुझाव दिया है। यह भी मांग की जा रही है कि केंद्र सरकार पशुपालन, डेयरी उद्योग और मत्स्यपालन को कृषि क्षेत्र के बराबर तवज्जो दे और इनमें संलग्न लोगों को कम ब्याज दर पर ऋण और किसान क्रेडिट कार्ड जैसी सुविधाएं दी जाएं। गौरतलब है कि सोया खली के बढ़ते निर्यात से घरेलू बाजार में उसकी कीमतें आसमान छूने लगी हैं और वह अधिकतर पशुपालकों की पहुंच से दूर होती जा रही है।
अच्छी गुणवत्ता का चारा न सिर्फ दूध उत्पादन के लिए, बल्कि डेयरी व्यवसाय को लाभकारी बनाने के लिए भी जरूरी है। सकल घरेलू उत्पाद में अकेले भैंस का योगदान गेहूं-धान के सम्मिलित योगदान से ज्यादा है। इससे पशुधन और पशु चारे के महत्त्व का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अहम अंग होने के साथ-साथ पशु परिस्थितिकी संतुलन और खाद्य तथा पोषण सुरक्षा मुहैया कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके बावजूद पशुचारे का उत्पादन सरकारों की वरीयता सूची में जगह बनाने में विफल रहा है।

देखा जाए तो पशु चारे की किल्लत के लिए हमारी अदूरदर्शी नीतियां जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि दूध, मांस और दूसरे पशु उत्पादों की कुल लागत का साठ-सत्तर फीसद हिस्सा मवेशियों के चारे पर ही खर्च होता है। इसके बावजूद अभी तक न पशु आहारों की उपलब्धता बढ़ाने और न ही इनकी लागत कम करने की ओर समुचित ध्यान दिया गया है। इसके अलावा प्राकृतिक चरागाहों के कम होने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने और सार्वजनिक चरागाह मैदानों को बनाए रखने या उनकी उर्वरता बढ़ाने के लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं है। फसल चक्र में चारा फसलों को शामिल कर चारा फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने की योजना अब तक उपेक्षित रही है। देश की कृषि योग्य भूमि में से पांच फीसद से भी कम पर चारे की खेती की जाती है। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि पशुपालन के लिए आबंटित बजट का मामूली हिस्सा ही चारा और पशु आहार क्षेत्र के विकास के लिए खर्च किया जाता है।

चारा फसलों के उन्नत बीजों के विकास में न तो सरकारी और न ही निजी क्षेत्र की रुचि है। पशु चारे पर सरकार की उदासीनता को बजटीय आबंटन से समझा जा सकता है। ग्यारहवीं योजना के पांच वर्षों के लिए चारा विकास को लिए कुल 141 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था, जिसका सालाना औसत 28 करोड़ रुपए था। इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा।  लंबे अरसे से उपेक्षित पशु चारा क्षेत्र की ओर नरेंद्र मोदी सरकार ने ध्यान दिया है। पशु चारे की मांग और आपूर्ति के अंतर को कम करने के लिए सरकार ने देश में परती पड़ी एक करोड़ हेक्टेयर भूमि में घास की खेती करने का फैसला किया है। गौरतलब है कि देश में खाली पड़े चरागाह की मात्र दस फीसद भूमि में चारे की खेती की जाती है। बाकी जमीन परती पड़ी हुई है, जबकि उसमें घास उगाने की पूरी संभावना है। इसी को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस खाली पड़ी जमीन में नेपियर घास उगाने का फैसला किया है। यह विदेशी घास बहुत कम बारिश वाले इलाकों में भी उगाई जा सकती है और साल भर में उसकी कम से कम पांच-छह बार कटाई की जाती है।

इसके अलावा घास की अन्य प्रजातियों की भी खेती की जाएगी, जिसके लिए भूमिहीनों को प्रोत्साहित किया जाएगा। इतना ही नहीं, योजना के मुताबिक चारे की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए भूमिहीन किसानों को मदद मुहैया कराई जाएगी। सरकार देश के हर जिले में दो एकड़ जमीन पर वैज्ञानिक चारा फार्म बनाने जा रही है। इन फार्मों में उच्च गुणवत्ता वाले चारे की खेती की जाएगी। इसके बाद इसे किसानों को वितरित किया जाएगा, ताकि वे बेहतरीन चारे की खेती करें। केंद्र सरकार किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले बीज और तकनीकी विशेषज्ञता भी मुहैया कराएगी, ताकि चिह्नित क्षेत्रों में चारे की खेती की जा सके। इतना ही नहीं, किसानों को चारा बनाने वाली मशीनों को खरीदने के लिए बैंकों की तरफ से कर्ज मुहैया कराया जाएगा।  मोदी सरकार खेती-किसानी को फायदे का सौदा बनाने के लिए लगातार काम कर रही है। फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, बीटी कपास के बीजों की रॉयल्टी तय करने, राष्ट्रीय कृषि बाजार, मृदा कार्ड के बाद अब मोदी सरकार पशु चारे की किल्लत दूर करने का दूरगामी उपाय कर रही है। इससे न सिर्फ पशु चारे की कमी दूर होगी बल्कि दूध और दुग्ध उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करने में सहायता मिलेगी।