प्रकृति ने महिलाओं में सुंदर देखने की इच्छा स्वाभाविक तौर पर पैदा की है। उनकी इस चाहत में कुछ और चीजों ने आग लगाई है। एक तरफ कुंठित मर्द समाज है जिसकी नजर में स्त्री का वजूद एक सुंदर, सजी-संवरी और उसका मन बहलाने वाली गुड़िया से अधिक कुछ नहीं है। दूसरी तरफ वह बाजार है जो स्त्रियों की सुंदरता की चाहत का दोहन करते हुए अजीबोगरीब नुस्खे, क्रीम, पाउडर, लाली ऐसे लुभावने अंदाज में पेश करता है कि बहुतेरी महिलाएं बिना यह सोचे-विचारे झांसे में आ जाती हैं कि आखिर इस सबका हश्र क्या निकलेगा। इसी में एक बड़ी तब्दीली यह हुई है कि सुंदरता का मतलब सिर्फ त्वचा (उसका रंग, चिकनाई, कसावट) और बालों की देखभाल तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि शरीर की साज-सज्जा के लिए दवाओं (एपीरियंस मेडिसिन), बोटोक्स ट्रीटमेंट और कॉस्मेटिक सर्जरी जैसे ऑपरेशन तक कराए जा रहे हैं। दुनिया भर में अब ऐसे ब्यूटी पार्लर, सैलून और स्पा मौजूद हैं जो ज्यादा तेजी से आकर्षक बनाने वाली और चेहरे व शरीर की खामियां तुरत-फुरत दूर करने वाली अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं और दावा करते हैं कि इन प्रयोगों से कोई सुंदर दिख सकता है या उसकी सुंदरता और बढ़ सकती है।

विडंबना यह है कि अभी हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि सुंदरता बढ़ाने का दावा करने वाले ये सारे उपाय कितने कारगर होते हैं, और कहीं वे नुकसानदेह तो नहीं हैं! जिस तरह खाने-पीने की चीजों में खतरनाक रसायनों के इस्तेमाल से लोगों की सेहत बिगड़ना सरकार और अदालतों की चिंता का विषय हो सकता है, उसी तरह सुंदरता के नाम पर घटिया क्रीम, दवाएं बेचने और गलत सलाह देने या ऑपरेशन कर देने को भी एक गुनाह के तौर पर लिए जाने की जरूरत है। सुंदरता के लिए प्रयुक्त होने वाले उत्पादों में मौजूद घातक रसायन इंसानों के शरीर में पहुंच रहे हैं, यह बात कई अध्ययनों से साबित हुई है। जैसे, लंदन स्थित ब्रूनेल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा अट्ठाईस देशों में संचालित किए गए एक अध्ययन के नतीजे कुछ ही साल पहले सामने आए थे। इस अध्ययन में पाया गया कि पचास रसायन ऐसे हैं जो अकेले तो ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाते, लेकिन दूसरे रसायनों के साथ मिलाए जाने पर क्रियाएं करके वे कैंसरकारक रसायनों में बदल जाते हैं। जिस तरह से विभिन्न सौंदर्य प्रसाधन कंपनियां अपने उत्पादों में पहले के मुकाबले ज्यादा असर होने के दावे कर रही हैं, उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने रसायनों की मात्रा बढ़ाई होगी या विभिन्न रसायनों के ऐसे मिश्रण तैयार किए होंगे, जो तुरंत परिणाम तो देते हैं पर उनसे स्वास्थ्य संबंधी अत्यधिक खतरे हो सकते हैं। समस्या यह है कि सुंदर दिखने की चाह लोगों को बिना जांचे-परखे ऊंचे दावों वाले लोशन, फेसवॉश, क्रीम, शैंपू की तरफ खींचे ले जा रही है जो आखिर में उनमें कैंसर जैसे गंभीर मर्ज पैदा कर देते हैं। आज के कामकाजी माहौल में स्वस्थ-सुंदर दिखने की अनिवार्यता जैसे पहलुओं ने महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी अपनी सुंदरता कायम रखने के लिए सतत प्रयास करने को प्रेरित किया है। अब गांव-कस्बों की महिलाएं इसमें पीछे नहीं हैं। वहां भी टीवी के प्रभाव व शहरी महिलाओं की देखादेखी ब्यूटी पार्लर जाने का चलन जोर पकड़ रहा है।

लंदन का ब्रूनेल विश्वविद्यालय ही नहीं, कई दूसरी संस्थाएं भी इस संबंध में आगाह करती रही हैं। जैसे, वर्ष 2014 में दिल्ली स्थित पर्यावरणवादी संस्था सेंटर फॉर साइंस (सीएसई) ने एक स्वतंत्र देशव्यापी जांच में यह दावा किया था कि देश में जिन सौंदर्य प्रसाधनों का खूब इस्तेमाल किया जा रहा है, उनमें तरह-तरह के जहरीले तत्त्वों की मात्रा निरापद सीमा से ज्यादा है। ऐसे प्रसाधन महिलाओं में त्वचा कैंसर, पेट की रसौली जैसे गंभीर रोग पैदा कर रहे हैं। सीएसई ने यह निष्कर्ष निकाला था कि त्वचा का रंग निखारने वाली क्रीमों, लिप बाम और एंटी एजिंग क्रीमों में कई रसायन खतरनाक मात्रा तक मौजूद हैं। इनमें पारा (मरकरी), क्रोमियम और निकिल जैसी भारी धातुओं का अत्यधिक इस्तेमाल पाया गया था। रंग गोरा बनाने वाली चौवालीस फीसद फेयरनेस क्रीमों में पारा (मरकरी) तय मात्रा के मुकाबले ज्यादा था और पचास प्रतिशत लिपस्टिक ब्रांडों में क्रोमियम और निकिल की मात्रा काफी ज्यादा थी। वैसे तो हमारे देश में भोजन की तरह सौंदर्य प्रसाधनों के हानिकारक तत्त्वों की मात्रा सुनिश्चित रखने के संबंध में कानून पहले से लागू है। इसके मुताबिक यदि सौंदर्य प्रसाधनों में निर्धारित मात्रा से ज्यादा रसायन पाए जाते हैं, तो इसे कानून का उल्लंघन माना जाएगा और दोषी व्यक्ति, संस्था अथवा कंपनी को सजा और जुर्माना भुगतना पड़ेगा। लेकिन इन कानूनों की प्राय: अनदेखी ही होती है। सौंदर्य प्रसाधनों में बड़ी मात्रा में खतरनाक तत्त्वों का मिलना साबित करता है कि न तो उनकी नियमित जांच हो रही है और न उनकी बिक्री रोकी जा रही है। उपभोक्ता संगठन अभी इस बारे में इतने जागरूक नहीं हैं कि वे कंपनियों और सरकार को नियमों के पालन के लिए बाध्य कर सकें। खुद उपभोक्ता भी इस बारे में प्राय: कोई पहल नहीं करते, भले उन्हें कितने ही घातक नतीजे क्यों न झेलने पड़ रहे हों। भारत ही नहीं, विकसित देशों में भी ऐसे विषाक्त सौंदर्य प्रसाधनों की बिक्री रोक पाना आसान क्यों नहीं रहा है? इसका एक जवाब ब्रेस्ट कैंसर फंड की स्वास्थ्य विज्ञानी, सलाहकार नैंसी इवांस अपने एक अनुभव में दे चुकी हैं। उनका कहना था कि इसकी वजह मिलीभगत है। उनके अनुसार, सौंदर्य प्रसाधनों के निरापद-स्तर की जांच करने वाली अमेरिकी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने अपने सात दशकों के इतिहास में सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली सिर्फ नौ ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई, जो मानव जीवन से खिलवाड़ कर रही थीं। इससे प्रतीत होता है कि निगरानी करने वाली संस्थाओं की मिलीभगत से भी सौंदर्य प्रसाधनों में जहरीले तत्त्वों का घालमेल चलता रहा है, जिससे कैंसर के मामले दुनिया भर में बढ़ रहे हैं।

ध्यान देने वाली एक और बात यह है कि भारत में आयातित सौंदर्य प्रसाधनों को लेकर काफी मोह है। हमारे देश में विदेशी ब्रांडों पर आंख मूंद कर भरोसा किया जाता है। यहां तो अभी किसी सरकारी संस्था ने यह पता लगाने की शायद कोई कोशिश भी नहीं की है कि भारतीय महिलाओं में कैंसर के जो मामले बढ़ रहे हैं, कहीं उनके पीछे सौंदर्य प्रसाधनों की ही तो कोई भूमिका नहीं है। भारत में स्थापित ब्रांडों की नकल भी धड़ल्ले से की और बेची जाती रही है। ऐसे में, किसी नामी ब्रांड की नकल के रूप में बिक रहे उत्पाद में कितने अधिक खतरनाक तत्त्व मौजूद हो सकते हैं इसका अंदाजा उपयोगकर्ता को शायद ही हो पाए। लोग इस बात की तो शिकायत जरूर करते हैं कि उन्हें नामालूम कारणों से बड़ी-बड़ी बीमारियां हो जाती हैं, जबकि वे तो अच्छे से अच्छा खाते हैं, पर वे यह जांच करने की जहमत शायद ही उठाते हैं कि जो शैंपू, क्रीम, पाउडर, डियोडरेंट आदि इस्तेमाल कर रहे हैं, कहीं वे नकली तो नहीं? या फिर कहीं उनमें सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले जहरीले रसायन तो नहीं? काश, सरकार या कोई संस्था जोर-शोर से देश की महिलाओं को बताए कि सुंदरता का मतलब चेहरे पर क्रीम-पाउडर पोत लेना नहीं है बल्कि खुद को स्वावलंबी बनाते हुए समाज में अपनी उपयोगिता साबित करना है।